Sunday, March 10, 2024

छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है

कहते है जो पढ़ लिख लिया वो आगे बढ़ गया। बात सही भी है आजकल के आधुनिक दुनिया में बिना पढ़े लिखे गुजारा भी नही हैं किसी का। लाखों छात्र छात्राएं घर से दूर सुदूर निकल पड़ते हैं पढ़ने लिखने के लिए। कोई बनारस तो कोई दिल्ली तो कोई प्रयाग जाता है कलेक्टर बनने। अपना जी जान लगा देते है ये होनहार फिर भी सफलता के आड़े शासन- प्रशासन की नाकामियां आ जाती है। बार-बार पेपर लीक होना इन तमाम छात्रों का हौसला तोड़ देती है। एक पेपर को क्लियर करने में जब सरकार को चार साल लग जा रहे है तो क्या ही कहना... भुगतना तो छात्रों को पड़ता है जो सरकारी नौकरी के तैयारी  के लिए अपना सबकुछ झोंक चुके होते है।  जो लोग लगातार मेहनत कर रहे हैं भूख प्यास दुनिया जहान भूलकर लगे हुए थे तैयारी में उनका क्या ही कहना ,ऐसी अनियमिताओं से व्यथित होकर कोई आत्महत्या कर लेता है।
हर कोई इतना संपन्न परिवार से नही होता है कि लांखो रुपया लगाकर धंधा पानी खोल ले एक सरकारी नौकरी ही है जो उसकी जीवन की नैया पार लगा सकती है। कोई ऐसा पेपर नही जो साफ सुथरा ढंग से हुआ हो हर बार का वही हाल बनाया जा चुका है। पेपर लीक करके उसे रद्द कराना ही मास्टरस्ट्रोक बनकर रह गया है।

रेलवे से लेकर राज्य सरकारों की तमाम नौकरियों में लेट सबेर हो रहा है । नकल माफियाओं का दबदबा कायम है ये कोई भी पेपर होता है लीक करा देते है और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। एक कल्याण सिंह का समय था जब दसवीं और बारहवीं तक में नकल नही होता था और आज का समय है पीसीएस लेवल का परीक्षा तक सक दायरे में रहता है लीक हुआ है और हर बार होता है बार-बार होता है। मजाक बनकर रह गया है छात्रों का भविष्य। कोई ठुल्लुआ आकर कहता है की सरकारी नौकरी सबको नही मिल सकती है भीड़ ज्यादा हैं लोगो को दूसरे सेक्टर की तरफ ध्यान देना चाहिए लेकिन जितनी है उतनी किसी को मिल रही है की नही इसपर नही बोलेंगे। बाकी आईआईटी ,एनआईटी , आईआईएम, एमबीबीएस वाले आईएएस बने घूम रहे है वो देश सेवा का भाव है नागरिकशास्त्र , समाजशास्त्र आदि पढ़के स्नातक करने वाला सरकारी नौकरी की तरफ न देखे क्योंकि प्राइवेट सेक्टर में बहुत पैसा है...!
 हद दर्जे के लोग आ जाते है शासन-प्रशासन के नकारेपन पर सवाल खड़ा करने पर देशद्रोही घोषित कर देंगे 
अब तो हद हो गई है। मतलब अब  तो हद हो गई है की लेखपाल की परीक्षा पास करना भी बड़ी बात हो चली है अखबारो में लोगो की तस्वीरें छप रही है।
 सरकारी नौकरी पर ज्ञान देने वाली चुगद बिरादरी आजकल खामोश कैसे बैठी हुई है. नौकरी मिले न मिले इनके माईबाप नौकरियां देने की घोषणाएं तो भरपूर कर रहे हैं....बुरा तो लग रहा होगा, सुलग भी रही होंगी.. अपने माईबाप का विरोध नहीं करेगी ये बिरादरी?
खैर रोजगार का मतलब सिर्फ सरकारी नौकरी या कोई और पक्का रोजगार ही थोड़े होता है..कोई ३०० रूपये की दिहाड़ी पर महीना भर काम कर ले तो वो भी रोजगार ही होता है...!
कई सालो पहले मैने कुछ लिखा था वो आज भी सटीक बैठता है
अब है ही क्या समझाने और बताने को? 
गांव हो या शहर जिंदगी हो गई है खंडहर! 
घर- गांव छोड़ के खेती- बारी 
बड़का शहर में होत ह चौकीदारी! 
नौकरी ना मिलल सरकारी 
अब बेचत हई ठेला पर तरकारी ! 
क्या करे साहब शिक्षा हुई बेकार
 हम हुए अंग्रेजी के आगे लाचार ! 
फिर घर से हुए दूर बने मजदूर 
ना ढंग से पैसा ना भरा पेट भरपूर 
सारा सपना हुआ चकनाचूर! 
अब है ही क्या समझाने और बताने को? 
गांव हो या शहर जिंदगी हो गई है खंडहर!
 यही कहानी हर युवा गाता है 
अपने को यूपी-बिहार से बताता है!

