Thursday, July 30, 2020

राफेल विमानों का भारत आना हमारे सैन्य इतिहास में एक नए युग की शरूआत है

राफेल को लेकर बड़ा बवाल हुआ भारत में तरह तरह के आरोप लगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऊपर पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा राफेल आखिकार भारत आ ही गया है। "चौकीदार चोर है" के  शोर (झूठे शोर) को कौन भूल सकता है जो तथाकथित सेक्युलर, कांग्रेसियों , वामपंथियों और तमाम विपक्षी दलों ने मचाया था। कहने को यूपीए सरकार में देश आर्थिक तरक्की कर रहा था पर इनके  रक्षा मंत्री एके एंटनी हमेशा कहते थे "we don't have Money" देश की रक्षा की बात आती थी तो यही उनके जुबान से निकलता था भले ही तमाम घोटालो में करोड़ों चट कर गए हो।
कांग्रेस ने राहुल गांधी को सर पर चढ़ा कर रखा हुआ है इसीलिए इतने सालो से वो अनाप- शनाप बके जा रहे थे  राफेल को लेकर, देश को गुमराह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी इन दो कौड़ी के संकीर्ण मानसिकता वालो ने। इन्होंने "एयर स्ट्राइक" पर सवाल खड़ा करके वायुसेना का मनोबल गिराने की कोशिश की यानि ये तो कभी चाहते ही नहीं है हमारे देश की वायुसेना मजबूत हो। 
खैर जो भी अब "राफेल" के भारत आने से सबकुछ साफ हो गया है कि देश की सुरक्षा से अब कोई खिलवाड़ नहीं किया जाएगा।

देश में 5 राफेल लड़ाकू विमान आ गए हैं तो इस मौके पर 2016 में राफेल डील करने वाले तत्कालीन रक्षा मंत्री दिवंगत मनोहर पर्रिकर को भी नहीं भूलना चाहिए।

 बयानों पर एक नजर:-

राफेल की वजह से अगर किसी को हमारी नई क्षमता से चिंतित होना चाहिए तो उन्हें होना चाहिए जो हमारी क्षेत्रीय अखंडता को खतरे में डालना चाहते हैं। राफेल विमानों का भारत आना हमारे सैन्य इतिहास में एक नए युग की शुरुआत है। मुझे बहुत खुशी है कि भारतीय वायु सेना की लड़ाकू क्षमता को सही वक्त पर मजबूती मिली है।       _राजनाथ सिंह, रक्षा मंत्री


राष्ट्ररक्षासमं पुण्यं, राष्ट्ररक्षासमं व्रतम, राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो, दृष्टो नैव च नैव च।। नभः स्पृशं दीप्तम। स्वागतम।
                                            _नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री ने जो संस्कृत में कहा इसका  अर्थ है, "राष्ट्र के समान कोई पुण्य नहीं है, राष्ट्र रक्षा के समान कोई व्रत नहीं, राष्ट्र रक्षा के समान को यज्ञ नहीं है, नहीं है, नहीं है।"
देखा जाए आज सही मायनों में भारतीय वायु सेना का आदर्श वाक्य नभः स्पृशं दीप्तम यानी अंग्रेजी में लोग कहते है "TOUCH THE SKY WITH  GLORY"  आज इसमें और मजबूती आ गई है।

जय हिन्द !

देश की शिक्षा नीति में बड़ा बदलाव

पीएमओ

            (तस्वीर स्रोत: पीएमओ के साइट से)

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को मंजूरी दे दी है जिससे स्कूली और उच्च शिक्षा दोनों क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रूपांतरकारी सुधार के रास्ते खुल गए हैं। यह 21वीं सदी की पहली शिक्षा नीति है और यह 34 साल पुरानी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीई), 1986 की जगह लेगी। सबके लिए आसान पहुंच, इक्विटी, गुणवत्ता, वहनीयता और जवाबदेही के आधारभूत स्तंभों पर निर्मित यह नई शिक्षा नीति सतत विकास के लिए एजेंडा 2030 के अनुकूल है और इसका उद्देश्य 21वीं सदी की जरूरतों के अनुकूल स्कूल और कॉलेज की शिक्षा को अधिक समग्र, लचीला बनाते हुए भारत को एक ज्ञान आधारित जीवंत समाज और ज्ञान की वैश्विक महाशक्ति में बदलना और प्रत्येक छात्र में निहित अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है।

नई शिक्षा नीति की महत्वपूर्ण बातें

स्कूली शिक्षा

स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों पर सबकी एकसमान पहुंच सुनिश्चित करना

एनईपी 2020 स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों प्री-स्कूल से माध्यमिक स्तर तक सबके लिए एकसमान पहुंच सुनिश्चित करने पर जोर देती है। स्कूल छोड़ चुके बच्चों को फिर से मुख्य धारा में शामिल करने के लिए स्कूल के बुनियादी ढांचे का विकास औरर नवीन शिक्षा केंद्रों की स्थापनी की जाएगी। इस नई शिक्षा नीति में छात्रों और उनके सीखने के स्तर पर नज़र रखने, औपचारिक और गैर-औपचारिक शिक्षा सहित बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुस्तरीय सुविधाएं उपलब्ध कराने, परामर्शदाताओं या प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं को स्कूल के साथ जोड़ने, कक्षा 3, 5 और 8 के लिए एनआईओएस और राज्य ओपन स्कूलों के माध्यम से ओपन लर्निंग, कक्षा 10 और 12 के समकक्ष माध्यमिक शिक्षा कार्यक्रम, व्यावसायिक पाठ्यक्रम, वयस्क साक्षरता और जीवन-संवर्धन कार्यक्रम जैसे कुछ प्रस्तावित उपाय हैं। एनईपी 2020 के तहत स्कूल से दूर रह रहे लगभग 2 करोड़ बच्चों को मुख्य धारा में वापस लाया जाएगा।

नए पाठ्यक्रम और शैक्षणिक संरचना के साथ प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा

बचपन की देखभाल और शिक्षा पर जोर देते स्कूल पाठ्यक्रम के 10 + 2 ढांचे की जगह 5 + 3 + 3 + 4 का नया पाठयक्रम संरचना लागू किया जाएगा जो क्रमशः 3-8, 8-11, 11-14, और 14-18 उम्र के बच्चों के लिए है। इसमें अब तक दूर रखे गए 3-6 साल के बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम के तहत लाने का प्रावधान है, जिसे विश्व स्तर पर बच्चे के मानसिक विकास के लिए महत्वपूर्ण चरण के रूप में मान्यता दी गई है। नई प्रणाली में तीन साल की आंगनवाड़ी / प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा होगी।

एनसीईआरटी 8 ​​वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा (एनसीपीएफईसीसीई) के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। एक विस्तृत और मजबूत संस्थान प्रणाली के माध्यम से प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा (ईसीसीई) मुहैया कराई जाएगी। इसमें आंगनवाडी और प्री-स्कूल भी शामिल होंगे जिसमें इसीसीई शिक्षाशास्त्र और पाठ्यक्रम में प्रशिक्षित शिक्षक और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता होंगे। इसीसीई की योजना और कार्यान्वयन मानव संसाधन विकास, महिला और बाल विकास (डब्ल्यूसीडी), स्वास्थ्य और परिवार कल्याण (एचएफडब्ल्यू), और जनजातीय मामलों के मंत्रालयों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाएगा।

बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान प्राप्त करना

बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान की प्राप्ति को सही ढंग से सीखने के लिए अत्‍यंत जरूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए ‘एनईपी 2020’ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) द्वारा ‘बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ की स्थापना किए जाने पर विशेष जोर दिया गया है। राज्‍य वर्ष 2025 तक सभी प्राथमिक स्कूलों में ग्रेड 3 तक सभी शिक्षार्थियों या विद्यार्थियों द्वारा सार्वभौमिक बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान प्राप्त कर लेने के लिए एक कार्यान्वयन योजना तैयार करेंगे। एक राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन नीति तैयार की जानी है।

 स्कूल के पाठ्यक्रम और अध्यापन-कला में सुधार

स्कूल के पाठ्यक्रम और अध्यापन-कला का लक्ष्‍य यह होगा कि 21वीं सदी के प्रमुख कौशल या व्‍यावहारिक जानकारियों से विद्यार्थियों को लैस करके उनका समग्र विकास किया जाए और आवश्यक ज्ञान प्राप्ति एवं अपरिहार्य चिंतन को बढ़ाने व अनुभवात्मक शिक्षण पर अधिक फोकस करने के लिए पाठ्यक्रम को कम किया जाए। विद्यार्थियों को पसंदीदा विषय चुनने के लिए कई विकल्‍प दिए जाएंगे। कला एवं विज्ञान के बीच, पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच और व्यावसायिक एवं शैक्षणिक विषयों के बीच सख्‍त रूप में कोई भिन्‍नता नहीं होगी।

स्कूलों में छठे ग्रेड से ही व्यावसायिक शिक्षा शुरू हो जाएगी और इसमें इंटर्नशिप शामिल होगी।

एक नई एवं व्यापक स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा ‘एनसीएफएसई 2020-21’ एनसीईआरटी द्वारा विकसित की जाएगी।

बहुभाषावाद और भाषा की ताकत

नीति में कम से कम ग्रेड 5 तक, अच्‍छा हो कि ग्रेड 8 तक और उससे आगे भी मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा को ही शिक्षा का माध्यम रखने पर विशेष जोर दिया गया है। विद्यार्थियों को स्कूल के सभी स्तरों और उच्च शिक्षा में संस्कृत को एक विकल्प के रूप में चुनने का अवसर दिया जाएगा। त्रि-भाषा फॉर्मूले में भी यह विकल्‍प शामिल होगा। किसी भी विद्यार्थी पर कोई भी भाषा नहीं थोपी जाएगी। भारत की अन्य पारंपरिक भाषाएं और साहित्य भी विकल्प के रूप में उपलब्ध होंगे। विद्यार्थियों को ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ पहल के तहत 6-8 ग्रेड के दौरान किसी समय ‘भारत की भाषाओं’ पर एक आनंददायक परियोजना/गतिविधि में भाग लेना होगा। कई विदेशी भाषाओं को भी माध्यमिक शिक्षा स्तर पर एक विकल्‍प के रूप में चुना जा सकेगा। भारतीय संकेत भाषा यानी साइन लैंग्वेज (आईएसएल) को देश भर में मानकीकृत किया जाएगा और बधिर विद्यार्थियों द्वारा उपयोग किए जाने के लिए राष्ट्रीय एवं राज्य स्‍तरीय पाठ्यक्रम सामग्री विकसित की जाएंगी।

  

आकलन में सुधार

‘एनईपी 2020’ में योगात्मक आकलन के बजाय नियमित एवं रचनात्‍मक आकलन को अपनाने की परिकल्पना की गई है, जो अपेक्षाकृत अधिक योग्यता-आधारित है, सीखने के साथ-साथ अपना विकास करने को बढ़ावा देता है, और उच्चस्‍तरीय कौशल जैसे कि विश्लेषण क्षमता, आवश्‍यक चिंतन-मनन करने की क्षमता और वैचारिक स्पष्टता का आकलन करता है। सभी विद्यार्थी ग्रेड 3, 5 और 8 में स्कूली परीक्षाएं देंगे, जो उपयुक्त प्राधिकरण द्वारा संचालित की जाएंगी। ग्रेड 10 एवं 12 के लिए बोर्ड परीक्षाएं जारी रखी जाएंगी, लेकिन समग्र विकास करने के लक्ष्‍य को ध्‍यान में रखते हुए इन्‍हें नया स्वरूप दिया जाएगा। एक नया राष्ट्रीय आकलन केंद्र ‘परख (समग्र विकास के लिए कार्य-प्रदर्शन आकलन, समीक्षा और ज्ञान का विश्लेषण) एक मानक-निर्धारक निकाय के रूप में स्थापित किया जाएगा।

   समान और समावेशी शिक्षा

‘एनईपी 2020’ का लक्ष्‍य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी बच्चा अपने जन्म या पृष्ठभूमि से जुड़ी परिस्थितियों के कारण ज्ञान प्राप्ति या सीखने और उत्कृष्टता प्राप्त करने के किसी भी अवसर से वंचित नहीं रह जाए। इसके तहत विशेष जोर सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित समूहों (एसईडीजी) पर रहेगा जिनमें बालक-बालिका, सामाजिक-सांस्कृतिक और भौगोलिक संबंधी विशिष्‍ट पहचान एवं दिव्‍यांगता शामिल हैं। इसमें बुनियादी सुविधाओं से वंचित क्षेत्रों एवं समूहों के लिए बालक-बालिका समावेशी कोष और विशेष शिक्षा जोन की स्थापना करना भी शामिल है। दिव्‍यांग बच्चों को बुनियादी चरण से लेकर उच्च शिक्षा तक की नियमित स्कूली शिक्षा प्रक्रिया में पूरी तरह से भाग लेने में सक्षम बनाया जाएगा जिसमें शिक्षाविशारद का पूरा सहयोग मिलेगा और इसके साथ ही दिव्‍यांगता संबंधी समस्‍त प्रशिक्षण, संसाधन केंद्र, आवास, सहायक उपकरण, प्रौद्योगिकी-आधारित उपयुक्त उपकरण और उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अन्य सहायक व्‍यवस्‍थाएं भी उपलब्‍ध कराई जाएंगी। प्रत्येक राज्य/जिले को कला-संबंधी, कैरियर-संबंधी और खेलकूद-संबंधी गतिविधियों में विद्यार्थियों के भाग लेने के लिए दिन के समय वाले एक विशेष बोर्डिंग स्कूल के रूप में ‘बाल भवन’ स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। स्कूल की नि:शुल्‍क बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का उपयोग सामाजिक चेतना केंद्रों के रूप में किया जा सकता है।

