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Tuesday, August 25, 2020

ट्रेड यूनियन बिल

1927 में पूँजीवादी विश्व आर्थिक मन्दी को चपेट में आ रहा था. और मज़दूर वर्ग के जनवादी अधिकारों पर हमले शुरू हो गये थे। इंग्लैण्ड में जब ट्रेड यूनियन बिल पास हो रहा था तो 'किरती'ने (मई, 1927 में) एक लेख इस सम्बन्ध में प्रकाशित किया। लेख के लेखक के सम्बन्ध में जानकारी हासिल नहीं है, लेकिन यह उस समय क्रान्तिकारियों की सोच के बारे में बताता है। 1929 में जब ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल भारत में लागू करने की कोशिश की गयी थी तो भगतसिंह और बी.के. दत्त ने असेम्बली हॉल, दिल्ली में बम फेंका था।

इंग्लिस्तान के एक जगह टिके (Conservative) गुट के लोग कब से इस बात की ताक में थे कि कैसे मज़दूरों में बढ़ती हुई ताकत को रोका जाये उनको यह बात स्पष्ट नजर आती थी कि यदि मज़दूरों की बढ़त को अभी न रोका गया तो मजदूर देखते ही देखते राज के मालिक बन जायेंगे और इस तरह उन्हें राज की बागडोर छोड़नी पड़ेगी। उन्हें यह स्पष्ट पता था कि नाम मात्र स्वतन्त्र (Liberal) गुट तो किसी काम का नहीं है और न ही अभी जल्दी उनके ताकृत में आने की उम्मीद है। इसलिए यदि उन्हें खतरा था तो मजदूरों से ही था और मजदूरों की मुश्कें बाँधना ही उन्होंने सबसे पहले ठीक समझा।

इस काम के लिए उन्होंने ट्रेड यूनियन बिल का आविष्कार किया, जिसके सम्बन्ध में पिछले अंक में बताया गया था वे मजदूरों के सब करे-घरे को यह बिल पास कर कुएँ में डालना चाहते हैं। मज़दूरों ने इस बिल के खिलाफ़ बड़ी जोरदार आवाज बुलन्द की है। उन्होंने कहा है कि यह बिल एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग को मटियामेट करने के लिए लाया गया वर्ग-बिल है। मि. रामजे मैकडानल्ड जैसे मजदूर भी इस बिल को वर्ग-युद्ध की घोषणा समझते हैं और श्रमिक-संसार में सब जगह इस बिल से तूफ़ान मच गया है। मजदूर फिर एक दिन के लिए बड़ा आम हड़ताल करने की सोच रहे हैं। वे विरोध में मीटिंग कर रहे हैं। ख्याल किया जाता है कि संसद में इस बिल पर घमासान बहस होगी, और मजदूर-नेता यदि खरीद न लिये गये तो जी-तोड़कर लड़ेंगे।

आजकल जो लोग अंग्रेजी अखबार पढ़ते हैं उन्हें पता है कि इस बिल का किस तरह अंग्रेजी श्रमिक प्रेस में विरोध हो रहा है। इस बिल को वर्ग-कानून कहा जाता है। । मजदूर समझते हैं कि बाल्डविन की सरकार ने उनके बुनियादी अधिकारों पर धावा बोल दिया है। इस बिल से उनके संगठन के बिखर जाने का भारी खतरा है। मजदूरों का अपना दैनिक अखबार 'डेली हेराल्ड' (Daily Herald) लिखता है कि यह बिल मजदूरों को मानसिक रोगी समझता है और सख़्त अपराधियों के लिए इसने सज़ा भी नियत कर दी है। एक और मजदूर नेता इसे मुसोलिनी जैसा कानून कहा है।

