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Tuesday, April 15, 2025

विचारों का प्रस्फुटन

पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या

(1924 की बात है। पंजाब में भाषा-विवाद चल रहा था। पंजाबी भाषा की लिपि क्या हो, यह प्रश्न उठा हुआ था। उर्दू और हिन्दी के पक्षघर खूब बहस कर रहे थे। तरह-तरह के तर्क रखे जा रहे थे। भगत सिंह भी इस बहस पर अपने विचार बनाने लगे थे। पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या पर यह लेख उन्होंने पंजाब हिन्दी साहित्य सम्मेलन की निबन्ध प्रतियोगिता में लिखा था और अव्वल मानकर सम्मेलन ने इस पर 50/- का इनाम भी दिया था।

यह लेख सम्मेलन के प्रधानमन्त्री श्री भीमसेन विद्यालंकार ने सुरक्षित रखा और भगत सिंह के बलिदान के बाद 28 फरवरी, 1933 के 'हिन्दी सन्देश' में प्रकाशित किया। सं.)

"किसी समाज अथवा देश को पहचानने के लिए उस समाज अथवा देश के साहित्य से परिचित होने की परमावश्यकता होती है, क्योंकि समाज के प्राणों की चेतना उस समाज के साहित्य में भी प्रतिच्छवित हुआ करती है।"

उपरोक्त कथन की सत्यता का इतिहास साक्षी है। जिस देश के साहित्य का प्रवाह जिस ओर बहा, ठीक उसी ओर वह देश भी अग्रसर होता रहा। किसी भी जाति के उत्थान के लिए ऊँचे साहित्य की आवश्यकता हुआ करती है। ज्यों-ज्यों देश का साहित्य ऊँचा होता जाता है, त्यों-त्यों देश भी उन्नति करता जाता है। देशभक्त, चाहे वे निरे समाज-सुधारक हों अथवा राजनैतिक नेता, सबसे अधिक ध्यान देश के साहित्य की ओर दिया करते हैं। यदि वे सामाजिक समस्याओं तथा परिस्थितियों के अनुसार नवीन साहित्य की सृष्टि न करें तो उनके सब प्रयत्न निष्फल हो जाएँ और उनके कार्य स्थायी न हो पाएँ।

शायद गैरीबाल्डी को इतनी जल्दी सेनाएँ न मिल पातीं, यदि मेजिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जागृति पैदा करने में ही न लगा दिए होते। आयरलैंड के पुनरुत्थान के साथ गैलिक भाषा के पुनरुत्थान का प्रयत्न भी उसी वेग से किया गया। शासक लोग आयरिश लोगों को दबाए रखने के लिए उनकी भाषा का दमन करना इतना आवश्यक समझते थे कि गैलिक भाषा की एक-आध कविता रखने के कारण छोटे-छोटे बच्चों तक को दंडित किया जाता था। रूसो, वाल्टेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्यक्रान्ति घटित न हो पाती। यदि टॉल्स्टाय, कार्ल मार्क्स तथा मैक्सिम गोकी इत्यादि ने नवीन साहित्य पैदा करने में वर्षों व्यतीत न कर दिए होते, तो रूस की क्रान्ति न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तथा व्यवहार तो दूर रहा।

यही दशा हम सामाजिक तथा धार्मिक सुधारकों में देख पाते हैं। कबीर के साहित्य के कारण उनके भावों का स्थायी. प्रभाव दीख पड़ता है। आज तक उनकी मधुर तथा सरस कविताओं को सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं।

ठीक यही बात गुरु नानकदेव जी के विषय में भी कही जा सकती है। सिक्ख गुरुओं ने अपने मत के प्रचार के साथ जब नवीन सम्प्रदाय स्थापित करना शुरू किया, उस समय उन्होंने नवीन साहित्य की आवश्यकता भी अनुभव की और इसी विचार से गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी लिपि बनाई। शताब्दियों तक निरन्तर युद्ध और मुसलमानों के आक्रमणों के कारण पंजान में साहित्य की कमी हो गई थी। हिन्दी भाषा का भी लोप-सा हो गया था। इस समय किसी भारतीय लिपि को ही अपनाने के लिए उन्होंने काश्मीरी लिपि को अपना लिया। तत्पश्चात् गुरु अर्जुन देव जी तथा भाई गुरु दास जी के प्रयत्न से आदि ग्रन्थ का संकलन हुआ। अपनी लिपि तथा अपना साहित्य बनाकर अपने मत को स्थायी रूप देने में उन्होंने यह बहुत प्रभावशाली तथा उपयोगी कदम उठाया था।

उसके बाद ज्यों-ज्यों परिस्थिति बदलती गई, त्यों-त्यों साहित्य का प्रवाह भी बदलता गया। गुरुओं के निरन्तर बलिदानों तथा कष्ट-सहन से परिस्थिति बदलती गई। जहाँ हम प्रथम गुरु के उपदेश में भक्ति तथा आत्म-विस्मृति के भाव सुनते हैं और निम्नलिखित पद में कमाल आजिज़ी का भाव पाते हैं:

नानक नन्हे हो रहे, जैसी नन्हीं दूब ।

और घास जरि जात है, दूब खूब की खूब

वहीं पर हम नवें गुरु श्री तेगबहादुरजी के उपदेश में पददलित लोगों की हमदर्दी तथा उनकी सहायता के भाव पाते हैं :

बाँहि जिन्हाँ दी पकड़िए, 
सिर दीजिए बाँहि न छोड़िए।
गुरु तेगबहादुर बोलया, 
धरती पै धर्म न छोड़िए ॥

