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Friday, June 7, 2024

सदमे में संतुष्टि

२०२४ के आम चुनाव की मतगणना की लाइव रिपोर्टिंग देखता, मेट्रो की एसी में भी माहौल की गर्मी महसूस करता हुआ अपने गंतव्य पर जा रहा था।
सभी दलों के उत्साही और नितांत खलिहर कार्यकर्ताओं ने गाजे बाजे और फूलमालाओं के साथ अपनी-अपनी पार्टियों के दफ्तरों में बेटे के विवाह जैसा माहौल बनाया हुआ था। कुछ हुड़दंगी टाइप लठ्ठमार कार्यकर्ताओं ने मतगणना केन्द्रों के बाहर हर परिस्थिति के हिसाब से पूरी तैयारियों के साथ डेरा डाल रखा था।
सुन्दर-सुन्दर समाचार वक्ताओं ने अच्छे रंग-रोगन के साथ मुंह चभोर कर अपने से भी अधिक बने-संवरे विभिन्न दलों के बड़बोले प्रवक्ताओं के साथ जमघट लगाया हुआ था।
सारी तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं, सभी प्रवक्ताओं ने अपनी-अपनी पार्टियों के जीतने की घोषणा कर दी थी। बस मतगणना शुरू होने की देर थी। 
विपक्षियों ने हर बार की तरह ईवीएम वाली बात की चर्चा एकाध दिन पहले से ही शुरू कर दी थी।

और फिर मतगणना शुरू हुई, तमाम बयान पर बयान आने लगे, अलग-अलग सीटों के रुझान आने लगे, न्यूज चैनलों में चीनी मिलों से भी अधिक तीव्रता वाले हूटर बजने लगे।
कभी कोई आगे होता कभी कोई। पहले एक डेढ़ घंटे में ये रुझान आया कि इस बार का परिणाम वैसा नहीं होने वाला जैसी उम्मीद सबने पाल रखी थी। अब तो खैर विपक्षी पलट ही गये हैं जो मुझे उम्मीद भी थी पर कल तक जैसा माहौल था वैसे में उन्होंने भी ऐसी उम्मीद नहीं लगाई होगी।
सत्ता पक्ष के बड़बोलों के चेहरे उतरने लगे थे और विपक्षी बड़बोलों के चेहरे की चमक बढ़ती जा रही थी।
धीरे-धीरे विपक्षी गठबंधन की सीटों की संख्या बढ़ने लगी और सत्ता के बड़बोलों के चेहरे रुआंसे होने लगे। एक चैनल पर तो एक निर्गम मतानुमान बताने वाले महानुभाव रोने लगे थे।

हद्द तो तब हो गई जब सत्ता के नीति नियंता स्वयं कुछ देर के लिए अपनी सीट से पीछे चले गये वो भी तब जब पिछले दो बार में उप-विजेता कभी उनके आसपास भी नहीं फटक पाया था और बाद में पिछ्ले नतीजों के मुकाबले बहुत ही कम अंतर से विजयी हुए।

दोपहर तीन बज चुके थे। मैं गंतव्य पर पहुंच कर कूलर चला आराम से लेटा हुआ था। बहुत से यार दोस्त हर्षोल्लास के साथ और बहुत से रोते हुए फोन कर चुके थे। रोने वालों में कुछ हाईकमान से दुखी थे, कुछ पिछले विजयी सांसदों से, कुछ हाईटीसेल से तो कुछ ने जनता पर ही सारा दोषारोपण कर दिया था।
खुश होने वालों को बधाई और रोने वालों को सांत्वना दे देकर मेरा मन भी थोड़ा उबाऊ हो चुका था। एक अस्पष्ट बहुमत की ओर अग्रसित नतीजे देखकर संभावित कारणों पर भी मन विचरण करने की कोशिश कर रहा था।
थोड़ी देर तक यूं ही पक्ष-विपक्ष की जीत-हार के कारणों पर मंथन करने के पश्चात मैंने सोचा चलो ट्वीटर के धुरंधर ज्ञानियों और ट्वीटरियों की राय पढ़ी जाये शायद वहां से कुछ सार्थक जानकारी मिल सके‌।
यही सब सोचकर मैंने ट्वीटर खोला तो देखा इधर अलग ही खेल चल रहा है। कोई सत्ता की हार का दोष पार्टी के एक अन्य युवा और प्रसिद्ध नेता, जिनको भावी नायक की तरह देखा जाता था, के मत्थे मढ़ने में लगे हैं तो कुछ लोग धार्मिक कट्टरवाद या तृप्तिकरण की बात कर रहे हैं। एकाध लोग पुराने सांसदों के नकारेपन जैसे दुर्लभ कारणों की भी चर्चा करते दिखे। पढ़कर लगा देश बदल रहा है, काम पर वोट दे रहा है। पर तभी कुछ ऐसे क्षेत्रों कै नतीजे दिखे जहां का कायाकल्प होने के बावजूद वहां के प्रत्याशी भारी अंतर से हार गये हैं।

