Friday, April 23, 2021

ये वुहान वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है..!

देश और दुनिया में गजब का माहौल चल रहा है। हर कदम पर मौत नजर आ रही है। कोरोना वायरस एक ऐसी महामारी जिसने लोगो की तबाह कर के रख दी है। इसे वुहान वायरस कहकर बुलाया जाए  तो ज्यादा सही है। देश एम इस वायरस को लेकर खूब राजनीति हुई कुछ ने कहा ये अफवाह है! कुछ ने कहा हम वैक्सीन नही लगवाएंगे ये लोगो को नपुंसक बना देगी! कुछ लोग तो इस वायरस के सहारे सरकार बना रहे थे कह रहे थे हमारी सरकार आएगी तब हम मुफ्त में वैक्सीन लगवाएंगे ये भाजपा की वैक्सीन पर भरोसा नही हमे। जब दूसरी लहर चली तो सबकी अकल ठिकाने आ गई।
सोशल मीडिया पर लोग मोदी विरोध में इतना गिर गए हैं की देश विरोधी गतिविधियों से भी बाज नही आ रहे है। खैर इसमें कौन सा नया बात है ये रोज का हो गया है। कई लोगो की मां 3 घंटे से तड़पकर मर गई यकीन नही होता न तो देखिए इस तस्वीर में...

 गौर से देखिए कैसे एक ही पोस्ट को  कॉपी पेस्ट करके सब छापे जा रहे है। एक बहुत बड़ा एजेंडा चलाया जा रहा है देश को नीचा गिराने की जिसका मुंहतोड़ जवाब देना जरूरी हो गया है। देश में जहा भाजपा की सरकार है वहा भाजपा के मुख्यमंत्रियों की  बुराइयां निकाली जा रही है और जिन राज्यों में गैर भाजपा सरकार है वहा प्रधामंत्री  मोदी जी को गलत ठहराया जा रहा है की ये कोरोना को रोकने में नाकाम साबित हुए है अगर पूरी लेफ्ट लिबरल मीडिया द्वारा । पर सत्य तो यही है कि झूठ पर झूठ बोला जा रहा है तथ्य को गलत बताया जा रहा है मोदी घृणा में कुछ मुट्ठी भर लोगों ने पूरे देश को भटकाने की कोशिश की है इस महामारी के दौर में। वुहान वायरस से भी खतरनाक वायरस तो ये तथाकथित मुट्ठी भर लोग है जिन्होंने देश को कई सालो से अंदर से खोखला करने में कोई कसर नही छोड़ी है।
लाशों पर राजनीति करने से विपक्ष तनिक संकोच नहीं कर रहा है।भले ही ये विपक्ष वाले खुद संक्रमित क्यों ना जाए पर इनकी सत्ता पाने की लालसा कभी नही जायेगी। ये घटिया लोग बस देश में आराजकता फैलाने के सिवाय और किए ही क्या है?  

