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Thursday, July 23, 2020

नयी कविता के अंतराल और शिखर

काव्य विमर्श/ प्रताप सिंह
( तस्वीर स्रोत :- राष्ट्रीय सहारा 5 मई 2013)

मौजूदा दौर की कविता भिन्न अन्तराल खोज रही है। उसके वैदग्धपूर्ण पाठ सामने आ रहे हैं या फिर आत्म-सम्मोहन की मुद्राएं अपने वलय में कवियों को जकड़े हुए हैं। अन्तःपाठ, पुनर्पाठ और नाराज कवियों के कड़े नोट्स पत्रिकाएं बांच खूब रही हैं। एक अखाड़े के द्यु-लोक में दूसरों को नकारा अथवा लताड़ा जा रहा है। 'कविता मुझे रचती है' के जुमले भी खूब कारगर सिद्ध हो रहे हैं। नई आलोचना-शैलियों से खिन्न 'काव्य सम्प्रदाय' पाला-बदलखेल से परेशान हो रहे हैं। इस पूरे वृत्त में सच्ची कविताएं और अपने समकाल में उसे रचने वाले सामाजिक कवि नदारद क्यों मान लिये गये हैं? इधर 'शार्ट एट्टीज' और 'लॉन्ग नाइन्टीज' के कवियों ने अपनी प्रतिस्थापनाओं और दशक दर दशक केवल उन्हें ही पहचाने जाने की जंग शुरू की है। उन्हें अपनी पहचान के आदर्श-बिंदु ढूंढ़े नहीं मिल रहे हैं तो भी वह कविता और समकालीनता के कटघरे में बाकी के रचे परिवेश को खारिज कर, अपनी ही 'मार्किटिंग' पर टिके रहने की मुनादी करते नजर आते हैं। एक नए प्रस्थान बिंदु के मोड़ पर हिंदी की कुटुम्ब कविता की प्रदीर्घ परंपरा को पीछे छोड़ गए नए रचना समय के उनके तकाजे भी सामने आ रहे हैं, जहां आत्म परीक्षण कम, आत्म प्रचार ज्यादा है।
सम्पादकीय', 'साक्षात्कार', 'चिट्ठियों के हवाले तक इस क्रियाशीलता को 'चौकस-गिरोहबन्दी में भुनाने की चेष्टा भर नजर आते हैं। एक अंश इस पड़ताल के दो तरह के खुलासे करता है। मसलन, 'घर एक लंबे अरसे से हमारे युवा साथी जिस हड़बड़ी, भागमभाग, उठापटक और जोड़-तोड़ से गुजर रहे हैं, यह देख विस्मय होता है। ...लॉन्ग नाइन्टीज का एक पथ/संप्रदाय में रूपान्तरण आत्ममुग्धता का दिलचस्प उदाहरण है। ...यह एनटैगनिज्म और हेकड़ी दुर्लभ है।' (वागर्थ जनवरी 2013 में नरेंद्र जैन)। इस दृष्टान्त के बरअक्स ('अलाव' जनवरी-फरवरी 2013 में) 'वागर्थ में गिनाये गये होनहार कवियों में से 'त्रिआयामी-कविता' के एक नये खेवनहार की विजेन्द्र' जैसे वरिष्ठतम-कवि ने कुछ इस तरह खबर ली है- 'अब देवी प्रसाद मिश्र जैसा व्यक्ति जिसमें कविता बिल्कुल है ही नहीं-उसकी 40-40 पृष्ठों की कविताएं छापी उन्होंने पहल' में, जिस पर लोगों ने एतराज किया कि ये तो कविता है ही नहीं।.