उनके बलिदान के बाद हम एकाएक गुरु गोविन्द सिंह जी के उपदेश में क्षात्र धर्म का भाव पाते हैं। जब उन्होंने देखा कि अब केवल भक्ति-भाव से ही काम न चलेगा, तो उन्होंने चंडी की पूजा भी प्रारम्भ की और भक्ति तथा क्षात्र धर्म का समावेश कर सिक्ख समुदाय को भक्तों तथा योद्धाओं का समूह बना दिया। उनकी कविता (साहित्य) में हम नवीन भाव देखते हैं।

वे लिखते हैं :

जे तोहि प्रेम खेलण का चाव,
 सिर धर तली गली मोरी आव
जे इत मारग पैर धरीजै, 
सिर दीजै कांण न कीजे ॥

और फिर-

सूरा सो पहिचानिए, जो लड़े दीन के हेत। 
पुर्जा-पुर्जा कट मरै, कयूँ न छाँड़े खेत ॥

और फिर एकाएक खड्ग की पूजा प्रारम्भ हो जाती है:

खग खंड विहंड, खल दल खंड अति रन मंड प्रखंड।

भुज दंड अखंड, तेज प्रचंड जोति अभंड भानुप्रभं ॥

उन्हीं भावों को लेकर बाबा बन्दा आदि मुसलमानों के विरुद्ध निरन्तर युद्ध करते रहे, परन्तु उसके बाद हम देखते हैं कि जब सिक्ख संम्प्रदाय केवल अराजको का एक समूह रह जाता है और जब वे गैर-कानूनी (Out-law) घोषित कर दिए जाते हैं, तब उन्हें निरन्तर जंगलों में ही रहना पड़ता है। अब इस समय नवीन साहित्य की सृष्टि नहीं हो सकी। उनमें नवीन भाव नहीं भरे जा सके। उनमें क्षात्र-वृत्ति थी, वीरत्व तथा बलिदान का भाव या और मुसलमान शासकों के विरुद्ध युद्ध करते रहने का भाव था, परन्तु उसके बाद क्या करना होगा, यह वे भली-भाँति नहीं समझे। तभी तो उन वीर योद्धाओं के समूह (मिसलें) आपस में भिड़ गए। यहीं पर सामयिक भावों की त्रुटि बुरी तरह अखरती है। यदि बाद में रणजीत सिंह जैसा वीर योद्धा और चालाक शासक न निकल आता, तो सिक्खों को एकत्रित करने के लिए कोई उच्च आदर्श अथवा भाव शेष न रह गया था।

इन सबके साथ एक बात और भी खास ध्यान देने योग्य है। संस्कृत का सारा साहित्य हिन्दू समाज को पुनर्जीवित न कर सका, इसीलिए सामयिक भाषा में नवीन साहित्य की सृष्टि की गई। उस सामयिक भाव के साहित्य ने अपना जो प्रभाव दिखाया वही हम आज तक अनुभव करते हैं। एक अच्छे समझदार व्यक्ति के लिए क्लिष्ट संस्कृत के मन्त्र तथा पुरानी अरबी की आयतें इतनी प्रभावकारी नहीं हो सकतीं जितनी कि उसकी अपनी साधारण भाषा की साधारण बातें।

ऊपर पंजाबी भाषा तथा साहित्य के विकास का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है। अब हम वर्तमान अवस्था पर आते हैं। लगभग एक ही समय पर बंगाल में स्वामी विवेकानन्द तथा पंजाब में स्वामी रामतीर्थ पैदा हुए। दोनों एक ही ढर्रे के महापुरुष थे। दोनों विदेशों में भारतीय तत्त्वज्ञान की धाक जमाकर स्वयं भी जगत्-प्रसिद्ध हो गए, परन्तु स्वामी विवेकानन्द का मिशन बंगाल में एक स्थायी संस्था बन गया, पर पंजाब में स्वामी रामतीर्थ का स्मारक तक नहीं दीख पड़ता। उन दोनों के विचारों में भारी अन्तर रहने पर भी तह में हम एक गहरी समता देखते हैं। जहाँ स्वामी विवेकानन्द कर्मयोग का प्रचार कर रहे थे, वहाँ स्वामी रामतीर्थ भी मस्तानावार गाया करते थे :
 हम रूखे टुकड़े खाएँगे, भारत पर वारे जाएँगे। हम सूखे चने चबाएँगे, भारत की बात बनाएँगे।
 हम नंगे उमर बिताएँगे, भारत पर जान मिटाएँगे

वे कई बार अमेरिका में अस्त होते सूर्य को देखकर आँसू बहाते हुए कहा करते थे-"तुम अब मेरे प्यारे भारत में उदय होने जा रहे हो। मेरे इन आँसुओं को भारत के सलिल सुन्दर खेतों में ओस की बूँदों के रूप में रख देना।" इतना महान देश तथा ईश्वर-भक्त हमारे प्रान्त में पैदा हुआ हो, परन्तु उसका स्मारक तक न दीख पड़े, इसका कारण साहित्यिक फिसड्डीपन के अतिरिक्त क्या हो सकता है?

यह बात हम पद-पद पर अनुभव करते हैं। बंगाल के महापुरुष श्री देवेन्द्र ठाकुर तथा श्री केशवचन्द्र सेन की टक्कर के पंजाब में भी कई महापुरुष हुए हैं, परन्तु उनकी वह कद्र नहीं और मरने के बाद वे जल्द ही भुला दिए गए, जैसे गुरु ज्ञान सिंह जी इत्यादि। इन सबकी तह में हम देखते हैं कि एक ही मुख्य कारण है, और वह है साहित्यिक रुचि जागृति का सर्वथा अभाव।