Saturday, April 10, 2021

रणनीति बदलने की जरूरत

लेखक- मारूफ रजा
सामरिक विश्लेषक
        बीजापुर में सर्च ऑपरेशन - फोटो : ANI

माओवादियों ने छत्तीसगढ़ के बीजापुर में हुई मुठभेड़ के दौरान बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के कोबरा कमांडर राकेश्वर सिंह मनहास को सामाजिक कार्यकर्ता धर्मपाल सैनी और आदिवासी नेता तेलम बोरइया की मौजूदगी में छोड़ दिया है। तीन अप्रैल को बीजापुर के तरेम के जंगल में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सीआरपीएफ, एसटीएफ और डीआरजी के 22 जवान शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद क्या इस बात की समीक्षा होगी कि आखिर क्यों माओवादी मध्य भारत के जंगल में लगातार सफल होते जा रहे हैं?
बस्तर में सुरक्षा बलों के भारी-भरकम दस्ते पर घात लगाकर किया गया माओवादियों का यह हमला मध्य भारत के माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में किए गए अतीत के दूसरे हमलों जैसा ही था। अक्सर घात लगाने का उनका तरीका अतीत में किए गए हमले जैसा ही होता है। सुरक्षा बलो पर या तो तब हमला किया जाता है, जब जंगलों में थका देने वाले ऑपरेशन के बाद वे कैम्प की ओर लौट रहे होते हैं या फिर जब वह ऐसे पुलिस कैम्प में होते हैं, जिसकी पुख्ता सुरक्षा न हो। ऐसे जनसंहार को रोकने के तरीके हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए ऊपर से नीचे की ओर देखने के दृष्टिकोण की जरूरत है, न कि नीचे से ऊपर की ओर देखने वाले दृष्टिकोण की। माओवादियों ने विगत तीन दशकों में भारत के मध्य हिस्से में विस्तार किया है और वह समय-समय पर पशुपति (नेपाल) से लेकर तिरुपति (दक्षिण भारत) तक लाल गलियारे में अपनी ताकत दिखाते रहते हैं। कुछ वर्ष पूर्व अपने चरम में देश के दो सौ जिले माओवादी हिंसा से प्रभावित थे और उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आधिकारिक तौर पर कहा था कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादी हिंसा सबसे बड़ी चुनौती है)

दिल्ली से किए जाने वाले प्रयास आज भी पहले जैसे ही अनियमित हैं। एक समस्या देश की संघीय प्रकृति और राज्य सरकारों के विरोध से जुड़ी हुई है। यह चुनौतियों से निपटने के लिए केंद्र सरकार के समग्रता में किए जाने वाले प्रयास को बाधित कर सकता है। एक राज्य के विद्रोही किसी दूसरे राज्य के वोट बैंक नहीं हो सकते! यह दुखद है कि नागरिकों की सुरक्षा के मामले में राजनीति अक्सर अतीत की चूकों का अनुसरण करने लगती है। इस क्षेत्र में जरूरत से अधिक तनाव झेलते हुए पुलिस जवान पर्याप्त वरिष्ठ नेतृत्व के काम करते रहते हैं।

एक दशक पहले सीआरपीएफ के एक डीजीपी ने मुझे बताया था कि उनके लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे वह सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारियों (आईजी और डीआईजी) को शहरों की आरामदायक जिंदगी से बाहर निकालकर जंगलों में तैनात बल की कमान संभालने के लिए भेजें। हमारे प्रायः सारे पुलिस बल का नेतृत्व आईपीएस अधिकारी करते हैं और उनमें से अनेक पुलिस के कार्य में दक्ष है और ये नक्सलियों या उग्रवादियों से मुकाबला करने के लिए सिविल सेक से नहीं जुड़े हैं। इसके अलावा उनके पास न तो नक्सली हिंसा से लड़ने का अनुभव है और न ही वह दिलचस्पी । वे ऑपरेशनल एरिया में तैनाती के प्रति अनिच्छुक होते हैं। एक तरीका है कि सेना के उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन के अनुभव वाले वरिष्ठ अधिकारियों (कर्नल से लेकर जनरल) को केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन आने वाले अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ के जवानों का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी जाए। यदि सेना गृह मंत्रालय या पीएमओ के अधीन आने वाले एनएसजी या एस्टेब्लिशमेंट 22' (विशेष सीमांत बल) के लिए अधिकारी उपलब्ध करा सकती है, तो फिर माओवाद विरोधी अभियान के लिए क्यों नहीं? इसी तरह से ऐसे ऑपरेशन में हेलीकॉप्टर के इस्तेमाल के बारे में भी विचार करना चाहिए।

नक्सली और चरमपंथी रोजगार और आधारभूत ढांचे से वंचित स्थानीय लोगों से समर्थन जुटाते हैं। माओवादियों से निपटने के लिए तीन स्तरीय रणनीति पर काम हो सकता है: (1) आवश्यक सैन्य बल का इस्तेमाल (2) स्थानीय लोगों की बुनियादी मुश्किलों के समाधान के साथ ही आधारभूत ढांचे का समयबद्ध निर्माण (3) जमीनी स्तर पर स्थिति के नियंत्रित होने और सैन्य ऑपरेशन के कम होने के बाद स्थानीय लोगों की राजनीतिक मांगों को सुलझाने के लिए बातचीत की पहल।