प्रभावकारी शिक्षक भर्ती और करियर प्रगति मार्ग

शिक्षकों को प्रभावकारी एवं पारदर्शी प्रक्रियाओं के जरिए भर्ती किया जाएगा। पदोन्नति योग्यता आधारित होगी जिसमें कई स्रोतों से समय-समय पर कार्य-प्रदर्शन का आकलन करने और करियर में आगे बढ़कर शैक्षणिक प्रशासक या शिक्षाविशारद बनने की व्‍यवस्‍था होगी। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफेशनल मानक (एनपीएसटी) राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा।

 स्कूल प्रशासन

स्कूलों को परिसरों या क्लस्टरों में व्यवस्थित किया जा सकता है जो प्रशासन (गवर्नेंस) की मूल इकाई होगा और बुनियादी ढांचागत सुविधाओं, शैक्षणिक पुस्तकालयों और एक प्रभावकारी प्रोफेशनल शिक्षक-समुदाय सहित सभी संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करेगा।

स्कूली शिक्षा के लिए मानक–निर्धारण एवं प्रत्यायन

एनईपी 2020 नीति निर्माण, विनियमन, प्रचालनों तथा अकादमिक मामलों के लिए एक स्पष्ट, पृथक प्रणाली की परिकल्पना करती है। राज्य/केंद्र शासित प्रदेश स्वतंत्र स्टेट स्कूल स्टैंडर्ड्स अथारिटी (एसएसएसए) का गठन करेगे। सभी मूलभूत नियामकीय सूचना का पारदर्शी सार्वजनिक स्व-प्रकटन, जैसाकि एसएसएसए द्वारा वर्णित है, का उपयोग व्यापक रूप से सार्वजनिक निगरानी एवं जवाबदेही के लिए किया जाएगा। एससीईआरटी सभी हितधारकों के परामर्श के जरिये एक स्कूल गुणवत्ता आकलन एवं प्रत्यायन संरचना (एसक्यूएएएफ) का विकास करेगा।

उच्चतर शिक्षा

2035 तक जीईआर को बढ़ाकर 50 प्रतिशत करना

एनईपी 2020 का लक्ष्य व्यवसायिक शिक्षा सहित उच्चतर शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात को 26.3 प्रतिशत (2018) से बढ़ाकर 2035 तक 50 प्रतिशत करना है। उच्चतर शिक्षा संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ी जाएंगी।

समग्र बहुविषयक शिक्षा

नीति में लचीले पाठ्यक्रम, विषयों के रचनात्मक संयोजन, व्यावसायिक शिक्षा एवं उपयुक्त प्रमाणन के साथ मल्टीपल एंट्री एवं एक्जिट बिन्दुओं के साथ व्यापक, बहुविषयक, समग्र अवर स्नातक शिक्षा की परिकल्पना की गई है। यूजी शिक्षा इस अवधि के भीतर विविध एक्जिट विकल्पों तथा उपयुक्त प्रमाणन के साथ 3 या 4 वर्ष की हो सकती है। उदाहरण के लिए, 1 वर्ष के बाद सर्टिफिकेट, 2 वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा 4 वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक।

विभिन्न एचईआई से अर्जित डिजिटल रूप से अकादमिक क्रेडिटों के लिए एक एकेडमिक बैंक आफ क्रेडिट की स्थापना की जानी है जिससे कि इन्हें अर्जित अंतिम डिग्री की दिशा में अंतरित एवं गणना की जा सके।

देश में वैश्विक मानकों के सर्वश्रेष्ठ बहुविषयक शिक्षा के माडलों के रूप में आईआईटी, आईआईएम के समकक्ष बहुविषयक शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय (एमईआरयू)स्थापित किए जाएंगे

पूरी उच्च शिक्षा में एक मजबूत अनुसंधान संस्कृति तथा अनुसंधान क्षमता को बढ़ावा देने के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन का सृजन किया जाएगा।

विनियमन

चिकित्सा एवं कानूनी शिक्षा को छोड़कर समस्त उच्च शिक्षा के लिए एक एकल अति महत्वपूर्ण व्यापक निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) का गठन किया जाएगा।

एचईसीआई के चार स्वतंत्र वर्टिकल होंगे- विनियमन के लिए राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (एनएचईआरसी), मानक निर्धारण के लिए सामान्य शिक्षा परिषद (जीईसी), वित पोषण के लिए उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (एचईजीसी) और प्रत्यायन के लिए राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (एनएसी)। एचईसीआई प्रौद्योगिकी के जरिये चेहरारहित अंतःक्षेपों के माध्यम से कार्य करेगा और इसमें नियमों तथा मानकों का अनुपालन न करने वाले एचईआई को दंडित करने की शक्ति होगी। सार्वजनिक एवं निजी उच्चतर शिक्षा संस्थान विनियमन, प्रत्यायन एवं अकादमिक मानकों के उसी समूह द्वारा शासित होंगे।

विवेकपूर्ण संस्थागत संरचना

उच्चतर शिक्षा संस्थानों को उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षण, अनुसंधान एवं सामुदायिक भागीदारी उपलब्ध कराने के जरिये बड़े, साधन संपन्न, गतिशील बहु विषयक संस्थानों में रूपांतरित कर दिया जाएगा। विश्वविद्यालय की परिभाषा में संस्थानों की एक विस्तृत श्रेणी होगी जिसमें अनुसंधान केंद्रित विश्वविद्यालयों से शिक्षण केंद्रित विश्वविद्यालय तथा स्वायत्तशासी डिग्री प्रदान करने वाले महाविद्यालय शामिल होंगे।

महाविद्यालयों की संबद्धता 15 वर्षों में चरणबद्ध तरीके से समाप्त हो जाएगी तथा महाविद्यालयों को क्रमिक स्वायत्ता प्रदान करने के लिए एक राज्य वार तंत्र की स्थापना की जाएगी। ऐसी परिकल्पना की जाती है कि कुछ समय के बाद प्रत्येक महाविद्यालय या तो एक स्वायत्तशासी डिग्री प्रदान करने वाले महाविद्यालय में विकसित हो जाएंगे या किसी विश्वविद्यालय के संघटक महाविद्यालय बन जाएंगे।

प्रेरित, ऊर्जाशील और सक्षम संकाय

एनईपी सुस्पष्ट रूप से परिभाषित, स्वतंत्र, पारदर्शी नियुक्ति, पाठ्यक्रम/अध्यापन कला डिजाइन करने की स्वतंत्रता, उत्कृष्टता को प्रोत्साहन देने, संस्थागत नेतृत्व के जरिये प्रेरक, ऊर्जाशील एवं संकाय के क्षमता निर्माण की अनुशंसा करता है। इन मूलभूत नियमों का पालन न करने वाले संकायों को जबावदेह ठहराया जाएगा।

अध्यापक शिक्षण

एनसीईआरटी के परामर्श से, एनसीटीई के द्वारा अध्यापक शिक्षण के लिए एक नया और व्यापक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा, एनसीएफटीई 2021 तैयार किया जाएगा। वर्ष 2030 तक, शिक्षण कार्य करने के लिए कम से कम योग्यता 4 वर्षीय इंटीग्रेटेड बीएड डिग्री हो जाएगी। गुणवत्ताविहीन स्वचालित अध्यापक शिक्षण संस्थान (टीईओ) के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।