कुछ ऐसे भी ट्वीटरिये दिखे जो मन में तो चार सौ पार ना होने से फूट-फूटकर रो रहे होंगे पर बाहर से सवा दो सौ को ही अपार जनसमर्थन और मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे कि लगातार तीन बार में भी इतनी सीटें लाना चार सौ पार से कम नहीं है।
ये बुद्धिजीवी लोग हाईटीसेल के नकारे पालतुओं को बचाव का आधार दे रहे थे और साथ ही बड़बोलों को खींसें निपोरने का भी जो शाम तक सच ही साबित हुआ।
शाम तक हाईटीसेल इसी बचाव लाइन पर चल रहा था और प्रवक्ताओं ने भी यही धुन बजानी शुरु कर दी थी।
कुछ अतिउत्साहित निकम्मों ने हार का ठीकरा ऐसे ही किसी अनचाहे मौके के लिए खिलाये पिलाये गये अध्यक्ष जी के मत्थे फोड़ उनका ही ढ़ोल बजाना शुरू कर दिया। ये सब देखकर विपक्ष के एक अध्यक्ष जी राहत की सांस ले रहे थे।

शायद अपने छोटे से जीवनकाल में पहली बार देख रहा था कि दोनों ओर से ही नैतिक विजय की ढपली बजा बड़बोलों की जमात नाच रही थी। आत्मावलोकन की सुध किसी को नहीं थी। सत्ता पक्ष में सबको सदमा लगा था पर शायद बचाव के नये नये तरीकों में उन्होंने खुद को संतुष्ट कर लिया था।
सबने पार्टी के मुखिया जी की एक फेमस लाइन "आपदा में अवसर" की राह पर चलकर "सदमे में संतुष्टि" ढूंढ ली थी।

Saturday, May 4, 2024

ईकोसिस्टम का ओवरटाइम

किसी भी व्यक्ति को अपनी पूरी बात रखने का अधिकार होता है इसका मतलब ये नही कि वो कुछ भी अनाप-शनाप बकता जाय। सरकार का विरोध करना है करिए, कोई व्यक्ति विषेश आपको पसंद नही है कोई बात नही या फिर फिर किसी राजनीतिक दल के घोर विरोधी बने रहे लेकिन इन सबके विरोध में देश विरोधी बाते करना कहा तक सही है ? इसे अभिव्यक्ति की आजादी नहीं लुच्चई ही कहा जायेगा। वैसे आज के समय में चरित्र हनन करना हो या मुख से किसी के लिए अपशब्द निकालना बहुत ही आसान काम हो चला है।  राजनीति में सबकुछ जायज है इसका मतलब ये नही की जेल में बंद होने के बाद भी अपने पद से इस्तीफा न दे, जब नैतिकता मर जाती है तो यही होता है। राजनितिक घाघो की फेहरिस्त लंबी है एक से बढ़कर एक घाघ पड़े हुए है। इन आत्ममुग्ध बौनो को लगता है जो ये कह रहे है वही सही है ,बाकी सब गलत है। हर बात स्क्रीन काली कर देने वाला लोकतंत्र की हत्या रोज करवाता है तो कोई बल्लीमारान में पकौड़े तलकर लोकतंत्र की रक्षा कर रहा है। प्रधानमंत्री ने बोला ही था रोजगार नहीं है तो पकौड़ा तलो,बल्लीमारान वाला वहा पकौड़ा तल खूब कमा रहा है। काला कौवा कांव-कांव करते नही थकता है उसे पता है की उसे सिर्फ श्राद्ध पक्ष में सम्मान मिलेगा लेकिन वो नही मानता है उसे रोज कांव- कांव कर गाली सुनना हैं क्योंकि गाली सुनने पर उसे अलग तरीके का ऊर्जा प्राप्त होता और एक तरह से संतुष्टि मिलती है।