यह तो निश्चय ही है कि साहित्य के बिना कोई देश अथवा जाति उन्नति नहीं कर सकती, परन्तु साहित्य के लिए सबसे पहले भाषा की आवश्यकता होती है और पंजाब में वह नहीं है। इतने दिनों से यह त्रुटि अनुभव करते रहने पर भी अभी तक भाषा का कोई निर्णय न हो पाया। उसका मुख्य कारण है हमारे प्रान्त के दुर्भाग्य से भाषा को मज़हबी समस्या बना देना। अन्य प्रान्तों में हम देखते हैं कि मुसलमानों के प्रान्तीय भाषा को खूब अपना लिया है। बंगाल के साहित्य-क्षेत्र में कवि नज़र-उल-इस्लाम एक चमकते सितारे हैं। हिन्दी कवियों में लतीफ हुसैन 'नटवर' उल्लेखनीय हैं। इसी तरह गुजरात में भी हैं, परन्तु दुर्भाग्य है पंजाब का। यहाँ पर मुसलमानों का प्रश्न तो अलग रहा, हिन्दू-सिक्ख भी इस बात पर न मिल सके।

पंजाब की भाषा अन्य प्रान्तों की तरह पंजाबी ही होनी चाहिए थी, फिर क्यों नहीं हुई, यह प्रश्न अनायास ही उठता है, परन्तु यहाँ के मुसलमानों ने उर्दू को अपनाया। मुसलमानों में भारतीयता का सर्वथा अभाव है, इसीलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्त्व न समझकर अरबी लिपि तथा फारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं। समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिन्दी होने का महत्त्व उनकी समझ में नहीं आता। इसलिए वे तो अपनी उर्दू की रट लगाते रहे और एक ओर बैठ गए।

फिर सिक्खों की बारी आई। उनका सारा साहित्य गुरुमुखी लिपि में है। भाषा में अच्छी-खासी हिन्दी है, परन्तु मुख्य पंजाबी भाषा है। इसलिए सिक्खों ने गुरुमुखी लिपि में लिखी जानेवाली पंजाबी भाषा को ही अपना लिया। वे उसे किसी तरह छोड़ न सकते थे। वे उसे मज़हबी भाषा बनाकर उससे चिपट गए।

इधर आर्य समाज का आविर्भाव हुआ। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने समस्त भारतवर्ष में हिन्दी प्रचार करने का भाव रखा। हिन्दी भाषा आर्य समाज का एक धार्मिक अंग बन गई। धार्मिक अंग बन जाने से एक लाभ तो हुआ कि सिक्खों की कट्टरता से पंजाबी की रक्षा हो गई और आर्य समाजियों की कट्टरता से हिन्दी भाषा ने अपना स्थान बना लिया।

आर्य समाज के प्रारम्भ के दिनों में सिक्खों तथा आर्य समाजियों की धार्मिक सभाएँ एक ही स्थान पर होती थीं। तब उनमें कोई भिन्न भेदभाव न था, परन्तु पीछे 'सत्यार्थ प्रकाश' के किन्हीं दो-एक वाक्यों के कारण आपस में मनोमालिन्य बहुत बढ़ गया और एक-दूसरे से घृणा होने लगी। इसी प्रवाह में बहकर सिक्ख लोग हिन्दी भाषा को भी घृणा की दृष्टि से देखने लगे। औरों ने इसकी ओर किंचित् भी ध्यान न दिया।

बाद में, कहते हैं कि आर्य समाजी नेता महात्मा हंसराज जी ने लोगों से कुछ परामर्श 'किया था कि यदि वह हिन्दी लिपि को अपना लें, तो हिन्दी लिपि में लिखी जानेवाली पंजाबी भाषा यूनिवर्सिटी में मंजूर करवा लेंगे, परन्तु दुर्भाग्यवश वे लोग संकीर्णता के कारण और साहित्यिक जागृति के न रहने के कारण इस बात के महत्त्व को समझ ही न सके और वैसा न हो सका। खैर! तो इस समय पंजाब में तीन मत हैं। पहला मुसलमानों का उर्दू सम्बन्धी कट्टर पक्षपात, दूसरा आर्य समाजियों तथा कुछ हिन्दुओं का हिन्दी सम्बन्धी, तीसरा पंजाबी का।

इस समय हम एक-एक भाषा के सम्बन्ध में कुछ विचार करें, तो अनुचित न होगा। सबसे पहले हम मुसलमानों का विचार रखेंगे। वे उर्दू के कट्टर पक्षपाती हैं। इस समय पंजाब में इसी भाषा का जोर भी है। कोर्ट की भाषा भी यही है, और फिर मुसलमान सज्जनों का कहना यह है कि उर्दू लिपि में ज्यादा बात थोड़े स्थान में लिखी जा सकती है। यह सब ठीक है, परन्तु हमारे सामने इस समय सबसे मुख्य प्रश्न भारत को यह राष्ट्र बनाना है। एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम हो नहीं सकता। उसके लिए कदम-कदम चलना पड़ता है। यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम-से-कम लिपि तो एक बना देनी चाहिए। उर्दू लिपि तो सर्वांगसम्पूर्ण नहीं कहला सकती, और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी भाषा पर है। उर्दू कवियों की उड़ान, चाहे वे हिन्दी (भारतीय) ही क्यों न हों, ईरान से साकी और अरब की खजूरों को जा पहुँचती है। काज़ी नज़र-उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, परन्तु हमारे पंजाबी हिन्दी-उर्दू कवि उस ओर ध्यान तक भी न दे सके। क्या यह दुख की बात नहीं? इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है। उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती, तो फिर उनके रचित साहित्य से हम कहाँ तक भारतीय बन सकते हैं? केवल उर्दू पढ़नेवाले विद्यार्थी भारत के पुरातन साहित्य का ज्ञान नहीं हासिल कर सकते। यह नहीं कि उर्दू जैसी साहित्यिक भाषा में उन ग्रन्थों का अनुवाद नहीं हो सकता, परन्तु उसमें ठीक वैसा ही अनुवाद हो सकता है, जैसा कि एक ईरानी को भारतीय साहित्य सम्बन्धी ज्ञानोपार्जन के लिए आवश्यक हो।

