सितम्बर, 1928 के 'किरती' में छपा यह लेख राजनीतिक आन्दोलनकारियों पर चलने वाले मुकदमों के पौधे के विचारों पर केन्द्रित है। अग्रेज़ सरकार इन्हें षड्यन्त्र कंस कहती थी। इसमें साफ़ कहा गया कि षड्यंत्रों को रोकने का एक ही तरीका है दुनिया से गरीबी व गुलामी दूर करना। इस लेख में शान्तिपूर्ण व आतंकवादी तरीकों पर भी बड़े तर्कपूर्ण ढंग से विचार किया गया है। भगतसिंह और उनके साथियों के विचारधारात्मक विकास को जानने के लिए यह लेख महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक है।
एक षड्यंत्र की चर्चा अभी खत्म नहीं होती कि दूसरे यड्यन्त्र की चर्चा शुरू हो जाती है। कुछ समय पूर्व हम काकोरी षड्यंत्र का हाल पढ़ रहे थे, इन दिनों देवघर के षड्यंत्र के हाल सुन रहे हैं। इससे पहले लाहौर षड्यन्त्र केस, दिल्ली षड्यन्त्र केस, बोल्शेविक षड्यंत्र केस और न जाने और कितने षड्यंत्र केस चल चुके हैं, जिनमें कि दर्जनों ही नौजवान फाँसियों पर लटकाये गये। गोलियों से उड़ा दिये गये। सैकड़ों ही नहीं, हज़ारों कालेपानी भेजे गये, असंख्य देशभक्त अभी तक जेलों में कैद काट रहे हैं।
षड्यंत्र क्या होते हैं? सरकारों का विचार है कि मनुष्य के दिमाग में यह एक बीमारी है, जो नियमित चल रही व्यवस्था को तोड़ने-फोड़ने के लिए षड्यन्त्रकारी को मजबूर कर देती है। वह इस बीमारी के वश में होकर कानून तोड़ता है, शान्ति भंग करता है, हत्याएँ करता है और डकैतियाँ डालता है और कई ऐसे तरीके इस्तेमाल करता है जोकि समाज में गड़बड़ी फैलाने और शान्ति-भंग का कारण बनते हैं। वह चल रही व्यवस्था की तोड़-फोड़ की ठान लेता है और फिर इस लक्ष्य के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता।
इसके विपरीत षड्यंत्र कारी लोगों का दावा है कि षड्यंत्र उन आदर्शवादी लोगों की कोशिश होती है जो चल रही व्यवस्था की कमियों, अन्याय और जुल्म को सहन नहीं कर पाते, जो अमीर-गरीब, बड़े-छोटे, जालिम-मज़लूम, शासक-प्रजा, पूंजीपति-मजदूर, जमींदार-किसान आदि का फर्क खत्म कर एक जैसे अधिकारों और आज़ादी का दौर लाना चाहते हैं और जो पुरानी, गन्दी और अत्याचारी व्यवस्था को समाप्त कर एक नयी व सुन्दर व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं, जिसमें कि कोई शासक-प्रजा, अमीर-गरीब, जमींदार-किसान न हों, बल्कि सभी एक जैसे भाई-भाई हों। प्रत्येक काम करे और खाये और सभी की प्रत्येक जरूरत पूरी हो। ये बातें सही हैं या गलत जोकि दोनों अपने-अपने विचार को सामने रखकर की जाती हैं, यह पाठक स्वयं ही अनुमान लगायें। गुजरे वक्त का इतिहास प्रमाण है कि सख्त सज़ाओं और फाँसियों से षड्यन्त्र नहीं रुक सकते, न ही जुल्मों और अत्याचारों से चाहे वे कितने भी भयानक क्यों न हाँ आज़ादी की चाह कुचली जा सकती है। असंख्य नौजवान, जो किसी दूसरे आजाद देश में होते तो अपने देश के लिए तोहफ़ा साबित होते, अत्याचारी और ज़ालिम शासकों के अत्याचारों का शिकार हो गये। हजारों देशभक्त टुकड़े-टुकड़े कर कृत्ल कर दिये गये ताकि लोग इससे आतंकित होकर षड्यन्त्र करने से बाज आ जायें और आजादी के लिए हाथ-पाँव न हिलायें। तमाम सजाओं, फाँसियों, कैद और बेंत मार-मारकर देख लिया गया है, लेकिन ये तमाम सजाएं भी षड्यन्त्रों को रोकने में असफल रही हैं। बल्कि बढ़ता है शौके-शहादत हर सज़ा पाने के बाद' के अनुसार षड्यंत्रों की आग भड़कती गयी और इन सजाओं से न रुकी। यह क्यों है, आखिर इन षड्यन्त्रों को रोकने का क्या कोई इलाज भी हो सकता है?