(इस लेख का स्रोत अमर उजाला  अखबार है। जिसे  राष्ट्रचिंतक ब्लॉग पर प्रकाशित किया गया है )

Tuesday, April 6, 2021

आतंकवादी है ये

लेखक- अवधेश कुमार

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियों ने फिर साबित किया कि आतंकवाद की तरह खून और हिंसा के अलावा उनका कोई मानवीय उद्देश्य नहीं। पूरा देश शहीद और घायल जवानों के साथ है। करीब चार घंटे चली मुठभेड़ में 15 माओवादियों के ढेर होने का मतलब उनको भी बड़ी क्षति हुई है। साफ है कि वे भारी संख्या में घायल भी हुए होंगे। किंतु, 2223 जवानों का शहीद होना वड़ी क्षति है। 31 से अधिक घायल जवानों का अस्पताल में इलाज भी चल रहा है। इससे पता चलता है कि माओवादियों ने हमला और मुठभेड़ की सघन तैयारी की थी।
जो जानकारी है माओवादियों द्वारा षडयंत्र की पूरी व्यूह रचना से घात लगाकर की गई गोलीबारी में घिरने के बाद भी जवानों ने पूरी वीरता से सामना किया, अपने साथियों को लहूलुहान होते देखकर भी हौसला नहीं खोया, माओवादियों का घेरा तोड़ते हुए उनको हताहत किया तथा घायल जवानों और शहीदों के शव को घेरे से बाहर भी निकाल लिया। कई बातें सामने आ रही हैं। सुरक्षाबलों को जोनागुड़ा की पहाड़ियों पर भारी संख्या में हथियारबंद माओवादियों के होने की जानकारी मिली थी। छत्तीसगढ़  के माओवाद विरोधी अभियान के पुलिस उप महानिरीक्षक ओपी पाल की माने तो रात में बीजापुर और सुकमा जिले से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा बटालियन, डीआरजी और एसटीएफ के संयुक्त दल के दो हजार जवानों को ऑपरेशन के लिए भाजा गया था। माओवादियों ने इनमें 700 जवानों को तर्रेम इलाके में जोनागुड़ा पहाड़ियों के पास घेरकर तीन ओर से हमला कर दिया। इस घटना के बाद फिर लगता हैं मानो हमारे पास गुस्से में छटपटाना और मन मसोसना ही विकल्प है। यह प्रश्न निरंतर बना हुआ है  कि आखिर कुछ हजार की संख्या वाले 
हिंसोन्माद से ग्रस्त ये माओवादी कब तक हिंसा की ज्वाला धधकाते रहेंगे? ध्यान रखिए माओवादियों ने 17 मार्च को ही शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था। इसके लिए उन्होंने तीन शर्ते रखी थीं - सशस्त्र बल हटे, माओवादी संगठनों से प्रतिबंध खत्म हों और जेल में बंद उनके नेताओं को बिना शर्त रिहा किया जाए। एक ओर बातचीत का प्रस्ताव और इसके छठे दिन 23 मार्च को नारायणपुर में वारूदी सुरंग विस्फोट में पांच जवान शहीद हो गए। दोपहर में सिलगेर के जंगल में घात लगाए माओवादियों ने हमला कर दिया था। ऐसे खूनी धोखेबाजों और दुस्साहसों की लंबी श्रृंखला है। साफ है कि इसे अनिश्चितकाल के लिए जारी रहने नहीं दिया जा सकता। यह प्रश्न तो उठता है कि आखिर दो दशकों से ज्यादा की सैन्य -असैन्य कार्रवाइयों के बावजूद उनकी ऐसी शक्तिशाली उपस्थिति क्यों है? निस्संदेह, यह हमारी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यहीं से राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रश्नों के घेरे में आती है। पिछले करीब ढाई दशक से केंद्र और माओवाद प्रभावित राज्यों में ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसने इन्हें खतरा न बताया हो। यूपीए सरकार ने आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादियों को सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था। केंद्र के सहयोग से अलग-अलग राज्यों में कई सैन्य अभियानों के साथ जन जागरूकता, सामाजिक-आर्थिक विकास के कार्यक्रम चलाए गए हैं, लेकिन समाज विरोधी, देश विरोधी, हिंसाजीवी माओवादी रक्तबीज की तरह आज भी चुनौती बन कर उपस्थित हैं। हमें यहां दो पहलुओं पर विचार करना होगा।

