कैलाश वाजपेयी (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) हिन्दी साहित्यकार थे। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था। इनका ये लेेख " निराला केवल छंद थे" 4 नवंबर 2012 को " अमर उजाला में प्रकाशित
हुआ था।
एम.ए हिंदी के प्रथम वर्ष में ही एक अप्रतिम अवसर मिला। मैनपुरी की एक साहित्य संस्था ने 'विराट काव्य समारोह' शीर्षक वाला एक पत्र भेजा। लिखा कि महाप्राण निराला की अध्यक्षता में लगभग सोलह कवि, जिनमें सुश्री महादेवी वर्मा, विद्यावती कोकिल, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शंभूनाथ सिंह, शिवमंगल सिंह सुमन, बलवीर सिंह रंग, हरिवंश राय बच्चन, जानकी वल्लभ शास्त्री एवं साही जी के ही साथ नवोदित कवि की हैसियत से आपका नाम भी जोड़ दिया गया है। निराला जी के उपन्यास 'अप्सरा' और 'प्रभावती' पहले ही पढ़ चुका था। समारोह क्योंकि चार-पांच सप्ताह बाद होना था। इसलिए सब समय अब निराला जी की शेष कृतियों के अवगाहन में लगाना शुरू कर दिया। विल्लेसुर बकरिहा (1941) कुल्लीभाट (1939) और चमेली (1941) पढ़कर अपने ही गांव के कई पात्रों की याद आई। 'अनामिका' के बाद उनकी लंबी रचना तुलसीदास (1938) की छांदसिक कसावट और भाषा ने मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनकी सरस्वती वंदना तो पहले ही कंठस्थ थी। आप सब भी शायद पढ़ना चाहें।
वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद, तमहर, प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
उनके द्वारा रचित कुकुरमुत्ता (1942) पढ़ते हुए एकाएक ख्याल आया कि अपने लखनऊ में प्रगतिशील आंदोलन की यह जो शुरुआत हुई थी, उन दिनों ही निराला जी कहीं यहां दुलारेलाल भार्गव के मेहमान तो नहीं थे। हमारी कक्षा में साथ पढ़ने वाली स्वर्णलता भार्गव से हमने जब पड़ताल करनी चाही, तो बजाय सही-सही कुछ भी कहने के स्वर्णलता ने इसरार किया कि 'हमारे घर क्यों नहीं आ जाते!'
स्वर्णलता की आंखें इतनी सुंदर थीं कि अपन को पहली बार लगा वह तो सचमुच मृगनयनी है। अस्तु, हम स्वर्णलता के घर गए। वहां हमें निराला जी से जुड़ी स्मृतियों के साथ यही रचना मिली - अबे सुन बे गुलाब / भूल मत पाई जो खुशबू रंगो आब / खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट/डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट। जिसे पढ़कर लगा कि निराला की रचना को और गहरे डूबकर पढ़ना होगा।
उनकी 'सरोज स्मृति' कविता, जो उन्होंने अपनी बेटी के निधन पर लिखी थी, एक असहाय पिता के हृदय का हाहाकार है। उनका 'बेला' नामक काव्य संग्रह प्रयोगशीलता से भरा पड़ा है। वरना कहां एक ओर 'राम की शक्तिपूजा' की ये पंक्तियां -
हंसी के तार के होते हैं ये बहार के दिन
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन
निराला जी की 'जुही की कली' कवि की वियोगावस्था की एक मधुर कल्पना है। यह कविता बीते वर्षों में पहले भी पढ़ी थी। प्रणय स्मृति में कली की रतिक्रीड़ा का चित्र लौकिक प्रेम में अलौकिक रतिक्रीड़ा का संकेत, जिसे निराला जी ने लौकिक प्रेम के सहारे संयोजित किया है। यह कविता कीट्स की 'ओड टु नाइटिंगेल' की याद दिलाती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कीट्स ने अपनी सीमाबद्धता की तुलना, नाइटिंगेल की स्वच्छंदता से की है, जबकि निराला जी का अभिप्रेत शायद, केवल स्वच्छंदता को प्रकृति के दृश्यपटल पर समायोजित करना रहा होगा।
विजनवन वल्लरी पर
सोती थी सुहागभरी स्नेह स्वप्न भग्ना
अमल कमल तनु तरुणी जुही की कली
दृगबंद किए शिथिल पत्रांक में।