विश्वविद्यालय में गंध मचाने वाला विचाराधारा की बात करता था अपने क्षेत्र में पीटे जाने के बाद यकायक उसकी विचारधारा को लकवा मार गया लाल सलाम करने वाला अब कहता है "डरो मत". अरे इतने बड़े क्रांतिकारी है, विचारों में परिवर्तन तो आना ही था। हास्यपद तो ये रहा की इसकी तुलना भगत सिंह से करने लग गए थे सब, स्तर इतना गिर गया है राजनीति  में की क्या ही बोला जाय? कुछ तथाकथित छात्र संगठनो का कहना था की ये देश का अगला प्रधानमंत्री होगा , सिंगरेट फूंकते कुछ छात्र इसे अपना हीरो बना लिए थे...वैसे भी आजकल सोशल मीडिया का जमाना है हर कोई चमका जा रहा है या चमकाया जा रहा है। तथाकथित पत्रकार महोदय लोग इसीलिए रखे गए हैं। संघर्षों की ऐसी कहानी सुनाएंगे और लिखेंगे की उसे देखकर इनके मालिक को भी लगता है ये मैने कब किया? एक जर्मन शेफर्ड है वो रह रहकर भोंकता रहता है और खुद की तुलना उसने नेताजी सुभाषचंद्र बोस से कर दी थी वो भी जर्मनी रहकर फांसीवादी सरकार का विरोध काट रहा है ... अरे बुड़बक वो नेताजी ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिए थे,ये देश की जनता की चुनी हुई सरकार है... यार कितना भौंकता है ये जर्मन शेफर्ड  इसे देखकर रास्ते में लगा बोर्ड पर लिखा "शराबी कुत्तों से सावधान" याद आ जाता है..!

बाप के नाम पर मुख्यमंत्री बनने वाले को लगता है की वो बहुत बड़े जमीनी नेता हैं और उनके आगे कोई है ही नहीं। खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले आत्मुग्धता में डूबे हुए हैं। बाप को जिन्होंने लाठी लाठी पिटवाया था उनके साथ जुड़ जाए इतना ही नही बाप जिसको मेहरारू बनाने पर तुले हुए थे उसको बुआ बना लिए बस यही राजनीति है। भले विदेश में जाकर इंजीनियरिंग पढ़ा हो इन्होंने लेकिन सोशल इंजीनियरिंग में पूरे फेल  दिखे है। कहा क्या कब बोलना चाहिए शहुर नही सीखे फुल पप्पू को टक्कर दे रहे है..! ऐसा समाजवाद हावी है इनके ऊपर की ये आतंकियों और माफियाओं के कब्र पर फातिहा पढ़ने निकले जाते है हद तब हो जाती है जब "अज्ञात हमलवार" द्वारा मारे जा रहे भारत विरोधी तत्वों पर सवाल उठाने लग जाते है ... ये हर जगह हर मुद्दे पर बोलने लग जाते है बाते ऐसा करेंगे जैसे उनकी पार्टी क्षेत्रीय नही बल्कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टी है। जमीन से उखड़ते जा रहे है उखड़ चुके है बल्कि ये लेकिन कोई सुधार नहीं आया है इनमे जस के तस  अहंकार में डूबे हुए है।
यही हाल नौवीं फेल का है। इस नौवीं फेल को लगता है कि इसका आईक्यू लेवल भारत के पढ़े लिखे लोगो से ज्यादा है। बाप चारा खाकर जेल चल गया और ये गरीब गुरबा बनते है। मूस मारने वाला कहानी तो सबने सुना ही होगा  आजकल तो गरीब गुरबा मटन मुर्गा मारकर खाता है , हवाई यात्रा करते हुए आकाश में जल का फल निगलता है वो भी नवरात्रि के दिन वीडियो डालता है, सावन में तथाकथित दत्तात्रेय ब्राह्मण के साथ मटन वाली तस्वीरें सब देखे ही होंगे, अब जनता का खून नही पी पा रहे है तो यही सही। बाकी लालटेन में मिट्टी का तेल हो तो अपने पृष्ट भाग में डालकर जो कीड़ी है उसे मार सकते है बड़ी राहत मिलेगी।