भारत में नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों का एक वर्ग माओवादियों की विचारधारा को लेकर सहानुभूति ही नहीं रखता उनमें से अनेक इनको कई प्रकार से सहयोग करते हैं। राज्य के विरुद्ध हिंसक संघर्ष के लिए वैचारिक खुराक प्रदान करने वाले ऐसे अनेक चेहरे हमारे आपके बीच हैं। इनमें कुछ जेलों में डाले गए हैं, कुछ जमानत पर हैं। इनके समानांतर ऐसे भी हैं, जिनकी पहचान मुश्किल है। गोष्ठियों, सेमिनारों, लेखों, वक्तव्यों आदि में जंगलों में निवास करने वालों व समाज की निचली पंक्ति वालों की आर्थिक सामाजिक दुर्दशा का एकपक्षीय चित्रण करते हुए ऐसे तर्क सामने रखते हैं, जिनका निष्कर्ष यह होता है कि बिना हथियार उठाकर संघर्ष किए इनका निदान संभव नहीं है। अब समय आ गया है जब हमारे आपके जैसे शांति समर्थक आगे आकर सच्चाइयों को सामने रखें। अविकास, अल्पविकास, असमानता, वंचितों, वनवासियों का शोषण आदि समस्याओं से कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। केंद्र और राज्य ऐसे अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चला रहे हैं, जो धरातल तक पहुंचे हैं। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए जा रहे और बने हुए आवास, स्वच्छता अभियान के तहत निर्मित शौचालय, ज्योति योजनाओं के तहत बिजली की पहुंच, सड़क योजनाओं के तहत दूरस्थ गांवों व क्षेत्रों को जोड़ने वाली सड़कों का लगातार विस्तार, किसानों के खाते में हर वर्ष 6000 भुगतान, वृद्धावस्था व विधवा आदि पेंशन, पशुपालन के लिए सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन, आयुष्मान भारत के तहत स्वास्थ्य सेवा, कई प्रकार की इंश्योरेंस व पेंशन योजनाएं को साकार होते कोई भी देख सकता है। हर व्यक्ति की पहुंच तक सस्ता राशन उपलब्ध है। कोई नहीं कहता कि स्थिति शत प्रतिशत बदल गई है, लेकिन बदलाव हुआ है, स्थिति वेहतर होने की संभावनाएं पहले से ज्यादा मजबूत हुई हैं तथा पहाड़ों, जंगलों पर रहने वालों को भी इसका अहसास हो रहा है।

इसमें जो भी इनका हित चिंतक होगा वो इनको झूठ तथ्यों व गलत तर्कों से भड़का कर हिंसा की ओर मोड़ेगा, उसके लिए विचारों की खुराक उत्पन्न कराएगा, संसाधनों की व्यवस्था करेगा या फिर जो भी सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रम हैं, वे सही तरीके से उन तक पहुंचे, उनके जीवन में सुखद बदलाव आए इसके लिए काम करेगा? साफ है माओवादियों के थिंक टैंक और जानबूझकर भारत में अशांति और अस्थिरता फैलाने का विचार खुराक देने वाले तथा झन सबके लिए संसाधनों की व्यवस्था में लगे लोगों पर चारों तरफ से चोट करने की जरूरत है। निश्चित रूप से इस मार्ग की बाधाएं  हमारी राजनीति है। तो यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई में राजनीतिक एकता कैसे कायम हो?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विशेषज्ञ है। इनका यह लेख "राष्ट्रीय सहारा" अखबार में आज प्रकाशित हुआ है)