हम अपने उपरोक्त कथन के समर्थन में केवल इतना ही कहेंगे कि जब साधारण आर्य और स्वराज्य आदि शब्दों को आर्या और स्वराजिया लिखा और पढ़ा जाता है तो गूढ़ तत्त्वज्ञान सम्बन्धी विषयों की चर्चा ही क्या? अभी उस दिन श्री लाला हरदयाल जी एम. ए. की उर्दू पुस्तक 'कौमें किस तरह ज़िन्दा रह सकती हैं?' का अनुवाद करते हुए सरकारी अनुवादक ने ऋषि नचिकेता को उर्दू में लिखा होने से नीची कुतिया समझकर 'ए बिच ऑफ लो ओरिजिन' अनुवाद किया था। इसमें न तो लाला हरदयाल जी का अपराध था, न अनुवादक महोदय का। इसमें कसूर था उर्दू लिपि का और उर्दू भाषा की हिन्दी भाषा तथा साहित्य से विभिन्नता का।

शेष भारत में भारतीय भाषाएँ और लिपियाँ प्रचलित हैं। ऐसी अवस्था में पंजाब में उर्दू का प्रचार कर क्या हम भारत से एकदम अलग-थलग हो जावें? नहीं। और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उर्दू के कट्टर पक्षपाती मुसलमान लेखकों की उर्दू में फारसी का ही आधिक्य रहता है। 'ज़मींदार' और 'सियासत' आदि मुसलमान-समाचार पत्रों में तो अरबी का जोर रहता है. जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता। ऐसी दशा में उसका प्रचार कैसे किया जा सकता है? हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी अपने मज़हब पर पक्के रहते हुए ठीक वैसे ही भारतीय बन जाएँ जैसे कि कमाल टर्क हैं। भारतोद्धार तभी हो सकेगा। हमें भाषा आदि के प्रश्नों को मार्मिक समस्या न बनाकर खूब विशाल दृष्टिकोण से देखना चाहिए।

इसके बाद हम हिन्दी-पंजाबी भाषाओं की समस्या पर विचार करेंगे। बहुत-से आदर्शवादी सज्जन समस्त जगत को एक राष्ट्र, विश्व राष्ट्र बना हुआ देखना चाहते हैं। यह आदर्श बहुत सुन्दर है। हमको भी इसी आदर्श को सामने रखना चाहिए। उस पर पूर्णतया आज व्यवहार नहीं किया जा सकता, परन्तु हमारा हर एक कदम, हमारा हर एक कार्य इस संसार की समस्त जातियों, देशों तथा राष्ट्रों को एक सुदृढ़ सूत्र में बाँधकर सुख-वृद्धि करने के विचार से उठना चाहिए। उससे पहले हमको अपने देश में यही आदर्श कायम करना होगा। समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, एक साहित्य, एक आदर्श और एक राष्ट्र बनाना पड़ेगा, परन्तु समस्त एकताओं से पहले एक भाषा का होना जरूरी है, ताकि हम एक-दूसरे को भली-भाँति समझ सकें। एक पंजाबी और एक मद्रासी इकट्ठे बैठकर केवल एक-दूसरे का मुँह ही न ताका करें, बल्कि एक-दूसरे के विचार तथा भाव जानने का प्रयल करें, परन्तु यह पराई भाषा अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की अपनी भाषा हिन्दी में। यह आदर्श भी, पूरा होते-होते अभी कई वर्ष लगेंगे। उसके प्रयत्न में हमें सबसे पहले साहित्यिक जागृति पैदा करनी चाहिए। केवल गिनती के कुछ एक व्यक्तियों में नहीं, बल्कि सर्वसाधारण मे। सर्वसाधारण में साहित्यिक जागृति पैदा करने के लिए उनकी अपनी ही भाषा आवश्यक है। इसी तर्क के आधार पर हम कहते हैं कि पंजाब में पंजाबी भाषा ही आपको सफल बना सकती है।

अभी तक पंजाबी साहित्यिक भाषा नहीं बन सकी है और समस्त पंजाब की एक भाषा भी वह नहीं है। गुरुमुखी लिपि में लिखी जानेवाली मध्य पंजाब की बोलचाल की भाषा को ही इस समय तक पंजाबी कहा जाता है। वह न तो अभी तक विशेष रूप से प्रचलित ही हो पाई है और न ही साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ही बन पाई है। उसकी ओर पहले तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, परन्तु अब जो सज्जन उस ओर ध्यान भी दे रहे हैं उन्हें लिपि की अपूर्णता बेतरह अखरती है। संयुक्त अक्षरों का अभाव और हलन्त न लिख सकने आदि के कारण उसमें भी ठीक-ठीक सब शब्द नहीं लिखे जा सकते, और तो और, पूर्ण शब्द भी नहीं लिखा जा सकता। यह लिपि तो उर्दू से भी अधिक अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर निर्भर सर्वांगसम्पूर्ण हिन्दी लिपि विद्यमान है, फिर उसे अपनाने में हिचक क्या? गुरुमुखी लिपि तो हिन्दी अक्षरों का ही बिगड़ा हुआ रूप है। आरम्भ में ही उसका उ काउ, अ काउ बना हुआ है और म ट ठ आदि तो वे ही अक्षर हैं। सब नियम मिलते हैं फिर एकदम उसे ही अपना लेने से कितना लाभ हो जाएगा? सर्वांगसम्पूर्ण लिपि को अपनाते ही पंजाबी भाषा उन्नति करना शुरू कर देगी। और उसके प्रचार में कठिनाई ही क्या है? पंजाब की हिन्दू स्त्रियाँ इसी लिपि से परिचित हैं। डी. ए. वी. स्कूलों और सनातन धर्म स्कूलों में हिन्दी ही पढ़ाई जाती है। ऐसी दशा में कठिनाई ही क्या है? हिन्दी के पक्षपाती सज्जनों से हम कहेंगे कि निश्चय ही हिन्दी भाषा ही अन्त में समस्त भारत की एक भाषा बनेगी, परन्तु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी। हिन्दी लिपि के अपनाने से ही पंजाबी हिन्दी की-सी बन जाती है। फिर तो कोई भेद ही नहीं रहेगा और इसकी जरूरत है, इसलिए कि सर्वसाधारण को शिक्षित किया जा सके और यह अपनी भाषा के अपने साहित्य से ही हो सकता है। पंजाबी की यह कविता देखिए-