एक वर्ग ऐसा है जिसे बात- बात पर विरोध प्रदर्शन करना होता है। होता इनसे कुछ नही है सिवाय बकइती के लेकिन ज्ञान दुनिया भर का देंगे। बोलेंगे ऐसे मानिए सरकार ने सबसे बड़ा अन्याय इन्ही के साथ किया है क्योंकि ये फलाने जाति से ताल्लुक रखते है। खुद को राजवंश और बड़े घराने का खून बताने वाले ये तथाकथित लोगो का अलग ही रोना है। अरे यार अगर सर्वश्रेष्ठ बनने का दंभ भरते हो तो बना लो पार्टी और कूद पड़ो राजनीति में कौन रोक रखा है तुम्हें..? उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय तथाकथित ब्राह्मणों पर  अत्याचार हो रहा था और लोकसभा में इन तथाकथित राजपूतों पर होने लगा है... हद है लालू मुलायम जैसे भी थे अपनी पार्टी बनाकर बड़े नेता बने न.. आप भी बन जाओ ये लोकतंत्र है, चलने चलाने का हुनर होना चाहिए। पैदा होते ही कोई सत्ता नही पा जाता है । विरोध करने की भी एक सीमा होती है , मजहबी लोगो को अपना बाप बनाएंगे तो गाली ही सुनेंगे । वो विदेशी कोख से जन्मा बोलता  है कि "राजाओं-महाराजाओं का राज रहा। जो भी वो चाहते, कर देते थे। किसी की जमीन चाहिए तो उसे हड़प लेते थे। कांग्रेस पार्टी और हमारे कार्यकर्ताओं ने देश की जनता के साथ मिलकर आजादी प्राप्त की, लोकतंत्र लेकर आए और संविधान दिलवाया। फिर चाय वाले ने प्रतिक्रिया व्यक्त की तो धुआं धुआं हो गया  "शहजादे ने तो राजा-महाराजा को बुरा-भला कह दिया। लेकिन भारत के इतिहास में जो अत्याचार नवाबों ने किए, सुल्तानों ने किए.. उनकी बात पर तो शहजादे के मुंह पर ताला लग जाता है।"

वैसे  कांग्रेस बनी कैसे थी ? कांग्रेस की स्थापना ही क्यों हुई थी? मुझे नही पता पर एक जगह पढ़ा था की "ऐ लन ऑक्टेवियन ह्यूम इटावा के ब्रिटिश कलेक्टर थे और १८५७ में भारतीय क्रांतिकारियों से बचने के लिए मंदिर में छिपे थे और फिर वहाँ से साड़ी पहन के भागे थे। इन्होंने एक संगठन की स्थापना की ताकि १८५७ जैसी ब्रिटिश विरोधी स्थिति पुनः ना उत्पन्न हो और ब्रिटिश सरकार के वफ़ादार नेताओं का एक संगठन बनाया। उस संगठन का नाम कांग्रेस था। क्या ही बोला जाय ये दूसरो पर लांछन लगाते है जिनका खुद का इतिहास ही काला और गंध से भरा हुआ है। तमिल नाडू में अपने बाप के हत्यारों के साथ मिलकर सरकार बना लेना ही तो राजनीति है।