यदि षड्यन्त्रों के पिछले इतिहास को अच्छी तरह देखा जाये तो हमें इस बात का भली प्रकार पता चलता है कि षड्यंत्रों को रोकने के लिए जितनी अधिक कोशिशें होती हैं, उतने ही अधिक षड्यन्त्र किसी न किसी शक्ल में वजूद में आते रहते हैं। इस तरह पता चलता है कि ये सजाएँ षड्यन्त्रों की आग भड़काने में लकड़ी का ही काम करती हैं।
सैकड़ों नौजवान गोलियों से उड़ा दिये जाते हैं, लेकिन उनकी जगह भरने के लिए हज़ारों ही नौजवान हथेलियों पर सर रखकर मैदान में कूद पड़ते हैं और अपने प्राणों को खतरे में डाल उस अधूरे काम को शुरू कर देते हैं। आखिर इसका कारण क्या है?
बदला लेना इन्सानी स्वभाव है। इन्सान जब तक इन्सान है, वह अपने दुश्मनों से बदला जरूर लेगा, ख़याली पुलाव पकाने वाले चाहे कुछ भी कहें आम नौजवान जब देखते हैं कि उनके भाई सिर्फ देशप्रेम के लिए ही किस बेदर्दी और बेरहमी से जुल्मों का शिकार हो रहे हैं तो उनके दिलों में अपने भाइयों पर हुए जुल्मों का बदला लेने की आग भड़क उठती है। वे शान्ति और सन्तोष को अलविदा कह देते हैं। अपनी किश्ती ईश्वर के सहारे छोड़ लंगर तोड़ देते हैं फिर या तो वे खुद उस बदले की आग में जलकर राख हो जाते हैं या दुश्मनों को राख करके ही साँस लेते हैं। यह इन्सानी दिलेरी है। भेड़ियों, नशेबाजों का पुलाव नहीं है।
दूसरी ओर एक बुजदिल और कायर होता है। उसे अपनी जान बहुत प्यारी होती है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि उसके पास से ऐशो-आराम और सफ़ेद-स्याह करने की ताकत छीन ली जाये। पर जब उसकी जान पर हमला किया जाता है और उसके मुँह से झाग गिरने लगती है तो वह गुस्से में आकर ऐसे-ऐसे कष्ट ढहाता है कि जमीन और आसमान काँप उठते हैं। वह अत्याचार में अन्धा होकर जिस पर भी हाथ उठाता है, चाहे वह निर्दोष ही क्यों न हो, उसे पार बुलाकर ही छोड़ता है। इस तरह अक्सर गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है और हजारों ही बेगुनाह नौजवान देश पर शहीद हो जाते हैं। यह निर्दोषों का खून होता है जो अन्त में रंग लाता है। जनता में बेचैनी फैल जाती है। षड्यंत्रकारियों के हाथ मजबूत हो जाते हैं, क्योंकि यह जुल्म, अन्याय और आतंक हो षड्यन्त्र पैदा करने के कारण हैं। वे खुली घोषणाएँ कर देते हैं कि देखा, हम नहीं कहते थे कि लातों के भूत बातों से नहीं सुधरते, लेकिन तुमने हमारी बातों पर ध्यान नहीं दिया। अब खूब गत बन रही है। लेकिन यह तो
इब्तिदाए इश्क है रोता है क्या?
आगे-आगे देखिये होता है क्या?