Sunday, December 31, 2023

वो तथाकथित मस्जिदे जिनकी दिवारे चीखकर कहती है "हम मंदिर है"

देश जब आजाद हुआ तो शिक्षा व्यवस्था में एक ऐसा धड़ा बैठा था जिसने भारत और भारती इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया इसमें कोई सक नही हैं।आज भी इस्लामिक अक्रांताओ को महान बताने से ये पीछे नही हटते है। ये इनके कला और संस्कृति की बात करते है अब जिन्होंने भारत में मारकाट किया हो लाखो लोगो का धर्मांतरण किया हो उनका भला कोई कला संस्कृति भी होगा? इस देश में ये बात जबरदस्ती मनवाई जाती है वर्तमान में तो कोई नही मानने वाला है ये भी कहना गलत होगा मूर्खो की कमी नही है इधर बिना पढ़े दुसरो को सुनकर भी इधर बकवास किया जा सकता है इतिहास पर। मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाने वालों का भला क्या योगदान हो सकता है जिनका महिमंडन तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी और इतिहासकार करते है..!अयोध्या काशी मथुरा ही नही और भी बहुत सारे ऐसे प्राचीन मंदिर है जिसे तोड़कर मस्जिद खड़ी गई है।

 आइए जानते है कुछ ऐसे ही मंदिरो के बारे में :

अटाला मस्जिद 

उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल क्षेत्र के जौनपुर जिले में स्थित ये अटाला मस्जिद कभी अटाला मंदिर हुआ करता था। इसे देखते ही कोई भी कह सकता है ये मस्जिद नहीं मंदिर है। 
 इब्राहिम नायीब बारबक ने तुड़वाकर मस्जिद बनाई थी जिसे आज अटाला मस्जिद के नाम से जानते हैं। इसका काम 1377 में शुरू हुआ था और 1408 में इंब्राहिम शाह शर्की के शासन में खतम हुआ है।
कही से भी नही लगता है की ये विदेशी आक्रांताओं द्वारा इसका निर्माण कराया गया होगा। जिले की इतिहास पर लिखी त्रिपुरारि भास्कर की पुस्तक जौनपुर का इतिहास में अटाला मस्जिद के बारे में भी लिखा गया है। जिन्होंने अटाला के नाम के संबंध पर बताया कि "लोगों का विचार है कि यहां पहले अटलदेवी का मंदिर था, क्योंकि अब भी मोहल्ला सिपाह के पास गोमती नदी किनारे अटल देवी का विशाल घाट है। अंत में यह अटाला मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका निर्माण कन्नौज के राजा विजयचंद्र के जरिए हुआ था और इसकी देखरेख जफराबाद के गहरवार लोग किया करते थे। यह कहा जाता है कि इस मंदिर को गिरा देने का हुक्म फिरोज शाह ने दिया था परंतु हिंदुओं ने बहादुरी से इसका विरोध किया, जिसके कारण समझौता होने पर उसे उसी प्रकार रहने दिया गया था। अंत में 1364 ई. में ख्वाजा कमाल खां ने  इसे मस्जिद का रूप देना प्रारंभ किया इब्राहिम शाह शर्की ने पूरा किया। इसके विशाल लेखों से पता चलता है कि इसके पत्थर काटने वाले राजगीर हिंदू थे जिन्होंने इस पर हिंदू शैली के नमूने तराशे है। कहीं-कहीं पर कमल का पुष्प उत्कीर्ण है। यह मस्जिद जौनपुर की शिल्पकला का एक अति सुंदर नमूना है। इसके मध्य के कमरे का घेरा करीब 30 फीट है यह एक विशाल गुंबद से घिरी है जिसकी कला, सजावट और बनावट मिश्र शैली के मंदिरों की भांति है।"
बाकी जिले का नाम ही तुगलकी है "जौनपुर" तो समझ सकते है इसके स्थापना के लिए किस तरह इधर तबाही मचाई गई होगी इन इस्लामिक जिहादियों द्वारा। ना जाने सारे मंदिर इधर तोड़े फोड़े गए होंगे जिनके अवशेष तक नहीं मिलते होंगे।

अढ़ाई दिन का झोपड़ा

इसकी तो ऐसी प्रशंसा कर दी जाती है की क्या ही कहना।बहुत कम लोग जानते होंगे की मंदिर के स्थान पर बनाया गया है।
वो मूल रूप से विशालकाय संस्कृत महाविद्यालय (सरस्वती कंठभरन महाविद्यालय) हुआ करता था, जहाँ संस्कृत में ही विषय पढ़ाए जाते थे। यह ज्ञान और बुद्धि की हिंदू देवी माता सरस्वती को समर्पित मंदिर था। इस भवन को महाराजा विग्रहराज चतुर्थ ने अधिकृत किया था। वह शाकंभरी चाहमना या चौहान वंश के राजा थे।