ओ राहिया राहे जान्दया, सुन जा गल मेरी, 
सिर ते पग तेरे वलैत दी, इहनूँ फूक मआतड़ा ला ॥

और इसके मुकाबले में हिन्दी की बड़ी-बड़ी सुन्दर कविताएँ कुछ प्रभाव न कर सकेंगी, क्योंकि वह अभी सर्वसाधारण के हृदय के ठीक भीतर अपना स्थान नहीं बना सकी हैं। वह अभी कुछ बहुत पराई-सी दीख पड़ती हैं। कारण कि हिन्दी का आधार संस्कृत है। पंजाब उससे कोसों दूर हो चुका है। पंजाबी में फारसी ने अपना प्रभाव बहुत कुछ रखा है। यथा, चीज का जमा 'चीज़ें' न होकर फारसी की तरह 'चीज़ाँ' बन गया है। यह असूल अन्त तक कार्य करता दिखाई देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पंजाबी के निकट होने पर भी हिन्दी अभी पंजाबी-हृदय से काफी दूर है। हाँ, पंजाबी भाषा के हिन्दी लिपि में लिखे जाने पर और उसके साहित्य बनाने के प्रयत्न में निश्चय ही वह हिन्दी के निकटतर आ जाएगी।

प्रायः सभी मुख्य तर्कों पर तर्क किया जा चुका है। अब केवल एक बात कहेंगे। बहुत-से सज्जनों का कथन है कि पंजाबी भाषा में माधुर्य, सौन्दर्य और भावुकता नहीं है। यह सरासर निराधार है। अभी उस दिन-

लच्छीए जित्थे तू पानी डोलिया 
ओत्थे उग पए सन्दल दे बूटे

वाले गाने के माधुर्य ने कवीन्द्र रवीन्द्र तक को मोहित कर लिया और वे झट अंग्रेजी में अनुवाद करने लगे- O Lachi, where there spilt water, where there spilt water...etc...etc...

और बहुत-से और उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। निम्न वाक्य क्या किसी अन्य भाषा की कविताओं से कम है?-

पिपले दे पत्तया वे केही खड़खड़ लाई ऐ। 
पत्ते झड़े पुराने हूण रुत्त नवयां दी आई आ ॥

और फिर जब पंजाबी अकेला अथवा समूह बैठा हो तो 'गौहर' के यह पद जितना प्रभाव करेंगे, उतना कोई और भाषा क्या करेगी?

लाम लक्खां ते करोड़ों दे शाह वेखे 
न मुसाफिरां कोई उधार देंदा, 
दिने रातीं जिन्हां दे कूच डेरे न उन्हां
 दे थाईं कोई एतबार देंदा।
भौरे बहंदे गुलां दी वाशना ते 
ना सप्पा दे मुहां ते कोई प्यार देंदा 
 गौहर समय सलूक हन ज्यूँदया दे 
मोयां गियां नूं हर कोई विसार देंदा।
और फिर-

जीम ज्यूदियाँ नूं क्यों मारना ऐं, जेकर नहीं तूं मोयां नूं जिऔण जोगा घर आए सवाली नूं क्यों घूरना ऐं, जेकर नहीं तू हत्थीं खैर पौण जोगा मिले दिलां नूं क्यों बिछोड़ना ऐं, जेकर नहीं तू बिछड़यां नू मिलौण जोगा गौहरा बदीयां रख बन्द खाने, जेकर नहीं तू नेकी कमौण जोगा।

और फिर अब तो दर्द, मस्ताना, दीवाना बड़े अच्छे-अच्छे कवि पंजाबी की कविता का भंडार बढ़ा रहे हैं।

ऐसी मधुर, ऐसी विमुग्धकारी भाषा तो पंजाबियों ने ही न अपनाई, यही दुख है। अब भी नहीं अपनाते, समस्या यही है। हरेक अपनी बात के पीछे मज़हबी डंडा लिए खड़ा है। इसी अड़ंगे को किस तरह दूर किया जाए, यही पंजाब की भाषा तथा लिपि विषयक समस्या है, परन्तु आशा केवल इतनी है कि सिक्खों में इस समय साहित्यिक जागृति पैदा हो रही है। हिन्दुओं में भी है। सभी समझदार लोग मिलकर-बैठकर निश्चय ही क्यों नहीं कर लेते ! यही एक उपाय है इस समस्या के हल करने का। मज़हबी विचार से ऊपर उठकर इस प्रश्न पर गौर किया जा सकता है, वैसे ही किया जाए, और फिर अमृतसर के 'प्रेम' जैसे पत्र की भाषा को ज़रा साहित्यिक बनाते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी में पंजाबी भाषा को मंजूर करा देना चाहिए। इस तरह सब बखेड़ा तय हो जाता है। इस बखेड़े के तय होते ही पंजाब में इतना सुन्दर और ऊँचा साहित्य पैदा होगा कि यह भी भारत की उत्तम भाषाओं में गिनी जाने लगेगी।

(स्रोत- भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़)