इस तरह पड्यन्त्र का वृक्ष निर्देशों के खून से सिंचकर बढ़ता है और थोड़े ही समय में फलने-फूलने लगता है। जब तक लोग खुलेआम अपने दुख-तकलीफें व्यक्त कर सकते हैं और सरकारी अत्याचारों की पोल खोल सकते हैं, तब तक तो षड्यन्त्रों की ज़रूरत नहींपड़ती, लेकिन जब सरकार खुले आन्दोलनों को खुलने लगती है और जब
न तड़पने की इजाज़त है,
न फ़रियाद की है।
घुट-घुट के मर जाऊँ,
यही मरज़ी मेरे सैयाद की है।
पर अमल शुरू हो जाता है तो इधर जोशीले और गर्वीले जवान भी इस बुरी स्थिति में नहीं जीना चाहते। वे सिरों की बाज़ी लगा देते हैं और ऐसे अत्याचारी (शासन) को तोड़ने की सिरतोड़ कोशिशों में व्यस्त हो जाते हैं।
जब तक शान्तिपूर्ण आन्दोलन में आजादी की माँग की छूट रही, कोई षड्यन्त्र नहीं हुआ, कोई गुप्त आन्दोलन नहीं चल सका, लेकिन ज्यों ही शान्तिपूर्ण आन्दोलन को कुचलने के आदेश जारी किये गये उसी समय गुप्त आन्दोलन शुरू हो गये और षड्यंत्रों की तैयारियाँ होने लगी सरकार की सख्ती का दौर शुरू हुआ और काले कानूनों के अधीन सैकड़ों नौजवानों को, जो खुले रूप में काम कर रहे थे, जेलों में नजरबंद कर दिया गया तो जोशीले नौजवानों को इससे आग लग गयी और वे तड़प उठे। बस फिर क्या था? किसी ओर काकोरी षड्यंत्र का तो कहीं किसी और षड्यंत्र का धुआँ निकलने लगा।
जब तक दुनिया में वहशी जमाने की गुलामी और गरीबी जैसी स्मृतियाँ कायम रहेंगी तब तक कोई भी ताकृत दुनिया के तख्त से षड्यन्त्रों और गुप्त आन्दोलनों को मिटा नहीं सकती। यदि जोर-जबरदस्ती और जुल्म षड्यंत्रों के रोकने का सही इलाज होता तो षड्यन्त्रों का नामो-निशान कब का मिट गया होगा लेकिन यह इलाज नहीं है। सम्भव है, जुल्म और अत्याचार कुछ समय के लिए षड्यन्त्रों को रोक सकें, लेकिन जुल्म और अत्याचार षड्यन्त्र रोकने का कोई कारगर नुस्खा नहीं है। कइयों का विचार है कि केवल आज़ादी ही षड्यन्त्रों को ख़त्म करने का असली इलाज है, लेकिन हमारा इससे मतभेद है। यह तो ठीक है कि यह आजादी ही है जो बहुत हद तक षड्यंत्रों को रोक सकती है, लेकिन फिर भी इसमें सोलह आने सच नहीं है, क्योंकि वर्तमान समय में साबित हो गया है कि केवल आज़ादी की) प्राप्ति से ही षड्यन्त्र नहीं रुक सकते। हमारे सामने अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस आजाद देशों में माने जाते हैं और वे हैं भी बिल्कुल आज़ाद किसी के गुलाम या किसी तरह से भी मोहताज नहीं हैं, लेकिन फिर भी वहाँ षड्यन्त्र होते रहते हैं, और अभी बहुत समय नहीं हुआ, जबकि 'साको' और 'वैनजिरी' को अमेरिका को पूँजीपति सरकार ने पड्यन्त्र के अपराध में बिजली की कुर्सी पर बिठाकर मार डाला था। जर्मनी में कम्युनिस्टों ने एक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था, लेकिन वे कुब्जा बनाकर न रख सके। फ्रांस और इंग्लैण्ड में भी षड्यन्त्र होते रहते हैं। अमेरिका जैसा समृद्ध देश पूरी दुनिया के नक्शे पर भी नहीं है। वहाँ 'राक-फैलरे' जैसे तगड़े अमीर आदमी हैं। यदि वे चाहें तो अकेले ही पूरे हिन्दुस्तान