इस कविता को पारखियों ने एक प्रकाश स्तंभ माना और कहा मुक्त छंद, ललित भावनाओं की स्वच्छंद अभिव्यक्ति और अव्यक्त संकेतात्मकता के कारण यह कविता आचार, विचार, प्रधान नियमानुबद्ध, इतिवृत्तप्रधान, द्विवेदीयुगीन काव्य के विरुद्ध एक काव्यमयी प्रतिक्रिया है। जिसमें निराला जी ने विराट सृष्टि में व्याप्त सूक्ष्म चेतना को दिव्य नारी के रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है। अभिधा को लक्षणा की ओर मोड़ा है। 'जुही की कली' में यौवन की सारी उद्दामता एवं आभा अभिव्यक्त हो उठी है। साथ ही कवि ने रतिक्रीड़ा के चित्र को एक प्रतीक रूप में अभिसिंचित कर डाला है। निर्जन अरण्य वन में सौभाग्यशालिनी 'जुही की कली' स्नेह स्वप्न में डूबी हुई थी, तभी मलयानिल, चलने की शीघ्रता में 'पवन' बन जाता है और उपवन, सरि सरित आदि पार कर 'जुही की कली' के पास पहुंचता है। कली प्रिय के आगमन को पहले से ही समझ लेती है। पवन आता है और तब नायक ने चूमे कपोल जैसे हिंडोल, किंतु स्नेह चुंबन के पश्चात (कवि के अनुसार दिव्यशक्ति की अनुभूति के कारण) कली जागृति की अवस्था में होती हुई भी सुषुप्ति का बहाना किए रहती है। वह अलसित अवस्था में भी क्षमा नहीं मांगती, नेत्र बंद किए रहती है। (सभी स्त्रियां समागम के क्षणों में आंख बंद कर लेती हैं) निर्दय नायक जब निष्ठुर होने लगता है, तब प्रिय (पवन) को देखकर कली चौंक पड़ती है और रतिरंग में प्रिय के पास साथ तन्मय होकर खिल जाती है।
`जुही की कली' प्रकारांतर से पाठक को कबीर का स्मरण दिला सकती है। कबीर के बहुत से पद, `बहुरिया' के प्रियदर्शन, संभोग व विरह की अनुभूतियों से भरे हैं। निराला जी को देखने उनसे बात करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, इस उत्साह में डूबे हुए हम, टैगोर लायब्रेरी में निराला जी की जो भी रचनाएं उपलब्ध थीं, सभी को पढ़ गए। मुक्त छंद में लिखी हुई उनकी 'संध्या सुंदरी' शृंगारिक पृष्ठभूमि पर प्रकृति के एक नयनाभिराम दृश्यबिंब का अंकन समुपस्थित करती है।
विरहाकुल कमनीय कंठ से निकली हुई झंकार ही जैसे सुंदरी का रूप धारण कर 'संध्या' के वेष में उपस्थित हो गई है। विरह दग्ध कवि प्रकृति के सुंदर दृश्य को देखकर तादात्म्य के क्षणों में अपनी अतृप्ति का जब प्रक्षेपण करता है, तो यह रचना एकाएक प्रसाद की नवल रसगागरी की याद ताजा कर जाती है। इस कविता में चित्र को वातावरण और वातावरण को चित्रात्मक बनाकर चमकाया गया है। संध्या की रंगीनी ने परी का रूप धारण कर लिया है, वह धीरे-धीरे मेघमय आकाश से उतरती है। तिमिर आंचल में सुंदरी की मुद्रा थोड़ी गंभीर है। संध्या के समय सुंदरी के काले होते बालों में गुंथा एक तारा है, जो अभिषेक का प्रतीक है। संध्या सुंदरी, कोमल कली के समान खिली नीरवता के कंधे पर बांह डालकर छाया के समान अंबर पथ से उतर चली है। सुंदरी मादकता का वितरण करती हुई सारी सृष्टि को नीरव बने रहने का संकेत दे रही है। चुपचाप आती हुई संध्या सुंदरी के चित्र पर वातावरण की अनुकूलता की रक्षा में, गांभीर्य और नीरवता के झीने पर्दे डाल दिए गए हैं। निराला जी ने सिवाय एक तारे के, न उसके मुख के लिए कोई उपमान खोजा है, न उरोजों का न पदों का, सिर्फ चुपचुप शब्द भर गूंजता है, क्यों? क्योंकि संध्या सुंदरी जो उतर रही है। मानवीय क्रियाओं द्वारा संध्या के सौंदर्य को कवि ने सर्वसुलभ और स्वाभाविक बनाकर प्रस्तुत किया है। संध्या सुंदरी स्नेह का दान करती है और मीठे स्वप्नों को थपकी देकर सुलाने का उपक्रम भी करती सी जान पड़ती है।