कई दस्तावेजों के अनुसार, मूल इमारत चौकोर आकार की थी। इसके हर कोने पर एक मीनार थी। भवन के पश्चिम दिशा में माता सरस्वती का मंदिर था। 19वीं शताब्दी में, उस स्थान पर एक शिलालेख (स्टोन स्लैब) मिली थी जो 1153 ई. पूर्व की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि शिलालेख के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मूल भवन का निर्माण 1153 के आसपास हुआ था।

कहानी के अनुसार, 1192 ई. में, मुहम्मद गोरी ने महाराजा पृथ्वीराज चौहान को हराकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। उसने अपने गुलाम सेनापति कुतुब-उद-दीन-ऐबक को शहर में मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। ऐसा कहा जाता है कि उसने ऐबक को 60 घंटे के भीतर मंदिर स्थल पर मस्जिद के एक नमाज सेक्शन का निर्माण करने का आदेश दिया था ताकि वह नमाज अदा कर सके। चूँकि, इसका निर्माण ढाई दिन में हुआ था, इसीलिए इसे ‘अढाई दिन का झोंपड़ा’ नाम दिया गया। हालाँकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह सिर्फ एक किंवदंती है। मस्जिद के निर्माण को पूरा करने में कई साल लग गए। उनके अनुसार, इसका नाम ढाई दिन के मेले से पड़ा है, जो हर साल मस्जिद में लगता है।


प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम गोयल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू टेंपल: व्हाट हैपन्ड टू देम’ (‘Hindu Temples: What Happened To Them’) में मस्जिद का उल्लेख किया है। उन्होंने लेखक सैयद अहमद खान की पुस्तक ‘असर-उस-सनदीद’ का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अजमेर की मस्जिद, यानी अढाई दिन का झोंपड़ा, हिंदू मंदिरों की सामग्री का उपयोग करके बनाया गया था।

अलेक्जेंडर कनिंघम को 1871 में ASI के महानिदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने ‘चार रिपोर्ट्स मेड ड्यूरिंग द इयर्स, 1862-63-64-65’ में मस्जिद का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। कनिंघम ने उल्लेख किया कि स्थल का निरीक्षण करने पर, उन्होंने पाया कि यह कई हिंदू मंदिरों के खंडहरों से बनाया गया था। उन्होंने कहा, “इसका नाम ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ इसके निर्माण की आश्चर्यजनक गति को दिखाता है और यह केवल हिंदू मंदिरों के तैयार मुफ्त सामग्री के इस्तेमाल से ही संभव था।”

कनिंघम ने आगे रिपोर्ट में मस्जिद का दौरा करने वाले ब्रिटिश साम्राज्य के लेफ्टिनेंट-कर्नल जेम्स टॉड का हवाला दिया। टॉड ने कहा था कि पूरी इमारत मूल रूप से एक जैन मंदिर हो सकती है। हालाँकि, उन्होंने उन पर चार-हाथ वाले कई स्तंभ भी पाए जो स्वभाविक रूप से जैन के नहीं हो सकते थे। उन मूर्तियों के अलावा, देवी काली की एक आकृति थी।
उन्होंने आगे कहा, “कुल मिलाकर, 344 स्तंभ थे, लेकिन इनमें से दो ही मूल स्तंभ थे। हिंदू स्तंभों की वास्तविक संख्या 700 से कम नहीं हो सकती थी, जो 20 से 30 मंदिरों के खंडहर के बराबर है।

भोजशाला

‘भोजशाला’ ज्ञान और बुद्धि की देवी माता सरस्वती को समर्पित एक अनूठा और ऐतिहासिक मंदिर है। इसकी स्थापना राजा भोज ने की थी। राजा भोज (1000-1055 ई.) परमार राजवंश के सबसे बड़े शासक थे। वे शिक्षा एवं साहित्य के अनन्य उपासक भी थे। उन्होंने ही धार में इस महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिसे बाद में भोजशाला के रूप में जाना जाने लगा। यहाँ दूर-दूर से छात्र पढ़ाई करने के लिए आते थे।
देवी सरस्वती का यह मंदिर मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित है, जो उस समय राजा भोज की राजधानी थी। संगीत, संस्कृत, खगोल विज्ञान, योग, आयुर्वेद और दर्शनशास्त्र सीखने के लिए यहाँ काफी छात्र आया करते थे। भोजशाला एक विशाल शैक्षिक प्रतिष्ठान था।
मुस्लिम जिसे ‘कमाल मौलाना मस्जिद’ कहते हैं, उसे मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़कर बनवाया है। अभी भी इसमें भोजशाला के अवशेष स्पष्ट दिखते हैं। मस्जिद में उपयोग किए गए नक्काशीदार खंभे वही हैं, जो भोजशाला में उपयोग किए गए थे। मस्जिद की दीवारों से चिपके उत्कीर्ण पत्थर के स्लैब में अभी भी मूल्यवान नक्काशी किए हुए हैं। इसमें प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हुए हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृति व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है।  इसमें प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हुए हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृति व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है। इसके अलावा, कुछ अभिलेख राजा भोज के उत्तराधिकारी उदयादित्य और नरवर्मन की प्रशंसा की गई है। शास्त्रीय संस्कृत में एक नाटकीय रचना है। यह अर्जुनवर्मा देव (1299-10 से 1215-18 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान अंकित किया गया था। यह नाटक प्रसिद्ध जैन विद्वान आषाधार के शिष्य और राजकीय शिक्षक मदन द्वारा रचा गया था। नाटक को कर्पुरमंजरी कहा जाता है और यह धार में वसंत उत्सव के लिए था।