वामपंथियों को कितना भी गरियाया जाय नही सुधरने वाले है। पहले तो इनका अस्तित्व ही नही बचा है ले देकर केरल में ही सिमट चुके है वो भी न जाने कब चला जाए हाथ से..! इनको कभी प्रश्न नही देखा हू पिछले कई सालों से राड़ की तरह छाती पीट रहे है। कॉमरेड गांजा फूंकने के बाद विश्वविद्यालय में फिलिस्तीन बचाओ की राजनीति करते हैं। इस समय तो छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का ताबड़तोड़ ठुकाई हो रहा है उसे लेकर इनके दिल में जो दर्द करारा उठ रहा है देखने लायक है.. ये प्रजाति ही ऐसी है जिसे जबतक पीटा जाय शांत नही रहते है कुछ न कुछ खुरपात करते ही रहते है.. पप्पू भी लगता है इन्ही लोगो से अपना मेनिफेस्टों इन्ही लोगो से लिखवाया होगा। लेफ्ट लिबरल की विचधारा रखने वाले कहते है "धर्म अफीम का नशा है" लेकिन जब बात इस्लाम की आती है तो तथाकथित सेकुलर लिबरल मुस्लिम लेखक बुद्धिजीवी पत्रकार आदि मजहबी कट्टरपंथ वाला रंग अपना दिखाने लग जाते है। देश के संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला हक है कहने वाले  पूर्व प्रधामंत्री मनमोहन सिंह हंस के वेश में बगुला हैं, मोदी जी कहे थे न एक बार "डॉ साहब रैन कोट पहनकर नहाते थे"। एकबार फिर से यही बात बोलकर पूरे विपक्षी में खेमे में भूचाल ला दिया है और विपक्ष पूरा मौका देने से चूक नही रहा है। हिंदू शरणार्थियों के लिए संसद में रोकर भागने वॉक आउट करने वाली हिडिंबा का  क्या ही कहना? रंग बदलने में गिरगिट से भी आगे निकली। आने वाले समय में इसका और इसके पार्टी का हाल  वामपंथियों से भी बुरा होगा तब तक कर ले हम्मा हम्मा रंभा बंबा..!

चुनावी  विश्लेषण वाले तथाकथित पत्रकार 4 जून को मातम मानते हुए नजर आएंगे फिलहाल प्रेशर कुकर की सीटी वाला काम रहे है वरना कुकर तो फट ही जाएगा..! मन की शांति के लिए विरोधी इन्हें पढ़ते है और इनके यूट्यूब चैनल पर जाकर देखते हैं। यकीन मानिए दो जून की रोटी तक नही पचेगी इन खलिहर खैरातियो से  कर ले बकइती जितना करना आखिर में यही सब करने का तो खैरात मिलता है। बाकी कोई नही टक्कर में चाय वाला फिर से आ रहा है पूर्ण बहुमत में .. चाय वाला चौकीदार बना था पिछले चुनाव में इस साल परिवार बन चुका है सबका और  देश जिसका परिवार बन के खड़ा हो गया हो उसे कौन रोक सकता है ..!

Sunday, March 10, 2024

छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है

कहते है जो पढ़ लिख लिया वो आगे बढ़ गया। बात सही भी है आजकल के आधुनिक दुनिया में बिना पढ़े लिखे गुजारा भी नही हैं किसी का। लाखों छात्र छात्राएं घर से दूर सुदूर निकल पड़ते हैं पढ़ने लिखने के लिए। कोई बनारस तो कोई दिल्ली तो कोई प्रयाग जाता है कलेक्टर बनने। अपना जी जान लगा देते है ये होनहार फिर भी सफलता के आड़े शासन- प्रशासन की नाकामियां आ जाती है। बार-बार पेपर लीक होना इन तमाम छात्रों का हौसला तोड़ देती है। एक पेपर को क्लियर करने में जब सरकार को चार साल लग जा रहे है तो क्या ही कहना... भुगतना तो छात्रों को पड़ता है जो सरकारी नौकरी के तैयारी  के लिए अपना सबकुछ झोंक चुके होते है।  जो लोग लगातार मेहनत कर रहे हैं भूख प्यास दुनिया जहान भूलकर लगे हुए थे तैयारी में उनका क्या ही कहना ,ऐसी अनियमिताओं से व्यथित होकर कोई आत्महत्या कर लेता है।
हर कोई इतना संपन्न परिवार से नही होता है कि लांखो रुपया लगाकर धंधा पानी खोल ले एक सरकारी नौकरी ही है जो उसकी जीवन की नैया पार लगा सकती है। कोई ऐसा पेपर नही जो साफ सुथरा ढंग से हुआ हो हर बार का वही हाल बनाया जा चुका है। पेपर लीक करके उसे रद्द कराना ही मास्टरस्ट्रोक बनकर रह गया है।