परामर्श मिशन

एक राष्ट्रीय सलाह मिशन की स्थापना की जाएगी, जिसमें उत्कृष्टता वाले वरिष्ठ/सेवानिवृत्त संकाय का एक बड़ा पूल होगा– जिसमें भारतीय भाषाओं में पढ़ाने की क्षमता वाले लोग शामिल होंगें– जो कि विश्वविद्यालय/कॉलेज के शिक्षकों को लघु और दीर्घकालिक परामर्श/व्यावसायिक सहायता प्रदान करने के लिए तैयार करेंगे।

छात्रों के लिए वित्तीय सहायता

एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य विशिष्ट श्रेणियों से जुड़े हुए छात्रों की योग्यता को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाएगा। छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले छात्रों की प्रगति को समर्थन प्रदान करना, उसे बढ़ावा देना और उनकी प्रगति को ट्रैक करने के लिए राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल का विस्तार किया जाएगा। निजी उच्च शिक्षण संस्थानों को अपने यहां छात्रों को बड़ी संख्या में मुफ्त शिक्षा और छात्रवृत्तियों की पेशकश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

खुली और दूरस्थ शिक्षा

जीईआर को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए इसका विस्तार किया जाएगा। ऑनलाइन पाठ्यक्रमों और डिजिटल संग्रहों, अनुसंधान के लिए वित्तपोषण, बेहतर छात्र सेवाएं, एमओओसी द्वारा क्रेडिट आधारित मान्यता आदि जैसे उपायों को यह सुनिश्चित करने के लिए अपनाया जाएगा कि यह उच्चतम गुणवत्ता वाले इन–क्लास कार्यक्रमों के समतुल्य हों।

ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल शिक्षा:

हाल ही में महामारी और वैश्विक महामारी में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सिफारिशों के एक व्यापक सेट को कवर किया गया है, जिससे जब कभी और जहां भी पारंपरिक और व्यक्तिगत शिक्षा प्राप्त करने का साधन उपलब्ध होना संभव नहीं हैं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वैकल्पिक साधनों की तैयारियों को सुनिश्चित करने के लिए, स्कूल और उच्च शिक्षा दोनों को ई–शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए एमएचआरडी में डिजिटल अवसंरचना, डिजिटल कंटेंट और क्षमता निर्माण के उद्देश्य से एक समर्पित इकाई बनाई जाएगी।

शिक्षा में प्रौद्योगिकी

सीखने, मूल्यांकन करने, योजना बनाने, प्रशासन को बढ़ावा देने के लिए, प्रौद्योगिकी का उपयोग करने पर विचारों का मुक्त आदान–प्रदान करने हेतु एक मंच प्रदान करने के लिए एक स्वायत्त निकाय, राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी मंच ( एनईटीएफ) का निर्माण किया जाएगा। शिक्षा के सभी स्तरों में, प्रौद्योगिकी का सही रूप से एकीकरण करके, उसका उपयोग कक्षा प्रक्रियाओं में सुधार लाने, पेशेवर शिक्षकों के विकास को समर्थन प्रदान करने, वंचित समूहों के लिए शैक्षिक पहुंच बढ़ाने और शैक्षिक योजना, प्रशासन और प्रबंधन को कारगर बनाने के लिए किया जाएगा।

भारतीय भाषाओं को बढ़ावा

सभी भारतीय भाषाओं के लिए संरक्षण, विकास और जीवंतता सुनिश्चित करने के लिए, एनईपी द्वारा पाली, फारसी और प्राकृत भाषाओं के लिए एक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन (आईआईटीआई), राष्ट्रीय संस्थान (या संस्थान) की स्थापना करने, उच्च शिक्षण संस्थानों में संस्कृत और सभी भाषा विभागों को मजबूत करने और ज्यादा से ज्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों के कार्यक्रमों में, शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/ स्थानीय भाषा का उपयोग करने की सिफारिश की गई है।

शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण को संस्थागत रूप से सहयोग और छात्र और संकाय की गतिशीलता दोनों के माध्यम से सुगम बनाया जाएगा और हमारे देश में परिसरों को खोलने के लिए शीर्ष विश्व रैंकिंग रखने वाले विश्वविद्यालयों के प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की जाएगी।

व्यावसायिक शिक्षा

सभी व्यावसायिक शिक्षाओं को उच्च शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग बनाया जाएगा। स्वचलित तकनीकी विश्वविद्यालयों, स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालयों, कानूनी और कृषि विश्वविद्यालयों आदि को उद्देश्य बहु–विषयक संस्थान बनना होगा।

प्रौढ़ शिक्षा

इस नीति का लक्ष्य, 2030 तक 100% युवा और प्रौढ़ साक्षरता की प्राप्ति करना है।

वित्तपोषण शिक्षा

शिक्षा पहले की तरह ‘लाभ के लिए नहीं’ व्यहार पर आधारित होगी जिसके लिए पर्याप्त रूप से धन मुहैया कराया जाएगा। शिक्षा क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा देने के लिए, केंद्र और राज्य मिलकर काम करेंगे जिससे जीडीपी में इसका योगदान जल्द से जल्द 6% हो सके।

अभूतपूर्व परामर्श

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को, परामर्शों की अभूतपूर्व प्रक्रियाओं के बाद तैयार किया गया है जिसमें 2.5 लाख ग्राम पंचायतों, 6,600 ब्लॉकों, 6,000 यूएलबी, 676 जिलों से प्राप्त हुए लगभग 2 लाख से ज्यादा सुझावों को शामिल किया गया है। एमएचआरडी द्वारा, जनवरी 2015 से इस अभूतपूर्व सहयोगात्मक, समावेशी और अत्यधिक भागीदारी वाली परामर्श प्रक्रिया की शुरूआत की गई। मई 2016 में, ‘नई शिक्षा नीति के विकास के लिए गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसकी अध्यक्षता स्वर्गीय श्री टी.एस. आर. सुब्रमण्यन, पूर्व कैबिनेट सचिव ने की थी। उसने इसके आधार पर, मंत्रालय ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 के लिए कुछ इनपुट तैयार किए। जून 2017 में, प्रख्यात वैज्ञानिक, पद्म विभूषण डॉ के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के लिए एक समिति का गठन किया गया था, जिसने 31 मई, 2019 को माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री को राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2019 का मसौदा प्रस्तुत किया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 का मसौदा, एमएचआरडी की वेबसाइट पर और ‘माईगव इनोवेट’ पोर्टल पर अपलोड किया गया, जिसमें आम नागरिक सहित हितधारकों के विचारों/सुझावों/टिप्पणियों को प्राप्त किया गया।

( स्रोत: पीएमओ के साइट से  साभार)

Thursday, July 23, 2020

नयी कविता के अंतराल और शिखर

काव्य विमर्श/ प्रताप सिंह
( तस्वीर स्रोत :- राष्ट्रीय सहारा 5 मई 2013)