ताजादम वैचारिकता और लयकारी
मौजूदा समय में यह वृत्त नये काव्य-विमर्श पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता नजर आता है। पर यही अंतिम या पूरा परिदृश्य नहीं है। काव्य संप्रदायों में हमेशा बची रही कविता ही हर दौर का प्रतिनिधित्व करती आ रही है। उसे प्रतिस्थापनाओं के फेर में नहीं पड़ना पड़ा। उसकी वैचारिकता और लयकारी हमेशा ताजादम रहेगी। इसका सबूत देने भर की देरी है। मौजूदा दृष्टान्त अथवा काव्य-लोक के औदार्य-स्वर के बीच नई कविता की सामाजिक भूमिका ने ही उसकी खरी पहचान तय की है। नई कविता के अंतराल और शिखर भी इस बहस से बाहर के प्रतिनिधि और नव-नूतन हस्ताक्षरों के काव्य-लोक में ही दृष्टित होंगे और हुए हैं। हम उनसे खूब परिचित हैं। पर दशक-खंडों के विशेषणों की भूख ने बाकी सबको पीछे ठेल, खुद आगे आने की लालसा के वशीभूत किया हुआ है।
कुछ देर के लिए नये 'छापामार-दस्तों' की इस कार्रवाई या प्रबंधन कौशल से निष्प्रभावित रहकर हमें विजय देव नारायण साही, कुंवर नारायण, शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय, राजकमल चौधरी और वीरेंद्र कुमार जैन से होते हए रामदरश मिश्र, विष्णु खरे, मदन वात्स्यायन, मनमोहन, आर चेतन क्रांति, विजेन्द्र, देवेन्द्र कुमार, राजेश जोशी, पंकज सिंह, सविता सिंह, अविनाश और रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति तक की अथवा अन्य कवियों की अब तक की काव्य-यात्रा में विचरण कर 'सही की पक्षधरता' और उनकी अनुभवशीलता का पक्ष भी परख लेना चाहिए। तभी पता चलेगा कि नई कविता किस प्रकार के प्रतिरोध या प्रतिकूलता के बीच हमेशा से सही की तरफदार हैं। हमारे नये-पुराने समाजों और सांसारिकताओं के बीहड़-सूनेपन में उपजी क्रूर-आकांक्षाओं का साक्षी होना भी उसने जताया है। 
 नये लम्पट-परिवेश की अनुभूतियों, भय, विदग्धता, प्रेम, करुणा के नये पाठ भी उसमें दर्ज हैं। आजादी के छलावे के बाद के पड़ाव/अन्तराल गालिब की तल्खनवाई (कड़वे बोल) से कम तवक्को (उम्मीद) कहन में नहीं रखते। आज उसके सोच के शिखर समाज की तहनशी (तलछट) में डूबे दिखते हैं। फिर उसकी तहरीर को बांचना एक टेढ़ा काम तो है ही।

बाजारी ताकतों के बीच
पहली नजर में ये तहरीरें, कुछ नामचीन कवियों और उनके बीच की पीढ़ियों के या कई पस-नविश्त (ताजा कलम) के हल्फिया बयान लग सकती हैं। इन कवियों के सपाट से लगने वाले रूदाद (वृतान्त) में हमारे समय की गंठे साफ खुलती नजर आती हैं। उनके उदाहरण सामने आने पर हम पाते हैं कि इस दुनिया के बारे में आठवें-नौवें दशक की इस घेरेबन्दी से बाहर भी नये कवियों ने बोलते-बतियाते उसी दौर में कितना कुछ ऐसा कह दिया है, जिसके स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं पड़ी। 
वास्तव में नई कविता के इस दिगन्त का दिग्ध रूप ही हर नये तेवर के साथ बदला और सामने आया। पर उसकी तिक्तता ने उसकी आत्मा को नहीं बदला। बाजार की झूठी ताकतों ने, मॉल-कल्चर ने जरूर कहीं न कहीं नये कवि को पसमांदगी (पलायन, लाचारी) के प्रतीकों से लाद दिया है। तथापि नई कविता अपने वर्तमान की रूप-छायाओं में बहुआयामी रहते हुए बेबाकी में इतनी गुरु गंभीर है कि अपने इस लिबास में भी अनुपम नजर आती है। उसमें कोई सूत्रबद्धता नहीं है। फिर भी जो वाच्य (कहने योग्य) है, उसकी कोई दूसरी खांटी मिसाल फिलहाल सामने नहीं है। अलबत्ता, लीलाधरों से लेकर प्रभाषी कवि ऋतुराज तक इसी मुहावरे के मुरीद नजर आते हैं। इसी शताब्दी के सामने से गुजरे वरिष्ठतम कवि विजय देव नारायण साही अपनी इन पंक्तियों में आपाधापी के युगीन सिद्धान्त की धज्जियां उड़ाते हुए उसकी 
मीमांसा में कुछ इस तरह धंसते चले जाते हैं- 
'मैं तुम्हारे नियमों के विरुद्ध- बिसात के नीचे उतरकर सीधे तुम्हारे मर्म में प्रवेश करता हूं। देखो मुझे कौन रोकता है। 
यह नितान्त नियमहीनता भी मुझे युग ने सिखायी है।' यही इस युग का भी मुहावरा है।