मंदिर, महलों, मंदिरों, महाविद्यालयों, नाट्यशालाओं और उद्यानों के नगर- धारानगरी के 84 चौराहों का आकर्षण का केंद्र माना जाता था। देवी सरस्वती की प्रतिमा वर्तमान में लंदन के संग्रहालय में है। प्रसिद्ध कवि मदन ने अपनी कविताओं में भी माता सरस्वती मंदिर का उल्लेख किया है।
साल 1305, 1401 और 1514 ई. में मुस्लिम आक्रांताओं ने भोजशाला के इस मंदिर और शिक्षा केंद्र को बार-बार तबाह किया। 1305 ई. में क्रूर और बर्बर मुस्लिम अत्याचारी अलाउद्दीन खिलजी ने पहली बार भोजशाला को नष्ट किया। हालाँकि, इस्लामी आक्रमण की प्रक्रिया 36 साल पहले 1269 ई. में ही शुरू हो गई थी, जब कमाल मौलाना नाम का एक मुस्लिम फकीर मालवा पहुँचा। कमाल मौलाना ने कई हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए छल-कपट का सहारा लिया। उसने 36 सालों तक मालवा क्षेत्र के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा की और उसे अलाउद्दीन खिलजी को दे दी। युद्ध में मालवा के राजा महाकाल देव के वीरगति प्राप्त करने के बाद खिलजी ने कहर शुरू हो गया। खिलजी ने भोजशला के छात्रों और शिक्षकों को बंदी बना लिया और इस्लाम में धर्मांतरित होने से इनकार करने पर 1200 हिंदू छात्रों और शिक्षकों की हत्या कर दी। उसने मंदिर परिसर को भी ध्वस्त कर दिया। मौजूदा मस्जिद उसी कमाल मौलाना के नाम पर है।


कुव्वत-उल-इस्लाम 
कुतुबुद्दीन ऐबक का कुतुब मीनार दिखाकर कला संस्कृति की अनोखी पहचान और उत्कृष्ट प्रदर्शन बताने वाले तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी इतिहासकार कुछ ज्यादा ही मग्न होते है। इस क्रूर आक्रांता ने भी कम कहर नहीं ढाए है हिंदुओ पर।
कुव्वत-उल इस्लाम मस्जिद कुतुब मीनार के उत्तर पूर्व में स्थित है। कुव्वत-उल-इस्लाम को मामलुक वंश के संस्थापक कुतुब-उद-दीन ऐबक ने बनवाया था। इसे 27 हिंदू और जैन मंदिरों के खंडहरों का उपयोग करके बनाया गया था। यह भारत पर मुस्लिम विजय का जश्न मनाते हुए विजय की मीनार के लिए जाना जाता है। कुछ इतिहासकार कहते है की ये सन 1195 में शुरू हुआ था बनना और 1199 खतम हुआ। देखने से विष्णु मंदिर नजर आता है साफ साफ। अब इसे इधर लोग ऐसे बताते है मानो कितने बड़े विद्वान थे ये मलेक्ष।