मौजूदा दौर की कविता भिन्न अन्तराल खोज रही है। उसके वैदग्धपूर्ण पाठ सामने आ रहे हैं या फिर आत्म-सम्मोहन की मुद्राएं अपने वलय में कवियों को जकड़े हुए हैं। अन्तःपाठ, पुनर्पाठ और नाराज कवियों के कड़े नोट्स पत्रिकाएं बांच खूब रही हैं। एक अखाड़े के द्यु-लोक में दूसरों को नकारा अथवा लताड़ा जा रहा है। 'कविता मुझे रचती है' के जुमले भी खूब कारगर सिद्ध हो रहे हैं। नई आलोचना-शैलियों से खिन्न 'काव्य सम्प्रदाय' पाला-बदलखेल से परेशान हो रहे हैं। इस पूरे वृत्त में सच्ची कविताएं और अपने समकाल में उसे रचने वाले सामाजिक कवि नदारद क्यों मान लिये गये हैं? इधर 'शार्ट एट्टीज' और 'लॉन्ग नाइन्टीज' के कवियों ने अपनी प्रतिस्थापनाओं और दशक दर दशक केवल उन्हें ही पहचाने जाने की जंग शुरू की है। उन्हें अपनी पहचान के आदर्श-बिंदु ढूंढ़े नहीं मिल रहे हैं तो भी वह कविता और समकालीनता के कटघरे में बाकी के रचे परिवेश को खारिज कर, अपनी ही 'मार्किटिंग' पर टिके रहने की मुनादी करते नजर आते हैं। एक नए प्रस्थान बिंदु के मोड़ पर हिंदी की कुटुम्ब कविता की प्रदीर्घ परंपरा को पीछे छोड़ गए नए रचना समय के उनके तकाजे भी सामने आ रहे हैं, जहां आत्म परीक्षण कम, आत्म प्रचार ज्यादा है।
सम्पादकीय', 'साक्षात्कार', 'चिट्ठियों के हवाले तक इस क्रियाशीलता को 'चौकस-गिरोहबन्दी में भुनाने की चेष्टा भर नजर आते हैं। एक अंश इस पड़ताल के दो तरह के खुलासे करता है। मसलन, 'घर एक लंबे अरसे से हमारे युवा साथी जिस हड़बड़ी, भागमभाग, उठापटक और जोड़-तोड़ से गुजर रहे हैं, यह देख विस्मय होता है। ...लॉन्ग नाइन्टीज का एक पथ/संप्रदाय में रूपान्तरण आत्ममुग्धता का दिलचस्प उदाहरण है। ...यह एनटैगनिज्म और हेकड़ी दुर्लभ है।' (वागर्थ जनवरी 2013 में नरेंद्र जैन)। इस दृष्टान्त के बरअक्स ('अलाव' जनवरी-फरवरी 2013 में) 'वागर्थ में गिनाये गये होनहार कवियों में से 'त्रिआयामी-कविता' के एक नये खेवनहार की विजेन्द्र' जैसे वरिष्ठतम-कवि ने कुछ इस तरह खबर ली है- 'अब देवी प्रसाद मिश्र जैसा व्यक्ति जिसमें कविता बिल्कुल है ही नहीं-उसकी 40-40 पृष्ठों की कविताएं छापी उन्होंने पहल' में, जिस पर लोगों ने एतराज किया कि ये तो कविता है ही नहीं।.

ताजादम वैचारिकता और लयकारी
मौजूदा समय में यह वृत्त नये काव्य-विमर्श पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता नजर आता है। पर यही अंतिम या पूरा परिदृश्य नहीं है। काव्य संप्रदायों में हमेशा बची रही कविता ही हर दौर का प्रतिनिधित्व करती आ रही है। उसे प्रतिस्थापनाओं के फेर में नहीं पड़ना पड़ा। उसकी वैचारिकता और लयकारी हमेशा ताजादम रहेगी। इसका सबूत देने भर की देरी है। मौजूदा दृष्टान्त अथवा काव्य-लोक के औदार्य-स्वर के बीच नई कविता की सामाजिक भूमिका ने ही उसकी खरी पहचान तय की है। नई कविता के अंतराल और शिखर भी इस बहस से बाहर के प्रतिनिधि और नव-नूतन हस्ताक्षरों के काव्य-लोक में ही दृष्टित होंगे और हुए हैं। हम उनसे खूब परिचित हैं। पर दशक-खंडों के विशेषणों की भूख ने बाकी सबको पीछे ठेल, खुद आगे आने की लालसा के वशीभूत किया हुआ है।
कुछ देर के लिए नये 'छापामार-दस्तों' की इस कार्रवाई या प्रबंधन कौशल से निष्प्रभावित रहकर हमें विजय देव नारायण साही, कुंवर नारायण, शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय, राजकमल चौधरी और वीरेंद्र कुमार जैन से होते हए रामदरश मिश्र, विष्णु खरे, मदन वात्स्यायन, मनमोहन, आर चेतन क्रांति, विजेन्द्र, देवेन्द्र कुमार, राजेश जोशी, पंकज सिंह, सविता सिंह, अविनाश और रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति तक की अथवा अन्य कवियों की अब तक की काव्य-यात्रा में विचरण कर 'सही की पक्षधरता' और उनकी अनुभवशीलता का पक्ष भी परख लेना चाहिए। तभी पता चलेगा कि नई कविता किस प्रकार के प्रतिरोध या प्रतिकूलता के बीच हमेशा से सही की तरफदार हैं। हमारे नये-पुराने समाजों और सांसारिकताओं के बीहड़-सूनेपन में उपजी क्रूर-आकांक्षाओं का साक्षी होना भी उसने जताया है। 
 नये लम्पट-परिवेश की अनुभूतियों, भय, विदग्धता, प्रेम, करुणा के नये पाठ भी उसमें दर्ज हैं। आजादी के छलावे के बाद के पड़ाव/अन्तराल गालिब की तल्खनवाई (कड़वे बोल) से कम तवक्को (उम्मीद) कहन में नहीं रखते। आज उसके सोच के शिखर समाज की तहनशी (तलछट) में डूबे दिखते हैं। फिर उसकी तहरीर को बांचना एक टेढ़ा काम तो है ही।