नई पीढ़ी के दृश्य प्रपंच 
नई कविता की, अलग-अलग पीढ़ियों के रूपक और सोच से उपजे ग्राह्य-बिम्बों की सजीली कतार केबजाय यहां कुछ फासले रखते हुए हर नई पीढ़ी के पास अपने-अपने 'दृश्य प्रपंच' हैं-जो इस सजीली कतार के रेखांकित मियादी कौशल से हटकर और ज्यादा भरोसे के हैं। वहीं प्रत्ययकारी (विश्वास दिलाने वाले) हस्ताक्षर नई कविता के मस्तक पर लगा हुआ दिठोंना हैं। इनसे पता चलता है कि अपनी उन्नयन-दृष्टि से कैसे नये और प्रौढ़ कवियों ने उस और इस समय की प्रतिकूलता और विकट-विषम-बोध को साधा है। स्वविवेक की गवेषणा से इसकी अधुनातन पहचान हासिल होती है। यह मात्र सहज कविताई नहीं है। उत्तरोत्तर, जनवादी भ्रम वाली छवियों तक से तथा वाद-प्रतिवाद एवं अन्य प्रवृत्तियों के गुच्छ से मुक्त होने में नई कविता को समय लगा है। उसे आग्रह-पूर्वग्रह के फेर मैं, प्रयोगवाद का और तात्कालिक टिकाऊ प्रतिमानों के बहकावे में- क्या हम फिर बहस-तलब दिखाकर, खूटे गाड़ने की सिद्धियां हासिल करना चाह रहे हैं? नये तर्क सिद्धान्तों की आलोचना पद्धति छन्द को उनके (कविता के) इस नूतन रूप को स्वीकार करे ना करे, अद्य-बिम्बों के सघन प्रयोग और उनके भाष्य सामने आते रहेंगे। हाल-फिलहाल तो इस नये काव्य-जगत में कितने ही कथित कारगर कवि, सुखनवर अपनी जमीन, हवा, पानी और ताप में से ही भीतर के पाठ के लिए इस कठोर समय के दुर्लभ और गैर-सनातन अर्थ खोजने में मशगूल हैं।

कविता का बदलता चोला 
साहीजी के बाद सीधे रघुवीर सहाय के समय से राजनैतिक चेतना की नई रगड़ से कविता भी भिन्न अर्थसत्ता हासिल कर चुकी है राज्यसत्ताओं की बेश्मी तक उद्घाटित करने की महीन कारीगीरी परिवेश की कुटिल प्रकृति से अर्जित की जाती है। आठवें दशक के बाद तो कविता का चोला लगातार बदला है। जो शब्दों से अठखेलियां करते आ रहे थे, वही सूफी-संत नजर आते हैं। उनकी काव्य-भाषा का लिबास कल कुछ दूसरा हो सकता है। ऐसे कवियों की मूर्घन्य-पहचान भी हो रही है जिनकी एक बारूदी कविता, एकमात्र संग्रह अथवा काव्य-प्रतिज्ञाओं से उपजी सीमित दृष्टि ही सब कुछ है। उनके हवाले देने वाले "पंगु-ऋषि'' भी एक आतिशी-आईना लिए शहर में घूम रहे हैं शायरों के जाने-माने मिसरे तक उनको 'नेम प्लेट' बने हैं। क्या समाज को सुनने-बुनने वाली मनोचेतना के पास इस विस्मय में सिर खपाने का अवकाश है? इन आत्मचेतस अमूर्तन शाब्दिक चितेरों की शाब्दिक साधुक्कड़ी-शैली में ही पूंजीवादी भूगोल के दारुण और रेडिकल दृश्य एक साथ नत्थी हैं। इनके सूक्ति-वाक्य चकाचौंध का दर्शन परोसते है। नई कविता इन पहरूओं की गढ़त के बिना भी काम चला लेगी। शमशेर को जमीन पर इन्होंने कुछ वजनदार कभी नहीं रचा होगा। सिवाय उनकी 'शमशेरियत' भुनाने के। क्या उन्हें इस कवि की यह डॉंट या सीख याद है- "हरेक युग में, कुछ शब्द अथवा मुहावरे प्रचलित हो जाते हैं- जिससे कवि को अपनी कविता को निर्ममतापूर्वक बचाना चाहिए।"
जो ऐसा कर पाएंगे वही आगे को सोच के हकदार होंगे। समय की ताल से सन्नद्ध कविता ही अपना नया छन्दस रचेगी। वैचारिक लय गति और यदि का स्वधर्म ही उसे सम्पन्न करता है। नए दो कवियों अविनाश और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति के छन्दस ही इस कथन की प्रामाणिकता के लिए पर्याप्त होंगे- एक अन्य सिनेमा उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे मीना कुमारी एक अच्छी कविता उतनी बड़ों हसरत है जैसे मुक्तिबोध/एक अच्छी कहानी उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे प्रेमचंद एक अच्छी राजनीति उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे भगत सिंह... एक अच्छे देश को और अच्छा बनाने की हसरत है...,'अभी हो यह दलालों के जबड़े में
(अविनाश
यहां दुख के छोटे-छोटे गड्ढे हैं/ जिनमें हर एक का पैर आ ही जाता  है/ लहराती हुई हवा धरती के चारों ओर / फैले हुए सुख की कल्पना है /जो हर मेहनती के सीने के बालो में से बहकर महकती है/ यहीं खेत में एक औरत को बचाने के लिए कमा रही है /इसलिए उसकी नाभि सोने के कमल जैसी चमक रही है। 
(रवींद्र स्वप्निल प्रजापति)

( यह लेख  5 मई 2013 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ था)

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