जफर खान गाज़ी का मकबरा और मस्जिद
कहा जाता है ये पहले विष्णु मंदिर था या कृष्ण भगवान का मंदिर है इसे खंडित करके मकबरा और मस्जिद में तब्दील कर कर दिया गया था। दीवारे झूठ नहीं बोलते है कभी बस इतना समझ लीजिए। आखिर कहा तक इन आक्रांताओं के वजूद को लेकर ढोएंगे भारत के हिंदू और ये भारत देश अपने आराध्य प्रभु श्री कृष्ण की दुर्दशा कबतक बर्दाश्त करता रहेगा?
आप इन प्रस्तुत तस्वीरों में देख सकते है आखिर किस तरह से हमारे अस्तित्व को समाप्त करने की कोशिश की गई है।
कोई माने या माने ये तस्वीरे सबकुछ बयां कर रही है। लोग खुद भी जाकर इन जगहों में जांच पड़ताल कर सकते है। बाकी तस्वीरों में इतिहास बाकी सब बकवास। भारत के कुछ मंदिरों की दिवारे ऐसे ही अपना दर्द रोती है। चीखती पुकारती हैं , आओ मुझे मलेक्षो से स्वतंत्र करो, मुझे पवित्र करो। हमारा अस्तित्व को मिटाने की कोशिश करने वालो का इतना सम्मान आखिर क्यों हो रहा है ? क्या हमें अपनी खोई हुई विरासत को सहेजने का हक नहीं है? हम अपने ही देश में अपने मंदिर को पुनः स्थापित नही कर सकते है .. मंदिरों के देश ऐसे ही न जाने कितने मंदिर न्याय मांग रहे है... एक दिन आएगा उनका वीर धर्मपुत्र इनको मुक्ति दिलाएगा। बाकी कहा तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी वर्ग लंबे चौड़े भाषण देकर लेख लिखकर भषड़ मचाता हैं इसपर कुछ नही बोलेंगे ये लोग इनकी बोलती बंद हो जाएगी या ये मनगढ़ंत कहानी प्रस्तुत कर देंगे...!
देश में आपसी भाईचारे, गंगा जमुनी तहजीब की बात होती है तो क्या मंदिर तोड़ कर बने मस्जिद में नमाज़ पढ़ना गंगा जमुनी तहजीब का उदाहरण है या इस्लामी आक्रांताओं के गुणगान करने का? क्या मुस्लिमों को स्वेच्छा से इन स्थानों को इनके असली हकदार को नहीं दे देनी चाहिए?


( स्रोत~  हिस्ट्री ऑफ मेडिवल इंडिया-वीडी महाजन , मध्यकालीन भारत के इतिहास पर तमाम पुस्तके , कुछ तस्वीरें इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त

Friday, December 22, 2023

राजनीतिक हलचल आजकल

बहुत दिनों से मेरा मोबाइल खराब हो रखा है तो कोई खबर नहीं मिलती है। आजकल के अखबारों में भी वो अब बात नही रही बस चारो तरफ गंध फैला हुआ है। राजनीति तो राजनीति अब खेलों में भी अलग धंधा चालू हो चुका है। मतलब क्या ही बोला जाय आजकल के खेल पत्रकारो का वो किसी खिलाड़ी विशेष के दलाल बने हुए दिख जाते है अपने लेख और खबरों के माध्यम से। बनिए फैन किसी बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी का लेकिन इतना गिरिए की किसी और बेहतरी खिलाड़ी को नीचा गिराने लग जाए खुलेआम। खैर छोड़िए भी मुड़कर आते हैं राजनीति में शुरू से लेकर अंत तक छत्तीसगढ़ में जो माहौल मीडिया में भूपेश बघेल जी ने बनाया था क्या ही कहना ऐसा लग रहा था इस बार भी यही मुख्यमंत्री बनेंगे और फिर कांग्रेस की सरकार बनेगी...!  जब नतीजे आए तो सब धरा का धरा रह गया। वो बिकाऊ मीडिया भी गायब हो गई जो इन्हे एक महान नेता की तरह प्रस्तुत कर रही थी। 
यही हाल राजस्थान और मध्यप्रदेश का रहा। राजस्थान का तो फिर भी समझ में आता है की हर पांच साल में सरकार बदल ही जाती है और जनता भी त्रस्त थी गहलोत सरकार से लेकिन जो घटिया माहौल शिवराज या भाजपा सरकार के खिलाफ बनाया गया था मीडिया, सोसल मीडिया द्वारा उसको जोरदार तमाचा लगा है। हा मुख्यमंत्री बेसक मोहन यादव जी को बनाया गया है लेकिन इससे शिवराज जी की लोकप्रियता खत्म नही हो जाती है। समय की मांग थी बदलाव जरूरी था और हुआ है। अब जैसे राजस्थान में  भजन लाल शर्मा जी को मुख्यमंत्री का पद मिला है ठीक वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ में विष्णु देव साय जी को मिला है। बात साफ भाजपा ने बड़ा खेल खेल लिया है इन तीनो जमीनी नेताओ को मुख्यमंत्री का पद देकर। सवर्ण ,सामान्य, पिछड़ा या अनुसूचित जाति, आदिवासी वर्ग के लोगो  लेकर गजब की राजनीति चल रही है जिसमे भाजपा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है और विपक्ष से बहुत आगे निकल चुकी है जिसका परिणाम आने वाले लोकसभा चुनाव में भी दिखेगा। 
अब मोदी जी को पनौती बोला गया था मोदी जी ने उसे आड़े हाथों लिया इस मुद्दे को। कुछ लोग अपनी जबान बंद करके भी अपने पार्टी की मदद कर सकते है लेकिन इनसे ये भी नही होगा। चलिए ठीक है अभी हाल ही में संसद में कुछ तथाकथित लोग घुस गए जोकि एक राष्ट्रीय सुरक्षा में चूक का मामला है अगर यही बंदूक धारी होते और इनके पास विस्फोटक होता तो बड़ा हादसा हो सकता है। विपक्ष के पास बेहतरीन मौका था की सरकार को इस मुद्दे को लेकर घेरे लेकिन नही इन्हे उन तथकतिथ घुसपैठियों का समर्थन करना था। समर्थन करते हुए कहते है सब की बेरोजगारी की वजह से ये सब हुआ है। एक अलग ही स्तर की राजनीति चल रही विपक्ष वालो की इनका बनाया इंडी गठबंधन भी किसी काम का सब ढोकोसला था। शायद पहली बार ऐसा हुआ है की राज्यसभा से इतने सांसद निलंबित हुए है। विरोध प्रदर्शन में एक टीएमसी के नेता कल्याण बनर्जी ओछी हरकत करते हुए नजर  आए देश के उपराष्ट्रपति की नकल कर रहे थे और मजाक उड़ा रहे थे वही पर कांग्रेस के युवराज वीडियो बना रहे थे। एक लगभग 80 साल के शिष्ट और सुसंस्कृत व्यक्तित्व का मजाक उड़ाया गया जो संवैधानिक तौर पर भारत के शायद तीसरे सबसे महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन हैं। राहुल गांधी कभी भी एक गंभीर राजनेता नहीं बन सकते। राहुल गांधी वीडियो बनाने की जगह उस सांसद को रोकते तो एक गंभीर राजनेता की छवि बन सकती थी ये छोटी छोटी चीज ही इंसान को बड़ा बनाती है
बाकी सब मौजूद सांसदों की नीचता का स्तर भी दिख गया।