बाजारी ताकतों के बीच
पहली नजर में ये तहरीरें, कुछ नामचीन कवियों और उनके बीच की पीढ़ियों के या कई पस-नविश्त (ताजा कलम) के हल्फिया बयान लग सकती हैं। इन कवियों के सपाट से लगने वाले रूदाद (वृतान्त) में हमारे समय की गंठे साफ खुलती नजर आती हैं। उनके उदाहरण सामने आने पर हम पाते हैं कि इस दुनिया के बारे में आठवें-नौवें दशक की इस घेरेबन्दी से बाहर भी नये कवियों ने बोलते-बतियाते उसी दौर में कितना कुछ ऐसा कह दिया है, जिसके स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं पड़ी। 
वास्तव में नई कविता के इस दिगन्त का दिग्ध रूप ही हर नये तेवर के साथ बदला और सामने आया। पर उसकी तिक्तता ने उसकी आत्मा को नहीं बदला। बाजार की झूठी ताकतों ने, मॉल-कल्चर ने जरूर कहीं न कहीं नये कवि को पसमांदगी (पलायन, लाचारी) के प्रतीकों से लाद दिया है। तथापि नई कविता अपने वर्तमान की रूप-छायाओं में बहुआयामी रहते हुए बेबाकी में इतनी गुरु गंभीर है कि अपने इस लिबास में भी अनुपम नजर आती है। उसमें कोई सूत्रबद्धता नहीं है। फिर भी जो वाच्य (कहने योग्य) है, उसकी कोई दूसरी खांटी मिसाल फिलहाल सामने नहीं है। अलबत्ता, लीलाधरों से लेकर प्रभाषी कवि ऋतुराज तक इसी मुहावरे के मुरीद नजर आते हैं। इसी शताब्दी के सामने से गुजरे वरिष्ठतम कवि विजय देव नारायण साही अपनी इन पंक्तियों में आपाधापी के युगीन सिद्धान्त की धज्जियां उड़ाते हुए उसकी 
मीमांसा में कुछ इस तरह धंसते चले जाते हैं- 
'मैं तुम्हारे नियमों के विरुद्ध- बिसात के नीचे उतरकर सीधे तुम्हारे मर्म में प्रवेश करता हूं। देखो मुझे कौन रोकता है। 
यह नितान्त नियमहीनता भी मुझे युग ने सिखायी है।' यही इस युग का भी मुहावरा है।

नई पीढ़ी के दृश्य प्रपंच 
नई कविता की, अलग-अलग पीढ़ियों के रूपक और सोच से उपजे ग्राह्य-बिम्बों की सजीली कतार केबजाय यहां कुछ फासले रखते हुए हर नई पीढ़ी के पास अपने-अपने 'दृश्य प्रपंच' हैं-जो इस सजीली कतार के रेखांकित मियादी कौशल से हटकर और ज्यादा भरोसे के हैं। वहीं प्रत्ययकारी (विश्वास दिलाने वाले) हस्ताक्षर नई कविता के मस्तक पर लगा हुआ दिठोंना हैं। इनसे पता चलता है कि अपनी उन्नयन-दृष्टि से कैसे नये और प्रौढ़ कवियों ने उस और इस समय की प्रतिकूलता और विकट-विषम-बोध को साधा है। स्वविवेक की गवेषणा से इसकी अधुनातन पहचान हासिल होती है। यह मात्र सहज कविताई नहीं है। उत्तरोत्तर, जनवादी भ्रम वाली छवियों तक से तथा वाद-प्रतिवाद एवं अन्य प्रवृत्तियों के गुच्छ से मुक्त होने में नई कविता को समय लगा है। उसे आग्रह-पूर्वग्रह के फेर मैं, प्रयोगवाद का और तात्कालिक टिकाऊ प्रतिमानों के बहकावे में- क्या हम फिर बहस-तलब दिखाकर, खूटे गाड़ने की सिद्धियां हासिल करना चाह रहे हैं? नये तर्क सिद्धान्तों की आलोचना पद्धति छन्द को उनके (कविता के) इस नूतन रूप को स्वीकार करे ना करे, अद्य-बिम्बों के सघन प्रयोग और उनके भाष्य सामने आते रहेंगे। हाल-फिलहाल तो इस नये काव्य-जगत में कितने ही कथित कारगर कवि, सुखनवर अपनी जमीन, हवा, पानी और ताप में से ही भीतर के पाठ के लिए इस कठोर समय के दुर्लभ और गैर-सनातन अर्थ खोजने में मशगूल हैं।

कविता का बदलता चोला 
साहीजी के बाद सीधे रघुवीर सहाय के समय से राजनैतिक चेतना की नई रगड़ से कविता भी भिन्न अर्थसत्ता हासिल कर चुकी है राज्यसत्ताओं की बेश्मी तक उद्घाटित करने की महीन कारीगीरी परिवेश की कुटिल प्रकृति से अर्जित की जाती है। आठवें दशक के बाद तो कविता का चोला लगातार बदला है। जो शब्दों से अठखेलियां करते आ रहे थे, वही सूफी-संत नजर आते हैं। उनकी काव्य-भाषा का लिबास कल कुछ दूसरा हो सकता है। ऐसे कवियों की मूर्घन्य-पहचान भी हो रही है जिनकी एक बारूदी कविता, एकमात्र संग्रह अथवा काव्य-प्रतिज्ञाओं से उपजी सीमित दृष्टि ही सब कुछ है। उनके हवाले देने वाले "पंगु-ऋषि'' भी एक आतिशी-आईना लिए शहर में घूम रहे हैं शायरों के जाने-माने मिसरे तक उनको 'नेम प्लेट' बने हैं। क्या समाज को सुनने-बुनने वाली मनोचेतना के पास इस विस्मय में सिर खपाने का अवकाश है? इन आत्मचेतस अमूर्तन शाब्दिक चितेरों की शाब्दिक साधुक्कड़ी-शैली में ही पूंजीवादी भूगोल के दारुण और रेडिकल दृश्य एक साथ नत्थी हैं। इनके सूक्ति-वाक्य चकाचौंध का दर्शन परोसते है। नई कविता इन पहरूओं की गढ़त के बिना भी काम चला लेगी। शमशेर को जमीन पर इन्होंने कुछ वजनदार कभी नहीं रचा होगा। सिवाय उनकी 'शमशेरियत' भुनाने के। क्या उन्हें इस कवि की यह डॉंट या सीख याद है- "हरेक युग में, कुछ शब्द अथवा मुहावरे प्रचलित हो जाते हैं- जिससे कवि को अपनी कविता को निर्ममतापूर्वक बचाना चाहिए।"
जो ऐसा कर पाएंगे वही आगे को सोच के हकदार होंगे। समय की ताल से सन्नद्ध कविता ही अपना नया छन्दस रचेगी। वैचारिक लय गति और यदि का स्वधर्म ही उसे सम्पन्न करता है। नए दो कवियों अविनाश और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति के छन्दस ही इस कथन की प्रामाणिकता के लिए पर्याप्त होंगे- एक अन्य सिनेमा उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे मीना कुमारी एक अच्छी कविता उतनी बड़ों हसरत है जैसे मुक्तिबोध/एक अच्छी कहानी उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे प्रेमचंद एक अच्छी राजनीति उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे भगत सिंह... एक अच्छे देश को और अच्छा बनाने की हसरत है...,'अभी हो यह दलालों के जबड़े में
(अविनाश
यहां दुख के छोटे-छोटे गड्ढे हैं/ जिनमें हर एक का पैर आ ही जाता  है/ लहराती हुई हवा धरती के चारों ओर / फैले हुए सुख की कल्पना है /जो हर मेहनती के सीने के बालो में से बहकर महकती है/ यहीं खेत में एक औरत को बचाने के लिए कमा रही है /इसलिए उसकी नाभि सोने के कमल जैसी चमक रही है। 
(रवींद्र स्वप्निल प्रजापति)

( यह लेख  5 मई 2013 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ था)

निराला केवल छंद थे !