Saturday, April 12, 2025

वक्फ : इतिहास, विवाद और कानून

क्या है वक्फ का इतिहास
भारत में वक्फ प्रॉपर्टीज को प्रबंधन में सुधार और दुरूपयोग को रोकने के लिए विभिन्न कानूनों द्वारा शासित किया गया है, जिसकी शुरूआत मुसलमान वक्फ वैधीकरण अधिनियम, 1913 से हुई जिसने पारिवारिक वक्फ को अंततः धर्मार्थ उपयोग के लिए अनुमति दी। 1923 और 1930 के अधिनियमों ने पारदर्शिता की शुरुआत की और कानूनी वैधता को मजबूत किया। वक्फ अधिनियम, 1954 ने राज्य वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद (1964) का गठन किया, जिसे बाद में व्यापक वक्फ अधिनियम, 1995 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, जिसने सिविल कोर्ट की शक्तियों के साथ वक्फ न्यायाधिकरणों की शुरुआत की। वक्फ(संशोधन) अधिनियम,2013 ने तीन  सदस्यीय न्यायाधिकरणों को अनिवार्य बना दिया जिसमें एक मुस्लिम कानून विशेषज्ञ, प्रत्येक बोर्ड में दो महिला सदस्य, वक्फ संपत्तियों की बिक्री या उपहार में देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और पट्टे की अवधि को 30 वर्ष तक बढ़ा दिया गया। अब, सरकार के अनुसार, वक्फ संशोधन विधेयक, 2025 और मुसलमान वक्फ (निरसन) विधेयक, 2024 का उद्देश्य वक्फ शासन को आधुनिक बनाना और कानूनी चुनौतियों का समाधान करना है। बयान में कहा गया है कि अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय रिकॉर्ड को डिजिटल बनाने और वक्फ भूमि पर वाणिज्यिक विकास को निधि देने के लिए कौमी वक्फ बोर्ड तरक्की योजना और शहरी वक्फ संपत्ति विकास योजना को लागू कर रहा है।

वक्फ बोर्ड के बारे में समझने से पहले हमें यह जानना जरूरी है कि वक्फ क्या है? वक्फ अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ खुदा के नाम पर अर्पित वस्तु या परोपकार के लिए दिया गया धन होता है। इसमें चल और अचल संपत्ति को शामिल किया जाता है। बता दें कि कोई भी मुस्लिम अपनी संपत्ति वक्फ को दान कर सकता है। कोई भी संपत्ति वक्फ घोषित होने के बाद गैर-हस्तांतरणीय हो जाती है।

क्या है वक्फ बोर्ड ?

वक्फ संपत्ति के प्रबंधन का काम वक्फ बोर्ड करता है। यह एक कानूनी इकाई है। प्रत्येक राज्य में वक्फ बोर्ड होता है। वक्फ बोर्ड में संपत्तियों का पंजीकरण अनिवार्य है। बोर्ड संपत्तियों का पंजीकरण, प्रबंधन और संरक्षण करता है। राज्यों में बोर्ड का नेतृत्व अध्यक्ष करता है। देश में शिया और सुन्नी, दो तरह के वक्फ बोर्ड हैं।

कौन होता है वक्फ बोर्ड का सदस्य ?

वक्फ बोर्ड को मुकदमा करने की शक्ति भी है। अध्यक्ष के अलावा बोर्ड में राज्य सरकार के सदस्य, मुस्लिम विधायक, सांसद, राज्य बार काउंसिल के सदस्य, इस्लामी विद्वान और वक्फ के मुतवल्ली को शामिल किया जाता है।

क्या करता है बोर्ड ?

वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन के अलावा बोर्ड वक्फ में मिले दान से शिक्षण संस्थान, मस्जिद, कब्रिस्तान और रैन-बसेरों का निर्माण व रखरखाव करता है।

क्या है वक्फ एक्ट 1954?
देश में सबसे पहली बार 1954 में वक्फ एक्ट बना। इसी के तहत वक्फ बोर्ड का भी जन्म हुआ। इस कानून का मकसद वक्फ से जुड़े कामकाज को सरल बनाना था। एक्ट में वक्फ की संपत्ति पर दावे और रख-रखाव तक का प्रावधान हैं। 1955 में पहला संशोधन किया गया। 1995 में एक नया वक्फ बोर्ड अधिनियम बना। इसके तहत हर राज्य/केंद्रशासित प्रदेश में वक्फ बोर्ड बनाने की अनुमति दी गई। बाद में साल 2013 में इसमें संशोधन किया गया था।
क्या है केंद्रीय वक्फ परिषद ?

केन्द्रीय वक्फ परिषद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन एक सांविधिक निकाय है। परिषद को 1964 में वक्फ अधिनियम 1954 के प्रावधन के मुताबिक किया गया। इसे वक्फ बोर्ड की कार्यप्रणाली और ऑक्फ प्रशासन से संबंधित मामलों में केंद्र सरकार के सलाहकार निकाय के रूप में स्थापित किया गया था। परिषद को केंद्र सरकार, राज्य सरकार और राज्य वक्फ बोर्डों को सलाह देने का अधिकार है। परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री होता है।

इस पर विवाद क्यों?
वक्फ अधिनियम के सेक्शन 40 पर बहस छिड़ी है इसके तहत बोर्ड को रीजन टू बिलीव की शक्ति मिल मिल जाती है। अगर बोर्ड का मानना है कि संपत्ति वक्फ की संपत्ति है तो वो खुद से जांच कर सकता है, और वक्फ होने का दावा पेश कर सकता है। अगर उस संपत्ति में कोई रह रहा है तो वह अपनी आपत्ति को वक्फ ट्रिब्यूनल के पास दर्ज सकता है। ट्रिब्यूनल के फैसले के बाद हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। मगर यह प्रक्रिया काफी जटिल हो जाती है। दरअसल, कोई संपत्ति एक बार वक्फ घोषित हो जाती है तो हमेशा ही वक्फ रहती है। इस वजह से कई विवाद भी सामने आए हैं।अब सरकार ऐसे ही विवादों से बचने की खातिर संशोधन विधेयक लेकर आई है। विधेयक के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं को भी बोर्ड में प्रतिनिधित्व मिलेगा। 