Wednesday, November 22, 2023

मैच जिताने में ऑलराउंडर की बड़ी भूमिका होती है

अभी अभी विश्वकप खत्म हुआ हैं। लोगो की भावनाएं आहत हुई है। करीब 20 साल बाद भारत और आस्ट्रेलिया आमने सामने थे फाइनल में इस बार टॉस जीतकर बॉलिंग की ऑस्ट्रेलिया ने पिछली भारत ने की थी जैसे लेकिन कोई फर्क नही पड़ा नतीजा वही निकला 6 विकेट से ऑस्ट्रेलिया ने मैच को जीत लिया। रोहित शर्मा ने जो शॉट खेला था उसके लिए वो जब तक जीवित रहेंगे तब तक खुद को गालियां ही देंगे... कैसे यार मुझे रुकना चाहिए था.... एक दम से 1983 में जैसे सर विवियन रिचर्ड्स ने खेला था और कपिल देव ने कैच पकड़ा था उसी तरह से रोहित शर्मा ने खेला और हेड ने कैच पकड़कर खेल पलट दिया। बात यही नही खतम नही होती है हमने एक ऑलराउंडर खेलाना जरूरी नहीं समझा, सूर्या को खेलाना बेकार ही फैसला था वो बॉलिंग भी नही करा सकता है.. हार्दिक पांड्या का घायल को बाहर होना खल गया लेकिन इतने बड़े देश क्या कोई ऑलराउंडर नहीं मिला बीसीसीआई को.. हद है अश्विन को बाहर बैठा कर रखा फाइनल में शार्दुल भी नही खेला चलो ठीक है कम से कम यार प्रसिद्ध कृष्णा को तो खेला सकते थे। पार्ट टाइमर कोई नहीं था भारत में जिसका डोमेस्टिक में बॉलिंग रिकॉर्ड बढ़िया हो और अच्छा खासा ओवर निकाल ले।

2007 का T20 ,2011 हो या 2013 का चैंपियन ट्रॉफी  हम तभी जीते जब खिलाड़ी बदलते गए पिच के हिसाब से विनिंग कांबिनेशन जैसा कुछ नही होता है। Constant कुछ भी नही होता है... सचिन सहवाग तक बॉलिंग करके ओवर निकाल लेते थे जब टीम जरूरत पड़ती थी तो। युवराज रैना जैसे ऑलराउंडर अब नही दिखते है टीम। भले ही फास्ट बॉलिंग ऑलराउंडर नही थे लेकिन टीम संतुलित थी इन स्पिन फेंकने वालो से। शर्म की बात है की टीम में कोई ऑलराउंडर नही है अगर जडेजा को आप बल्लेबाज मानते है तो आप आईपीएल ही देखिए वही सही है आपके लिए... Individual records बनाने में सब लगे ही थे और बनने भी चाहिए.. लेकिन दबाव में खेलने वाला गंभीर बड़ा याद आया यार...इस विश्वकप में ऑस्ट्रेलिया की टीम आप देख सकते है ऑलराउंडरों और पार्ट टाइम गेंदबाजों की कमी नही थी। मानते है हमने 10 दस मैच लगातार जीते लेकिन सामने 5 बार की चैंपियन थी जो कभी हार नही मानती है अफगानिस्तान के खिलाफ मैक्सवेल के दोहरे शतक बता दिया था की हम हारने वालो में से नही है। कहते है न सब अच्छा हो रहा तो गलत चीजे दिखनी बंद हो जाती है लोगो को वही हुआ है आलोचना किसी को पसंद नही आजकल वैसे भी आलोचना करने वालो का रिकॉर्ड चेक करने लग जाते है आजकल के तथाकथित प्रसंशक लोग। बिना ऑलराउंडर के खेलेंगे तो खामियाजा भुगतना ही था एक न एक दिन ।