बड़ी हड़ताल के समय से ही एक जगह खड़े (अनुदार) गुट के लोग यह माँग कर रहे थे कि सरकार कोई बिल संसद में पेंश करे, जिससे कि सबके सब मजदूर हड़ताल ही न कर सकें। और यदि एक यूनियन के मजदूर किसी दूसरी यूनियन की हमदर्दी में हड़ताल कर दें तो वह हड़ताल गैर-कानूनी मानी जाये इस समय यदि कोई यूनियन हड़ताल करती है तो वे मजदूर जो हड़ताल में शामिल नहीं होंगे, उन्हें यह समझाया नहीं जा सकेगा कि वे भी इसमें शामिल हों, क्योंकि यदि मजदूर पिकेटिंग आदि के जरिये ऐसा करेंगे तो उन्हें सजा दी जा सकेगी। इस बिल से सिविल सर्विस के कर्मचारियों के लिए किसी पार्टी में शामिल होना मना हो गया है और सबसे बड़ी चोट मजदूरों की राजनीतिक पार्टी पर की गयी है। वह यह है कि कोई मज़दूर राजनीतिक कामों के लिए तब तक चन्दा नहीं दे सकता, जब तक कि वह लिखकर न दे कि वह राजनीतिक कामों के लिए चन्दा इकट्ठा कर सकते हैं, लेकिन जो लोग चन्दा नहीं देना चाहते, वे लिखकर दें कि वे चन्दा नहीं देना चाहते। अब स्थिति उलटी हो गयी है ।

इस आखिरी अंक से श्रमिकों के संगठन को बड़ी भारी चोट पड़ेगी और इस जमाने में जबकि कोई पार्टी रुपयों के बगैर चल ही नहीं सकती तो यह स्पष्ट है कि श्रमिक पार्टी का रुपयों के बगैर गला दबाने के लिए यह चाल चली गयी है। अन्य पार्टियों की तरह लेबर पार्टी को भी संसद में अपने उम्मीदवार खड़े करने और उन्हें सफल बनाने के लिए रुपयों की जरूरत है। जब दूसरी पार्टियाँ जैसे चाहे रुपये इकट्ठा कर सकती हैं और उन्हें कभी पूछा तक नहीं गया है तो कोई वजह नहीं कि मजदूरों की पार्टी के भीतर कार्यों में खामखाह टाँग अड़ायी जाये।

इस समय तक मज़दूरों की राजनीतिक पार्टी अपने फण्ड ट्रेड यूनियनों से इकट्ठा करती रही है। उदारवादी गुट का यह विचार है कि इस तरह यदि मज़दूर पार्टी के फ़ण्ड हो बन्द कर दिये गये तो मज़दूरों का संगठन स्वयं ही दोफाड़ हो जायेगा और इनके घरों में घी के दिये जल जायेंगे। इस तरह श्रमिक संगठन के टूट जाने से यह सदा ही इंग्लिस्तान के राज पर कब्जा जमाये रखेंगे। पर कौन-सी पार्टी टूटेगी और कौन-सी सत्ता में आयेगी, इस बात का पता तो अनुभव और भविष्य ही बतायेगा।
यदि यह बिल पास हो गया तो मजदूर फिर उन्हीं जूंजीरों में जकड़े जायेंगे जिनमें से कि यत्न से अभी वे निकले ही थे फिर उन जुंजीरों को तोड़ना आसान नहीं होगा। इसलिए श्रमिकों को अब वक्त सँभालना चाहिए और ऐसा जोरदार आंदोलन करना चाहिए कि इस पूंजीपति गुट को, जो भी मज़दूरों को गुलामी से छूटने नहीं देना चाहता, नानी याद आ जाये। पर यह नानी भी तभी याद आ सकती है, यदि आने वाली संसद में इनकी ऐसी हार हो कि याद कर-कर आँखें मला करें। इस समय संसद में इन पूँजीपतियों का बहुमत है। इस बहुमत के अभियान में ही ये लोग अकड़े फिर रहे हैं और मजदूरों को नज़रों में भी नहीं लाते।

हम चाहते हैं कि मजदूर नाम मात्र स्वतन्त्र (उदार) गुट में भी प्रचार करें और उनमें से बहुत-से सदस्यों को अपनी ओर कर लें, ताकि यह बिल पास ही न हो सके। और न सिर्फ यह बिल ही असफल करा दें वरन इस मौजूदा सरकार को भी उलट दें। इसने यह कानून पेश कर राज करने के सभी अधिकार गवाँ दिये हैं।

इस समय जरूरत है कि मजदूरों के अपने घर में भी किसी तरह की फूट न हो और मज़दूरों के नरम और गरम गुटों के सब लोग एकजुट हो जायें ताकि साझे ज़ोर से इस मौजूदा सरकार का डटकर मुकाबला किया जा सके और इसे ऐसे चने चबाये जायें कि सारी उम्र ही इस वक़्त को याद कर-कर हाथ मला करें।

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