कैलाश वाजपेयी (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) हिन्दी साहित्यकार थे। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था। इनका ये लेेख " निराला केवल छंद थे" 4 नवंबर 2012 को " अमर उजाला में प्रकाशित 
हुआ था।

एम.ए हिंदी के प्रथम वर्ष में ही एक अप्रतिम अवसर मिला। मैनपुरी की एक साहित्य संस्था ने 'विराट काव्य समारोह' शीर्षक वाला एक पत्र भेजा। लिखा कि महाप्राण निराला की अध्यक्षता में लगभग सोलह कवि, जिनमें सुश्री महादेवी वर्मा, विद्यावती कोकिल, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शंभूनाथ सिंह, शिवमंगल सिंह सुमन, बलवीर सिंह रंग, हरिवंश राय बच्चन, जानकी वल्लभ शास्त्री एवं साही जी के ही साथ नवोदित कवि की हैसियत से आपका नाम भी जोड़ दिया गया है। निराला जी के उपन्यास 'अप्सरा' और 'प्रभावती' पहले ही पढ़ चुका था। समारोह क्योंकि चार-पांच सप्ताह बाद होना था। इसलिए सब समय अब निराला जी की शेष कृतियों के अवगाहन में लगाना शुरू कर दिया। विल्लेसुर बकरिहा (1941) कुल्लीभाट (1939) और चमेली (1941) पढ़कर अपने ही गांव के कई पात्रों की याद आई। 'अनामिका' के बाद उनकी लंबी रचना तुलसीदास (1938) की छांदसिक कसावट और भाषा ने मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनकी सरस्वती वंदना तो पहले ही कंठस्थ थी। आप सब भी शायद पढ़ना चाहें।

वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद, तमहर, प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।

उनके द्वारा रचित कुकुरमुत्ता (1942) पढ़ते हुए एकाएक ख्याल आया कि अपने लखनऊ में प्रगतिशील आंदोलन की यह जो शुरुआत हुई थी, उन दिनों ही निराला जी कहीं यहां दुलारेलाल भार्गव के मेहमान तो नहीं थे। हमारी कक्षा में साथ पढ़ने वाली स्वर्णलता भार्गव से हमने जब पड़ताल करनी चाही, तो बजाय सही-सही कुछ भी कहने के स्वर्णलता ने इसरार किया कि 'हमारे घर क्यों नहीं आ जाते!'
स्वर्णलता की आंखें इतनी सुंदर थीं कि अपन को पहली बार लगा वह तो सचमुच मृगनयनी है। अस्तु, हम स्वर्णलता के घर गए। वहां हमें निराला जी से जुड़ी स्मृतियों के साथ यही रचना मिली - अबे सुन बे गुलाब / भूल मत पाई जो खुशबू रंगो आब / खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट/डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट। जिसे पढ़कर लगा कि निराला की रचना को और गहरे डूबकर पढ़ना होगा।
उनकी 'सरोज स्मृति' कविता, जो उन्होंने अपनी बेटी के निधन पर लिखी थी, एक असहाय पिता के हृदय का हाहाकार है। उनका 'बेला' नामक काव्य संग्रह प्रयोगशीलता से भरा पड़ा है। वरना कहां एक ओर 'राम की शक्तिपूजा' की ये पंक्तियां -

हंसी के तार के होते हैं ये बहार के दिन
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन

( 4 नवंबर 2012 अखबार से तस्वीर से खींची हुई है "अमर उजाला")

निराला जी की 'जुही की कली' कवि की वियोगावस्था की एक मधुर कल्पना है। यह कविता बीते वर्षों में पहले भी पढ़ी थी। प्रणय स्मृति में कली की रतिक्रीड़ा का चित्र लौकिक प्रेम में अलौकिक रतिक्रीड़ा का संकेत, जिसे निराला जी ने लौकिक प्रेम के सहारे संयोजित किया है। यह कविता कीट्स की 'ओड टु नाइटिंगेल' की याद दिलाती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कीट्स ने अपनी सीमाबद्धता की तुलना, नाइटिंगेल की स्वच्छंदता से की है, जबकि निराला जी का अभिप्रेत शायद, केवल स्वच्छंदता को प्रकृति के दृश्यपटल पर समायोजित करना रहा होगा।

विजनवन वल्लरी पर
सोती थी सुहागभरी स्नेह स्वप्न भग्ना
अमल कमल तनु तरुणी जुही की कली
दृगबंद किए शिथिल पत्रांक में।

इस कविता को पारखियों ने एक प्रकाश स्तंभ माना और कहा मुक्त छंद, ललित भावनाओं की स्वच्छंद अभिव्यक्ति और अव्यक्त संकेतात्मकता के कारण यह कविता आचार, विचार, प्रधान नियमानुबद्ध, इतिवृत्तप्रधान, द्विवेदीयुगीन काव्य के विरुद्ध एक काव्यमयी प्रतिक्रिया है। जिसमें निराला जी ने विराट सृष्टि में व्याप्त सूक्ष्म चेतना को दिव्य नारी के रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है। अभिधा को लक्षणा की ओर मोड़ा है। 'जुही की कली' में यौवन की सारी उद्दामता एवं आभा अभिव्यक्त हो उठी है। साथ ही कवि ने रतिक्रीड़ा के चित्र को एक प्रतीक रूप में अभिसिंचित कर डाला है। निर्जन अरण्य वन में सौभाग्यशालिनी 'जुही की कली' स्नेह स्वप्न में डूबी हुई थी, तभी मलयानिल, चलने की शीघ्रता में 'पवन' बन जाता है और उपवन, सरि सरित आदि पार कर 'जुही की कली' के पास पहुंचता है। कली प्रिय के आगमन को पहले से ही समझ लेती है। पवन आता है और तब नायक ने चूमे कपोल जैसे हिंडोल, किंतु स्नेह चुंबन के पश्चात (कवि के अनुसार दिव्यशक्ति की अनुभूति के कारण) कली जागृति की अवस्था में होती हुई भी सुषुप्ति का बहाना किए रहती है। वह अलसित अवस्था में भी क्षमा नहीं मांगती, नेत्र बंद किए रहती है। (सभी स्त्रियां समागम के क्षणों में आंख बंद कर लेती हैं) निर्दय नायक जब निष्ठुर होने लगता है, तब प्रिय (पवन) को देखकर कली चौंक पड़ती है और रतिरंग में प्रिय के पास साथ तन्मय होकर खिल जाती है।
`जुही की कली' प्रकारांतर से पाठक को कबीर का स्मरण दिला सकती है। कबीर के बहुत से पद, `बहुरिया' के प्रियदर्शन, संभोग व विरह की अनुभूतियों से भरे हैं। निराला जी को देखने उनसे बात करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, इस उत्साह में डूबे हुए हम, टैगोर लायब्रेरी में निराला जी की जो भी रचनाएं उपलब्ध थीं, सभी को पढ़ गए। मुक्त छंद में लिखी हुई उनकी 'संध्या सुंदरी' शृंगारिक पृष्ठभूमि पर प्रकृति के एक नयनाभिराम दृश्यबिंब का अंकन समुपस्थित करती है।
विरहाकुल कमनीय कंठ से निकली हुई झंकार ही जैसे सुंदरी का रूप धारण कर 'संध्या' के वेष में उपस्थित हो गई है। विरह दग्ध कवि प्रकृति के सुंदर दृश्य को देखकर तादात्म्य के क्षणों में अपनी अतृप्ति का जब प्रक्षेपण करता है, तो यह रचना एकाएक प्रसाद की नवल रसगागरी की याद ताजा कर जाती है। इस कविता में चित्र को वातावरण और वातावरण को चित्रात्मक बनाकर चमकाया गया है। संध्या की रंगीनी ने परी का रूप धारण कर लिया है, वह धीरे-धीरे मेघमय आकाश से उतरती है। तिमिर आंचल में सुंदरी की मुद्रा थोड़ी गंभीर है। संध्या के समय सुंदरी के काले होते बालों में गुंथा एक तारा है, जो अभिषेक का प्रतीक है। संध्या सुंदरी, कोमल कली के समान खिली नीरवता के कंधे पर बांह डालकर छाया के समान अंबर पथ से उतर चली है। सुंदरी मादकता का वितरण करती हुई सारी सृष्टि को नीरव बने रहने का संकेत दे रही है। चुपचाप आती हुई संध्या सुंदरी के चित्र पर वातावरण की अनुकूलता की रक्षा में, गांभीर्य और नीरवता के झीने पर्दे डाल दिए गए हैं। निराला जी ने सिवाय एक तारे के, न उसके मुख के लिए कोई उपमान खोजा है, न उरोजों का न पदों का, सिर्फ चुपचुप शब्द भर गूंजता है, क्यों? क्योंकि संध्या सुंदरी जो उतर रही है। मानवीय क्रियाओं द्वारा संध्या के सौंदर्य को कवि ने सर्वसुलभ और स्वाभाविक बनाकर प्रस्तुत किया है। संध्या सुंदरी स्नेह का दान करती है और मीठे स्वप्नों को थपकी देकर सुलाने का उपक्रम भी करती सी जान पड़ती है।