2011 भारत विश्वकप टीम में धोनी और गंभीर को छोड़ सारे खिलाड़ी लगभग ठीक ठाक गेंदबाजी कर लेते थे।
1996 की श्रीलंका की विश्वकप टीम में महानामा और कालुविथर्ना को छोड़ सब गेंदबाजी कर सकते थे।
87 की विश्वकप ऑस्ट्रेलिया टीम में 8-9 गेंदबाजी कर सकने वाले लोग थे। ये विश्वकप भारत में हुए थे।

 एक बात और विव रिचर्ड्स महान थे और रहेंगे जब दुनियाभर के बड़े क्रिकेटर 60 की स्ट्राइक से वनडे खेलते थे और उसे बेस्ट कहते थे तब विव रिचर्ड्स की 90+ स्ट्राइक थी इतना ही नही तेज गेंदबाज भी थे फिल्डिंग में तो लाजवाब एक दम 3d खिलाड़ी बिना हेलमेट के उस समय के तेज गेंदबाजो को पानी पिला देते थे... महानता ये नही की आपने अपने करियर में क्या किया.. आपने विश्व कप जितवाया की नही अपनी टीम को इसमें में है..!

Sunday, November 5, 2023

संविधान प्रावधानों के स्त्रोत और योगदान


संविधान कि बेसिक बातों को छोड़कर कुछ अलग जानने कि कोशिश करते हैं। 

आंशिक भ्रांति वाली बातों जैसे कि संविधान मूलतः केवल प्रारूप समिति ने ही तैयार किया, संविधान का आधार मूलतः 1935 का भारत सरकार अधिनियम और संविधान के स्त्रोत केवल विदेशी संविधान ही है जैसे मुद्दों पर थोड़ा ध्यान देते हैं।

सर्वप्रथम तो "प्रारूप समिति" पर वाली बात पर आते हैं, संविधान सभा कि अनेक समितियां थी जिन्होंने अपना काम ईमानदारी व मेहनत से किया। उन्हें में से एक प्रारूप समिति भी थी इसलिए ऐसा नहीं कि उसका योगदान नहीं है। लेकिन अक्सर ऐसा समझा जाता है संविधान का खाका सर्वप्रथम इसी समिति और हल्केपन से कहां जाएं तो बाबा साहेब अंबेडकर ने तैयार किया। लेकिन ऐसा नहीं है, प्रारूप समिति का मुख्य काम ये था कि संविधान सभा कि परामर्श समिति द्वारा तैयार संविधान के प्रारूप का परिक्षण करें। और इस परामर्श समिति ने ही संविधान को प्रथम प्रारूप तैयार किया। इसमें प्रमुख थे संवैधानिक परामर्शदाता 'बेनेगल नरसिंह राव, जो कि एक सिविल सेवक और राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने विश्व के संविधान विशेषज्ञों से बातचीत करके एक प्रतिवेदन भी प्रस्तुत किया। एक और महत्वपूर्ण बात कि ये सब होने से पहले ही संविधान सभा के सचिवालय ने 3 जिल्दों में दुनियाभर के संविधानों के महत्वपूर्ण दृष्टांत इक्ट्ठे पर संविधान सभा के सदस्यों को वितरित कर दिए थे।

अब आते हैं दूसरी बात पर कि एक लोकप्रचलित बात ये भी है कि संविधान का मूल ढांचा 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है और संविधान के लगभग सारे ही प्रावधान विदेशी संविधानों से उठाए गए हैं। लेकिन ये भी पूर्णतः सत्य नहीं है, बहुत से महत्वपूर्ण प्रावधान जो अभी संविधान में है और जो वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था है उनके बीज और छाया आपको 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट और बाद में आए अधिनियमों में दिख जाएंगे। मूलाधार वो ही है।

नोट: ये सत्य है कि ब्रिटिश सरकार ने जो एक्ट और अधिनियम पारित किए वो केवल उसकी ही सहायता के लिए थे। लेकिन उन्हीं को आधार बनाकर आज के मोटे-मोटे प्रावधान बनाए गए हैं वो भी सत्य ही है।

जैसे कि:

1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट में आपको कालांतर में यानि वर्तमान में राष्ट्रपति कि सर्वोच्चता, मंत्रीमंडल, केन्द्रीय सरकार का प्रारूप, केन्द्र और राज्य तथा विदेश नीति, युद्ध जैसे मामलों में केन्द्र के अधिकार, संसद का प्रशासन पर नियन्त्रण, सुप्रीम कोर्ट के लक्षण नजर आने लगते हैं।