को खरीद सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर बेरोजगारी और गरीबी का यह हाल है कि हजारों ही नहीं, बल्कि लाखों अमेरिकी मजदूर ऐसे हैं जो बेराजगार भूखे दर-दर भटक रहे हैं और जिनका गुज़ारा सिर्फ सरकारी दान से ही होता है। तो क्या जब तक यह हद दर्जे को गरीबी और हद दर्जे की अमीरी दुनिया में कायम रहेगी, षड्यन्त्र दुनिया से खत्म हो सकते हैं? हमारा विचार तो 'नहीं में है। षड्यन्त्रों का हटना या न हटना रोटी के सवाल के हल होने पर निर्भर है। यदि रोटी का सवाल आज हल हो जाये तो आज ही षड्यन्त्रों को समाप्ति हो सकती है, लेकिन यदि रोटी का सवाल न निपटा तो ये पड्यन्त्र कभी भी रुक नहीं सकते, चाहे नौरू और
जहाद जैसे जालिम ही क्यों न पैदा हो जायें। शायद कुछ लोग कहें कि यदि रोटी के सवाल का हल ही षड्यन्त्रों की बीमारी के लिए अमृतधारा है तो फिर रूस में क्यों षड्यन्त्र होते हैं? हमारा जवाब स्पष्ट है कि रूस में जो षड्यन्त्र होते हैं वे सिर्फ विदेशी पूँजीपति सरकारों के छोड़े हुए कुछ भाड़े के टट्टुओं द्वारा करवाये जाते हैं और वे विदेशी सरकारें अपने एजेण्टों को धन आदि देकर उनसे षड्यन्त्र करवाती हैं, नहीं तो रूस में षड्यन्त्र करने के लिए कोई कारण ही नहीं है, ना ही रूसी लोगों को कोई तकलीफ़ है, जिससे कि उन्हें षड्यन्त्र करने की जुरूरत पड़े। कुछ ज़ार के चेले चपाटे हैं या विदेशी एजेण्ट हैं जो कभी-कभार हंगामा करते हैं, वरना रूस तो इस समय एक ऐसा देश है जो हर इन्सान को खुश देखना चाहता है और प्रत्येक इन्सान की ज़रूरतें पूरी करता है। हिन्दुस्तान का क्या कहना। पहले तो यह गुलाम है यहाँ के नौजवान जब दूसरे देशों को उन्नति करते देखते हैं तो उनके कलेजों पर छुरियाँ चल जाती हैं। वे अनुभव करते हैं कि उन्नति करना तो दूर रहा, उनका तो साँस लेने के लिए भी यहाँ जगह नहीं है। इसलिए हिन्दुस्तान का गुलाम होना ही यहाँ आजादी की कोशिशों के लिए एक अच्छा तर्क है। आजादी के लिए दो ही प्रकार की कोशिशें हो सकती हैं शान्तिपूर्ण व आतंकवादी तरीकों से। आजादी की प्राप्ति के हर तरीके को एक न एक दिन परीक्षा होती है। वह तरीका परीक्षा में खरा उतरे तो लोग उसमें विश्वास करते हैं, लेकिन यदि परीक्षा में असफल रहे तो लोगों का विश्वास उससे हट जाता है। हिंदुस्तान में भारी संख्या उन लोगों की है जो शान्तिपूर्ण तरीके के समर्थक हैं। शायद इसलिए कि उन्हें इसके सिवा और कुछ सूझता भी नहीं या यदि कुछ सूझता भी है तो वे उस पर व्यवहार करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। लेकिन यह बात अब सन्देह से परे है कि ऐसे आदमी भी हिन्दुस्तान में मौजूद हैं, जो शान्तिपूर्ण तरीकों पर विश्वास खो चुके हैं, और हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए काम भी करना चाहते हैं। जब तक ऐसे आदमी मौजूद हों तब तक षड्यन्त्रों का होते रहना अचम्भे की बात नहीं है। लेकिन एक गुलामी ही क्या? हिन्दुस्तान में इतनी गुरीबी है कि तौवा ही भली। हज़ारों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों ही आदमी रोटी के दो टुकड़ों के लिए तरसते मर जाते हैं। जब तक गुलामी और गुरीबी खत्म नहीं होती तब तक लोग भला कैसे आराम से बैठ सकते हैं? हो सकता है कि अमीर लोग ऐशो-आराम में आज़ादी को भूल जायें और गुलामी को पसन्द करें क्योंकि उनके लिए तो ऐश-परस्ती ही आज़ादी हो सकती है, लेकिन जो लोग भूखे मर रहे हैं, वे समझते हैं कि हमें मरना ही है, तो फिर क्यों न मर्दे-मैदान बनकर इस अन्यायपूर्ण और ज़ालिम व्यवस्था को रद्द करने में मरें, क्यों न देश के गरीबों को जगाने के लिए और भारतमाता को आजाद करवाने के लिए शीश दिये जायें? हो सकता है ऐसे विचार कुछ देर तक गरीबों के दिमाग में न आयें, लेकिन कब तक रुक सकेंगे, इस अन्याय, गुलामी और गरीबी के खिलाफ़ शुरू से ही षड्यन्त्र होते आये हैं। जब तक यह हाल रहेगा, जोशीले लोग यड्यन्त्र करते रहेंगे, क्योंकि तमाम षड्यन्त्रों की जड़ गरीबी और गुलामी ही है। चाहे सरकारें इस बात को नहीं मानतीं फिर भी यह बिल्कुल सही है कि शासक जो भी कुछ अधिकार या कुछ सुविधाएँ देते हैं वे इन षड्यन्त्रकारियों के भय से ही दिया करते हैं नहीं तो-यदि नौजवान हथेलियों पर सिर रखकर बिना किसी स्वार्थ के समाज को अच्छा बनाने के लिए बलिदान न करते तो सरकारों से जितने अधिकार अभी तक छीने जा चुके हैं, उतने भी न छीने जा सकते।
1925 में विपिनचन्द्र पाल ने एक लेख में लिखा था कि "यह पोलिटिकल कातिल ही थे, जिन्होंने कि मिण्टो-मारले योजना के लिए रास्ता साफ़ किया।" एक और माडरेट एस.आर. दास ने लिखा था कि "इंग्लिस्तान को इस मीठी नींद से जगाने के लिए कि हिन्दुस्तान के साथ अच्छा सलूक' हो रहा है, एक बम की ज़रूरत थी।"
यों आमतौर पर नेता लोग इन षड्यन्त्रकारियों के खिलाफ ही रहा करते हैं तो भी हमारे नेता साहिब बब्बर अकाली दल की तारीफ़ यह कहकर किया करते हैं कि सिखों को गुरुद्वारा बिल इसी आन्दोलन ने दिलवाया है, नहीं तो गुरुद्वारा बिल कभी भी न मिलता। यह लेख लिखने से न तो हमारा यह आशय है कि बम फेंकने की प्रेरणा दी जाये और न ही यह कि षड्यन्त्रकारियों की तारीफ के बड़े-बड़े पुल बाँध दिये जायें, चाहे हम समझते हैं कि वे सच्चे देशभक्त होते हैं और अपने भीतर सच्ची राष्ट्रीय और देशभक्ति की स्पिरिट रखते हैं और अपने विश्वास के अनुसार काम करते हैं, वे इसी में देश और कौम की बेहतरी समझते हैं इस लेख को लिखने का आशय तो यह है कि जनता को यह बताया जाये कि जहाँ भी गुलामी और गरीबी मौजूद है वहाँ कुछ जोशीले लोग उठते ही रहेंगे और गुलामी और गुरीबी के जुए को उतार फेंकने के यत्न करते रहेंगे, चाहे वे सफल हों या नहीं। हम समझते हैं कि इतिहास हमें यही बताता है कि इन षड्यन्त्रों को रोकने और हमेशा के लिए खत्म करने का एक ही तरीका है कि दुनिया से गरीबी और गुलामी दूर की जाये और प्रत्येक देश में आज़ादी के साथ रोटी के सवाल का भी पूरा समाधान हो। जब तक यह नहीं होता, षड्यंत्रों का बन्द होना मुश्किल है।
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