सरकार और विपक्ष का तर्क

सरकार का तर्क है कि 1995 में वक्फ अधिनियम से जुड़ा मौजूदा विधेयक है। इसमें वक्फ बोर्ड को अधिक अधिकार मिले। 2013 में संशोधन करके बोर्ड को असीमित स्वायत्तता प्रदान की गई। सरकार का कहना है कि वक्फ बोर्डों पर माफिया का कब्जा है।

सरकार का कहना है कि संशोधन से संविधान के किसी भी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं किया गया है। इससे मुस्लिम महिलाओं और बच्चों का कल्याण होगा। ओवैसी ने सरकार को मुसलमानों का दुश्मन बताया। कांग्रेस ने इसे संविधान का उल्लंघन बताया तो वहीं मायावती ने कहा कि संकीर्ण राजनीति छोड़ राष्ट्रधर्म सरकार निभाए।

1. बोर्ड परिषद की सदस्यता

पहले- वक्फ बोर्ड की परिषद में सिर्फ मुस्लिम सदस्य की शामिल हो सकते

अब- वक्फ बिल पास होने के बाद परिषद में 2 महिलाएं और 2 गैर-मुस्लिमों को शामिल करना अनिवार्य होगा!

2. संपत्ति पर दावा

पहले- वक्फ तोर्ड किसी भी संपत्ति पर दावा घोषित कर सकता है।

अब- वक्फ बोर्ड को किसी भी संपति पर मालिकाना हक ठोकने से पहले सत्यापन करना अनिवार्य होगा कि वो संपत्ति वास्तव में वक्फ बोर्ड की ही है।

3. सरकारी संपत्ति का दर्जा

पहले- वक्फ वोर्ड सरकारी संपत्ति पर भी दावा कर सकता है।

अब- सरकारी संपत्ति वक्फ से बाहर होगी और वक्फ बोर्ड को सरकारी संपत्ति पर मालिकाना हक नहीं मिलेगा।

4. अपील का अधिकार

पहले - वक्फ बोर्ड के खिलाफ सिर्फ वक्फ ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया जा सकता था। वक्फ ट्रिब्यूनल का फैसला आखिरी होता था, और इसे किसी अन्य न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।

अब- वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसले को 90 दिनों  के भीतर हाई कोर्ट में चुनौती दी

5. प्रबंधन और निगरानी

पहले- वक्फ बोर्ड के खिलाफ कई बार दुरुपयोग की शिकायते सुनने को मिलती रही हैं। कई लोगों का दावा है कि वक्फ उनकी सपत्ति पर जबरन दावा ठोक देता है।


अब-वक्फ बोर्ड की सभी संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन जिला मुख्यालय में होगा। पहले वक्फ बोर्ड में सभी के लिए समान कानून थे।


6. विशेष समुदायों के अलग प्रावधान

 पहले-  वक्फ बोर्ड में सभी के लिए समान कानून थे।

अब-वोहरा और आगाखानी मुसलमानी के लिए अलग से वक्फ बोर्ड बनाया जाएगा।

7. वक्फ बोर्ड के सदस्य

पहले- वक्फ बोर्ड पर कुछ विशेष मुस्लिम समुदायों का कब्जा था।

अब- वक्फ बोर्ड में शिया और सुन्नी समेत पिछड़े वर्ग के मुस्लिम समुदायों से भी सदस्य बनेंगे।

8. तीन सांसदों की एंट्री

पहले- सेंट्रल वक्फ काउंसिल में 3 सांसद (2) लोक सभा और 1 राज्य सभा) होते थे, और तीनों सासदी का मुस्लिम होना अरूरी था।

अब-  केंद्र सरकार तीन सासदों को सेंट्रल वक्फ काउंसिल में रखेगी और तीनों का मुस्लिम होना अनिवार्य नहीं है।

राज्यों के अनुसार, उत्तर प्रदेश (सुन्नी) 2.17 लाख वक्फ प्रॉपर्टीज के साथ सबसे आगे है, हालांकि कुल क्षेत्रफल के आंकड़े उपलब्ध नहीं है। इसके बाद पश्चिम बंगाल (80,480 प्रॉपर्टीज), पंजाब (75.965). तमिलनाडु (66,092) और कर्नाटक (62,830) का स्थान है। 32 राज्यों के पास 8,72,328 प्रॉपर्टीज हैं, जिनका कुल एरिया 38,16,291.788 एकड़ है।

( स्त्रोत- राष्ट्रीय सहारा अखबार हस्तक्षेप अंक 12 अप्रैल 2025 शनिवार)

Wednesday, April 9, 2025

मोदी सरकार मार्च 2026 तक पूरे देश से नक्सलवाद को समाप्त करने के लिए संकल्पित है

नक्सलवाद की लड़ाई में सरकार तनिक भी पीछे नहीं हटी है। गृह मंत्री ने जो कहा था वो जमीनी स्तर पर दिख रहा है। नक्सलवाद ने देश का बहुत नुकसान किया है और इसकी वजह से देश के कुछ इलाके पिछड़े ही रह गए और विकास की राह ताकते रह गए। डेढ़ दो सालों से जो से जो एक्शन लिया जा रहा है सरकार द्वारा और सुरक्षा बलों ने जिस तरह से ऑपरेशन चलाया है निश्चिंत ही प्रशंसनीय है।  गृह मंत्री अमित शाह अगस्त 2024 और दिसंबर 2024 को छत्तीसगढ़ के रायपुर और जगदलपुर आए थे। वे यहां अलग-अलग कार्यक्रमों में शामिल हुए थे। इस दौरान उन्होंने अलग-अलग मंच से नक्सलियों को चेताते हुए कहा था कि हथियार डाल दों। हिंसा करोगे तो हमारे जवान निपटेंगे। वहीं, उन्होंने एक डेडलाइन भी जारी की थी कि 31 मार्च 2026 तक पूरे देश से नक्सलवाद का खात्मा कर दिया जाएगा। शाह की डेडलाइन जारी करने के बाद से बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन काफी तेज हो गए हैं।