1781 के संशोधन अधिनियम में आपको नजर आएगा कि वहां सुप्रीम कोर्ट कि निरंकुशता पर आंशिक रोक लगी, संसद कि सर्वोच्चता का लक्षण दिखता है, कानून बनाने में भारतीय समाज के रीति-रिवाजों यानि कि समाजिक ढांचे के अनुसार व्यवहारिक कानून बनाना, केन्द्र को राज्यों के लिए कानून बनाने का अधिकार विधि निर्माण में संसद कि सर्वोच्चता के लक्षण दिखते हैं।

1784 के पिट्स इंडिया एक्ट में हमें केन्द्रीय मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री तथा राज्यों में राज्य मंत्रिमंडल का शुरूआती रूप देखने को मिलता है।

1786 के संशोधन अधिनियम में राष्ट्रपति के बिल पर रोक और अध्यादेश पारित करने कि शक्ति का आंशिक रूप देखते हैं।

1793 के चार्टर एक्ट में, हम एक लिखित संविधान और संविधान के प्रावधानों कि व्याख्या सुप्रीम कोर्ट के द्वारा किए जाने, लोकप्रतिनिधि के भारतीय नागरिक होने का अनिवार्यता व उनका वेतन जैसी बातों का आरंभिक रूप दिखता है।

1813 के चार्टर एक्ट में हम समानता का एक रूप देखते हैं (भले ही वो उस समय कंपनी के अलावा बाकी ब्रिटिश व्यापारियों के लिए हो), शिक्षा बजट इत्यादि कि एक रूप देखते हैं।

1833 के चार्टर एक्ट से हमें फिर राष्ट्रपति कि सर्वोच्चता और केन्द्र के पास अधिक अधिकार होने के लक्षण दिखते हैं। पद पर नियुक्ति के लिए समानता, कानून मंत्री और विधि मंत्रालय कि उद्गम का रूप दिखता है।

1853 के चार्टर एक्ट में राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना, राज्यों में राज्यपाल नियुक्ति, शक्ति पृथक्करण, प्रतियोगी परीक्षाओं व राज्यों को भी अपने अधिकार क्षेत्र के कानून बनाने का अधिकार के शुरूआती रूप दिखते हैं।

1858 के भारत सरकार अधिनियम में, हम सरकारों कि वैधानिकता, संसद से पारित कानूनों पर राष्ट्रपति कि स्वीकृति, संसद में बजट पेश करना, लोक सेवाओं में समानता, जनता कि एकसमान अधिकार, सरकार के लोककल्याणकारी कार्यों जैसे अनेक प्रावधानों कि कच्ची रूपरेखा देखने को मिलती है।

1861 के भारत परिषद अधिनियम में हम संसद व विधानसभाओं में सदस्यों कि संख्या का निर्धारण, संसद के द्वारा नए राज्य व केंद्र शासित प्रदेश बनाना, राष्ट्रपति व राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार, संसद द्वारा देश के नागरिकों हेतु कानून बनाना, जैसे प्रावधानों व शक्तियों का और अधिक स्पष्ट रूप नजर आने लगता है।

1892 के भारतीय परिषद अधिनियम में निर्वाचन द्वारा विधानसभा व लोकसभा के सदस्य चुने जाना, संसद व विधानसभा कि शक्तियों में वृद्धि, कार्यपालिक पर नियंत्रण जैसी चीजों का शुरूआती रूप दिखने लगता है।

1909 के भारतीय परिषद अधिनियम (मार्ले-मंटो सुधार) में हम आरक्षित सीटों के कंसेप्ट, सरकार कि संसद में जवाबदेही जैसे महत्वपूर्ण प्रावधानों को पनपता देख सकते हैं।

1919 का भारत सरकार अधिनियम (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) में द्विसदनीय व्यवस्था, राज्यसभा में मनोनीत सदस्य, निर्वाचन क्षेत्र, मताधिकार, राज्यों में भी द्वैध शासन, केंद्र व राज्यों में विषयों का बंटवारा जैसे सिद्धांतों को और परिपक्व होते देखते हैं।

बाकी 1935 और 1947 का भारत सरकार अधिनियम तो है ही । उनके बारे में लिखकर पोस्ट को क्यूं ही बिना बात लंबा करना, जबकि ये पहले ही हो चुकीं हैं।

खैर, इतना लिखने का उद्देश्य बस ये था कि ऐसा नहीं है कि सबकुछ अचानक हो जाता है और एक ही इन्सान सबकुछ कर डालता है। विशेषकर बात जब एक सामूहिक योगदान से बने किसी प्रोजेक्ट कि हो, और यहां वो प्रोजेक्ट संविधान था। सबका योगदान था, सबका खून-पसीना शामिल था। ना किसी एक व्यक्ति और ना किसी एक राजनीतिक पार्टी ने तैयार किया।

लेखक: पुष्पराज आर्य