ध्यातव्य है कि यहां चित्रकला काव्य की तुलना में ओछी होती या पिछड़ जाती। चित्रकार शायद ऐसा चित्र उतार भी देता, मगर धूमिल आकृति का धीरज युक्त आगमन और चुपचुप शब्द को कैसे उकेरता। चित्र की गतिहीनता और अव्यक्त को व्यक्त करने की सामर्थ्य न होने के कारण ही चित्रकला, कविकला के समक्ष दोयम दर्जे की कला मानी गई है। पढ़ते-पढ़ते लगा कि महाकवि की प्रतिभा का आकाश कितना सर्वव्यापी है। एक ओर वे तुलसीदास की रचना करते हैं और दूसरी ओर वे रविदास को संबोधित कर- हे चर्मकार / चरण छूकर / कर रहा मैं नमस्कार, जैसी पंक्तियां भी लिख सकते हैं। काव्य समारोह वाली संध्या को उनके लिए अलग कक्ष में रहने की व्यवस्था की गई थी। मेरा परिचय करवाते हुए करुणेश जी ने कहा, `ये हैं आपकी ही धरती के नवोदित रचनाकार कैलाश वाजपेयी।' निराला जी के चरण छूकर मैं उनके पैताने सकुचाया सा खड़ा रहा। उन्होंने नीचे से ऊपर तक मुझे हेरते हुए पूछा, `कहां के रहैं वाले अहियू।'
मैंने कहा गांव पिरथीखेड़ा (पृथ्वीखेड़ा)।' निराला जी ने तत्काल पूछा, `का श्रीभगवान वाजपेयी के कुल से?' मैंने कहा,`जी, उइ हमार बाबा रहिन।' `तब तो परौरीवाले उमासंकर सुकुल - कहां हुइहैं? काहे से कि श्रीभगवान वाजपेयी की बिटिया उनहीं का ब्याही रहै।' हमने कहा, `जी अपनी स्वप्ना बुआ सुकुल जी हमार फूफा का ही ब्याही हैं।' `बैसवारे के अइहु, तो तनकर खड़ा काहे नहीं होता।' मैं चुप। इसी बीच महादेवी जी भी आ गईं। उनसे भी प्रथम परिचय हुआ। बाद में तो महादेवी जी दूसरी बार राजस्थान और अंतिम बार दिल्ली में पं. नेहरू की अध्यक्षता में हुई गोष्ठी में फिर भी मिलीं। निराला जी के दर्शनों का सौभाग्य दूसरी बार न हुआ। जबकि मगरायर के आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, ऊंचागांव के डॉ. रामविलास शर्मा, दुंदपुर के ब्रजेश्वर वर्मा, रावतपुर के शिवकुमार मिश्र, राजपुरा के शिवमंगल सुमन और उन्नाव की सुमित्रा कुमारी जी से बराबर संपर्क बना रहा।
काव्य समारोह रात दो बजे तक चला, वहां तरह-तरह की रचनाएं सुनने को मिलीं। छंद मुक्त कविताओं के विषय में निराला जी ने श्रोताओं को समझाया कि मनुष्यों की मुक्ति की तरह मुक्त छंद में कविता की भी मुक्ति होती है। मुक्त छंद में आंतरिक साम्य होता है जो उसके प्रवाह में सुरक्षित रहता है। स्वरपात और यति के प्रति सजगता के कारण मुक्ति की जो अबाध धारा प्राणों को सुख-प्रवाहसिक्त करती है वही इसका प्राण है। ऐसा कवि कर्म वही अच्छी तरह निभा पाता है, जो छंदानुमोदित काव्य की कसौटी पर स्वयं को कस चुका हो।
खड़ी बोली के अभ्युदय काल में जिस प्रकार नूतन भावनाओं ने रीतिकालीन मोहनिद्रा को भंग किया, ठीक उसी प्रकार मुक्त छंदों के विधान ने काव्य की एकरसता, संगीत की गतानुगतिकता तथा श्रुति प्रिय तुकांतता से उत्पन्न जड़ता को भी नष्ट किया। भावनाओं की मुक्ति छंदों से भी मुक्ति चाहती है। ऐसा एहसास शायद निराला जी को हो चुका था। मुक्त छंद क्या है, इस संबंध में बड़े महत्व के भ्रम हैं। केवल अतुकांतता ही मुक्त छंद की शर्त नहीं है। मुक्त छंद तो वह छंद है, जिसमें छंदशास्त्र का कोई भी नियम तो लागू न होता हो फिर भी उसमें लयात्मकता अंतर आलाप व प्रवाह अवश्य हो। वैसे इसी के साथ यह भी सच है कि छंद कविता की आयु है।
हमने इस आलेख का जो शीर्षक दिया है वह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की देन है। जिनके सान्निध्य का सुअवसर हमें उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में यही दिल्ली में मिला था। सांसों का आना-जाना अगर होता रहा तो स्मृति के सहारे उन पर भी लिखने की बेला आएगी। उनका बोला एक वाक्य अभी भी याद है, 'आजकल जो लोग कविता को छंदहीन समझते हैं, वे कविता का बिस्मिल्ला ही गलत समझते हैं। जिस कविता में छंद नहीं है उसके कवि से कहो कि वह कुछ और धंधा ढूंढ़ ले।'
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