अभी हाल ही में एक हुए एक ऑपरेशन में 18 नक्सली मारे गए जिसमें 11 महिला नक्सली शामिल थी। इन मारे गए नक्सलियों में एक 25 लाख इनामी नक्सली दरभा डिविजन सचिव कुड़हामी जगदीश उर्फ बधुरा भी शामिल है। नक्सली जगदीश एक दर्जन से अधिक घातक नक्सली घटनाओं में वांछित था, जिसमें 2013 का झीरम घाटी हमला भी शामिल है। इस घटना में कांग्रेस के कई नेता मारे गए थे।

नक्सलवाद के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस की नीति के चलते वर्ष 2025 में अब तक केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में मुठभेड़ों में कम से कम 130 नक्सली मारे गए हैं। इनमें से 110 से ज्यादा बस्तर संभाग में मारे गए, जिसमें बीजापुर और कांकेर समेत सात जिले शामिल हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से 105 से अधिक नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया और 2025 में अब तक 164 ने आत्मसमर्पण कर दिया है। वहीं इससे पहले वर्ष 2024 में 290 नक्सलियों को न्यूट्रलाइज़ किया गया था, 1090 को गिरफ्तार किया गया और 881 ने आत्मसमर्पण किया था। अभी तक कुल 15 शीर्ष नक्सली नेताओं को न्यूट्रलाइज़ किया जा चुका है। 


सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अभी कोई विरोध प्रदशर्न देखने को नहीं मिला उन तमाम वामपंथी संगठनों और लोगों का जो इनके समर्थन  में लिखते और बोलते हुए दिख जाते थे। अर्बन नक्सल ने युवाओं को प्रभावित तो किया ही है पर इस समय सब शांत हो चले हैं। कुछ भी बोले तो लेने के देने पड़ जाएंगे। आज के समय में इनका प्रोपोगेंडा पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। मोदी सरकार रुथलैस अप्रोच के साथ वामपंथी उग्रवाद के पूरे इकोसिस्टम को ध्वस्त कर रही है।  नक्सलवाद की एक ही विचारधारा है - विध्वंस और हिंसा।  मानव अधिकार के आड़ में अपने लिए ही संवेदना बटोरना नक्सलियों की रणनीति रही है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के हिंसा के शिकार इन लोगों के जख्म नक्सलवाद की अमानवीयता और क्रूरता के जीवंत प्रतीक हैं।

साफ संदेश है नक्सलवाद को की क्रांति तुम्हारे खून से होगी बंदूक छोड़ दो वरना दौड़ा दौड़ा कर ठोके जाओगे। देखा जाय तो पूरी प्लानिंग के तहत जवाबी कार्रवाई हुई है। जब से विष्णु देव साय छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने हैं तब से बहुत कुछ बदलाव देखने को मिला है। इतनी तेजी से भारी मात्रा नक्सलियों का सफाया कभी नहीं हुआ था। आमने- सामने की लड़ाई पुरी से तरह सुरक्षाबल हावी  दिखे हैं। पहले केवल हमारे जवानो की जाने जाती थी लेकिन अब इसके उलट हो रहा है कारण मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति बिना इसके ये असंभव था । प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के कुशल नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में एक नया इतिहास रचा जा रहा है। सबसे पहले देखने वाली बात है कि ऑपरेशन सीधा गृह मंत्रालय से ऑपरेट किया जा रहा हैं केंद्रीय सुरक्षा बलों के नेतृत्व में वो भी और साथ में डीआरजी भी शामिल है। उन्हें सबकुछ दिया जा रहा जिसकी वो मांग करते आए थे। मेरे ख्याल से  सिर्फ वहीं लोग ऑपरेशन में शामिल हैं जो जंगल  ट्रेनिंग और वारफेयर में बेस्ट हैं।  

छत्तीसगढ़ सरकार ने भी अपनी नई आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति के तहत कई प्रोत्साहन शुरू किए हैं, जैसे आत्मसमर्पण करने वालों को आर्थिक सहायता, नौकरी और शिक्षा की सुविधाएं प्रदान करना। इस नीति का असर दिख रहा है, क्योंकि हाल के महीनों में आत्मसमर्पण की संख्या में वृद्धि हुई है।
बस्तर संभाग में नक्सलवाद के खिलाफ अभियानों के साथ-साथ विकास कार्यों पर भी जोर दिया जा रहा है। सड़कें, स्कूल, अस्पताल और बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं को बेहतर करने के लिए कई परियोजनाएं शुरू की गई हैं। सरकार का मानना है कि विकास और सुरक्षा के संयुक्त प्रयासों से नक्सलवाद को जड़ से खत्म किया जा सकता है। शाह के दौरे से स्थानीय लोगों में भी उम्मीद जगी है कि बस्तर जल्द ही नक्सल मुक्त होकर एक नई पहचान बनाएगा।

मां दंतेश्वरी की कृपा से बस्तर नक्सलवाद के दंश से उबर रहा है, पूर्ण विश्वास है कि मां ऐसा भी दिन दिखाएंगी जब बस्तर नक्सलवाद के गढ़ के रूप में नहीं बल्कि अद्वितीय आदिवासी संस्कृति और रमणीय प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाएगा।
मेरी प्रभु राम से भी यह प्रार्थना है कि उनका ननिहाल नक्सलवाद के दंश से अविलंब मुक्त हो।
जय श्री राम
जय मां दंतेश्वरी।।