"किसी समाज अथवा देश को पहचानने के लिए उस समाज अथवा देश के साहित्य से परिचित होने की परमावश्यकता होती है, क्योंकि समाज के प्राणों की चेतना उस समाज के साहित्य में प्रतिच्छवित हुआ करती है।"
उपरोक्त कथन मां भारती के महान सपूत एवं युवा क्रांतिकारी
भगत सिंह का है। इस कथन की सत्यता का इतिहास साक्षी है। जिस देश में साहित्य तथा साहित्यिक जागृति पैदा ना हो उस देश चाहकर भी उत्थान नही हो सकता है। जब देश गुलामी के घनघोर साये में जी रहा था और चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा था तब हिन्दी साहित्य के राष्ट्रवादी कलमकारों ने अपने कलम से ज्वलंत प्रतिक्रिया दी। देश को अंधेरे के के आवरणों से निकालकर उजाला प्रदान किया। सोए भारत के नींद से उठाने का कार्य किया हिंदी साहित्य ने।
स्वंत्रता आंदोलन भारतीय इतिहास का वह युग है, जो पीड़ा कड़वाहट, दंभ, आत्मसम्मान , गर्व गौरव और बलिदानियों के रक्त से लाल से हैं। इस युग में हिंदी साहित्यकारों ने ब्रिटिश साम्राज्य जड़ों को हिलाने में कोई कसर नही छोड़ी थी। कलम के ताकत से पूरा जोर लगा दिया। जयशंकर प्रसाद की कलम बोल उठी-
"हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती।"
प्रेमचंद की रंगभूमि, कर्मभूमि उपन्यास हो या भारतेंदु हरिश्चंद्र का "भारत दर्शन", नाटक सब देश प्रेम की भावना से भरी पड़ी हैं। कथा। सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने स्वतंत्र संग्राम या आंदोलन में अपनी लेखनी के दम पर अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। अपनी भागीदारी निभाने में पीछे नहीं रहे और मृतप्रायः भारतीय जनमानस में उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए एक नई ताकत और उर्जा का संचार किया। प्रेमचंद की कहानियों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक तीव्र विरोध दिखा ही, इसके अलावा दबी-कुचली शोषित व अफसरशाही से के बोझ से दबी जनता के मन में कर्तव्य-बोध का एक ऐसा बीज अंकुरित हुआ जिसने सबको आंदोलित कर दिया। प्रेमचंद ने जन- जागरण एक ऐसा अलख जगाया की जनता हुंकार उठी। सरफरोशी का जज्बा जगाती प्रेमचंद की बहुत सारी रचनाओं को ब्रिटिश राज के रोष का शिकार होना पड़ा न जाने कितनी रचनाओं पर रोक लगा दी गई और उन्हें जब्त करके जला दिया गया। इन सबकी परवाह न करते हुए वे अनवरत लिखते रहे। इनकी रचना "सोजे वतन" पर अंग्रेज अफसर ने आपत्ति जताई और उन्हें पूछताछ के लिए तलब किया। अंग्रेजी शासन का खुफिया विभाग अंत तक उनके पीछे लगा रहा। प्रेमचंद की कलम ने आग उगलना बंद नही किया बल्कि और प्रखर होकर स्वतंत्रता आंदोलन में विस्फोटक का काम करती रही। उन्होनें लिखा-
"मैं विद्रोही हू जग में विद्रोह करने आया हूं
क्रांति-क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूं।"
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने जिस युग का प्रारंभ किया उसकी जड़े स्वतंत्रता संग्राम में ही थी। भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के साहित्यकारो ने चेतना को गद्य और पद्य दोनो में अभिव्यक्ति दी। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने स्वतंत्र आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजो द्वारा निरीह भारतीय जनता जुल्मोसितम व लूट- खसोट का उन्होंने ने बढ़- चढ़कर विरोध किया। उन्हे इस बात का क्षोभ कि अंग्रेज यहां से सारी संपत्ति लूटकर विदेश ले जा रहे थे। इस लूटपाट और भारत की बदहाली पर उन्होंने काफी कुछ लिखा। "अंधेर नगरी चौपट राजा" नामक व्यंग्य के माध्यम से भारतेंदु ने तत्कालीन राजाओं की निरंकुशता, अंधेरगर्दी और मूढ़ता का सटीक वर्णन किया है। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए उन्होंने ने लिखा है-
" भीतर - भीतर सब रस चुसै,
हंसी - हंसी के तन मन धन मुसै।
जाहिर बातिन में अति तेज,
क्यों सखि साजन , न सखि अंग्रेज।"
द्विवेदी युग के साहित्यकारो ने भी स्वाधीनता संग्राम में अपनी लेखनी द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिली शरण गुप्त, श्रीधर पाठक, माखनलाल चतुर्वेदी भारतीय स्वाधीनता हेतु अपनी तलवार रूपी कलम को पैना किया। इन कवियों ने आम जनता में राष्ट्र प्रेम की भावना जगाने तथा उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने हेतु प्रेरित किया। मैथिली शरण गुप्त ने भारतवासियों को स्वर्णिम अतीत की याद दिलाते हुए कहा -
" हम क्या थे, क्या हैं, क्या होंगे अभी
आओ विचारे मिलकर ये समस्याएं सभी।"
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने "भरत भारती" में लिखा -
"जिसको न निज गौरव तथा
न निज देश का अभिमान है।
वह नर नही, नर पशु निरा है
और मृतक समान है।।"
सुभद्रा कुमारी चौहान की "झांसी की रानी" कविता ने अंग्रेजो को ललकारने का काम किया -
"चमक उठी सन् सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसीवाली रानी थी ।।"
सुमित्रानंदन पंत ने ज्योति भूमि , जय भारत देश तो बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने विपल्व गान लिखा। इन सबके अलावा बंकिम चन्द्र चटर्जी का देशप्रेम से ओत-प्रोत गीत "वंदेमातरम्" ने लोगो के रगों में उबाल ला दिया। अब किसी कीमत पर देश के लोगो को पराधीनता स्वीकार नही थी।
वंदेमातरम् !
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
वंदेमातरम् !
देशभक्ति से ओत - प्रोत माखनलाल चतुर्वेदी की रचना पुष्प की अभिलाषा ने मातृभूमि पर बलिदान वीर सपूतों के प्रति अगाध श्रद्धा दिखाई है और बलिदानों को सर्वोपरि बताया है।
एक फूल के माध्यम से उन्होंने अपनी बातों को जिस सशकत्ता व उत्कृष्टता के था कहा है वह बेहद सराहनीय है।
चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
कविवर रामधारी सिंह दिनकर भी कहां खामोश रहने वाले थे। मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग करने वाले बहादुर वीरों व रणबांकुरो की शान में उन्होंने कहा-
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।
इसी तरह स्वतंत्रता संग्राम में अपनी रचनाओं के माध्यम से भूमिका निभाने वाले साहित्यकारो की लंबी फेहरिस्त है। इससे यह पता चलता है कि स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी साहित्य का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।