रेलवे से लेकर राज्य सरकारों की तमाम नौकरियों में लेट सबेर हो रहा है । नकल माफियाओं का दबदबा कायम है ये कोई भी पेपर होता है लीक करा देते है और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। एक कल्याण सिंह का समय था जब दसवीं और बारहवीं तक में नकल नही होता था और आज का समय है पीसीएस लेवल का परीक्षा तक सक दायरे में रहता है लीक हुआ है और हर बार होता है बार-बार होता है। मजाक बनकर रह गया है छात्रों का भविष्य। कोई ठुल्लुआ आकर कहता है की सरकारी नौकरी सबको नही मिल सकती है भीड़ ज्यादा हैं लोगो को दूसरे सेक्टर की तरफ ध्यान देना चाहिए लेकिन जितनी है उतनी किसी को मिल रही है की नही इसपर नही बोलेंगे। बाकी आईआईटी ,एनआईटी , आईआईएम, एमबीबीएस वाले आईएएस बने घूम रहे है वो देश सेवा का भाव है नागरिकशास्त्र , समाजशास्त्र आदि पढ़के स्नातक करने वाला सरकारी नौकरी की तरफ न देखे क्योंकि प्राइवेट सेक्टर में बहुत पैसा है...!
 हद दर्जे के लोग आ जाते है शासन-प्रशासन के नकारेपन पर सवाल खड़ा करने पर देशद्रोही घोषित कर देंगे 
अब तो हद हो गई है। मतलब अब  तो हद हो गई है की लेखपाल की परीक्षा पास करना भी बड़ी बात हो चली है अखबारो में लोगो की तस्वीरें छप रही है।
 सरकारी नौकरी पर ज्ञान देने वाली चुगद बिरादरी आजकल खामोश कैसे बैठी हुई है. नौकरी मिले न मिले इनके माईबाप नौकरियां देने की घोषणाएं तो भरपूर कर रहे हैं....बुरा तो लग रहा होगा, सुलग भी रही होंगी.. अपने माईबाप का विरोध नहीं करेगी ये बिरादरी?
खैर रोजगार का मतलब सिर्फ सरकारी नौकरी या कोई और पक्का रोजगार ही थोड़े होता है..कोई ३०० रूपये की दिहाड़ी पर महीना भर काम कर ले तो वो भी रोजगार ही होता है...!
कई सालो पहले मैने कुछ लिखा था वो आज भी सटीक बैठता है
अब है ही क्या समझाने और बताने को? 
गांव हो या शहर जिंदगी हो गई है खंडहर! 
घर- गांव छोड़ के खेती- बारी 
बड़का शहर में होत ह चौकीदारी! 
नौकरी ना मिलल सरकारी 
अब बेचत हई ठेला पर तरकारी ! 
क्या करे साहब शिक्षा हुई बेकार
 हम हुए अंग्रेजी के आगे लाचार ! 
फिर घर से हुए दूर बने मजदूर 
ना ढंग से पैसा ना भरा पेट भरपूर 
सारा सपना हुआ चकनाचूर! 
अब है ही क्या समझाने और बताने को? 
गांव हो या शहर जिंदगी हो गई है खंडहर!
 यही कहानी हर युवा गाता है 
अपने को यूपी-बिहार से बताता है!