ध्यातव्य है कि यहां चित्रकला काव्य की तुलना में ओछी होती या पिछड़ जाती। चित्रकार शायद ऐसा चित्र उतार भी देता, मगर धूमिल आकृति का धीरज युक्त आगमन और चुपचुप शब्द को कैसे उकेरता। चित्र की गतिहीनता और अव्यक्त को व्यक्त करने की सामर्थ्य न होने के कारण ही चित्रकला, कविकला के समक्ष दोयम दर्जे की कला मानी गई है। पढ़ते-पढ़ते लगा कि महाकवि की प्रतिभा का आकाश कितना सर्वव्यापी है। एक ओर वे तुलसीदास की रचना करते हैं और दूसरी ओर वे रविदास को संबोधित कर- हे चर्मकार / चरण छूकर / कर रहा मैं नमस्कार, जैसी पंक्तियां भी लिख सकते हैं। काव्य समारोह वाली संध्या को उनके लिए अलग कक्ष में रहने की व्यवस्था की गई थी। मेरा परिचय करवाते हुए करुणेश जी ने कहा, `ये हैं आपकी ही धरती के नवोदित रचनाकार कैलाश वाजपेयी।' निराला जी के चरण छूकर मैं उनके पैताने सकुचाया सा खड़ा रहा। उन्होंने नीचे से ऊपर तक मुझे हेरते हुए पूछा, `कहां के रहैं वाले अहियू।'
मैंने कहा गांव पिरथीखेड़ा (पृथ्वीखेड़ा)।' निराला जी ने तत्काल पूछा, `का श्रीभगवान वाजपेयी के कुल से?' मैंने कहा,`जी, उइ हमार बाबा रहिन।' `तब तो परौरीवाले उमासंकर सुकुल - कहां हुइहैं? काहे से कि श्रीभगवान वाजपेयी की बिटिया उनहीं का ब्याही रहै।' हमने कहा, `जी अपनी स्वप्ना बुआ सुकुल जी हमार फूफा का ही ब्याही हैं।' `बैसवारे के अइहु, तो तनकर खड़ा काहे नहीं होता।' मैं चुप। इसी बीच महादेवी जी भी आ गईं। उनसे भी प्रथम परिचय हुआ। बाद में तो महादेवी जी दूसरी बार राजस्थान और अंतिम बार दिल्ली में पं. नेहरू की अध्यक्षता में हुई गोष्ठी में फिर भी मिलीं। निराला जी के दर्शनों का सौभाग्य दूसरी बार न हुआ। जबकि मगरायर के आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, ऊंचागांव के डॉ. रामविलास शर्मा, दुंदपुर के ब्रजेश्वर वर्मा, रावतपुर के शिवकुमार मिश्र, राजपुरा के शिवमंगल सुमन और उन्नाव की सुमित्रा कुमारी जी से बराबर संपर्क बना रहा। 
काव्य समारोह रात दो बजे तक चला, वहां तरह-तरह की रचनाएं सुनने को मिलीं। छंद मुक्त कविताओं के विषय में निराला जी ने श्रोताओं को समझाया कि मनुष्यों की मुक्ति की तरह मुक्त छंद में कविता की भी मुक्ति होती है। मुक्त छंद में आंतरिक साम्य होता है जो उसके प्रवाह में सुरक्षित रहता है। स्वरपात और यति के प्रति सजगता के कारण मुक्ति की जो अबाध धारा प्राणों को सुख-प्रवाहसिक्त करती है वही इसका प्राण है। ऐसा कवि कर्म वही अच्छी तरह निभा पाता है, जो छंदानुमोदित काव्य की कसौटी पर स्वयं को कस चुका हो।
खड़ी बोली के अभ्युदय काल में जिस प्रकार नूतन भावनाओं ने रीतिकालीन मोहनिद्रा को भंग किया, ठीक उसी प्रकार मुक्त छंदों के विधान ने काव्य की एकरसता, संगीत की गतानुगतिकता तथा श्रुति प्रिय तुकांतता से उत्पन्न जड़ता को भी नष्ट किया। भावनाओं की मुक्ति छंदों से भी मुक्ति चाहती है। ऐसा एहसास शायद निराला जी को हो चुका था। मुक्त छंद क्या है, इस संबंध में बड़े महत्व के भ्रम हैं। केवल अतुकांतता ही मुक्त छंद की शर्त नहीं है। मुक्त छंद तो वह छंद है, जिसमें छंदशास्त्र का कोई भी नियम तो लागू न होता हो फिर भी उसमें लयात्मकता अंतर आलाप व प्रवाह अवश्य हो। वैसे इसी के साथ यह भी सच है कि छंद कविता की आयु है। 
हमने इस आलेख का जो शीर्षक दिया है वह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की देन है। जिनके सान्निध्य का सुअवसर हमें उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में यही दिल्ली में मिला था। सांसों का आना-जाना अगर होता रहा तो स्मृति के सहारे उन पर भी लिखने की बेला आएगी। उनका बोला एक वाक्य अभी भी याद है, 'आजकल जो लोग कविता को छंदहीन समझते हैं, वे कविता का बिस्मिल्ला ही गलत समझते हैं। जिस कविता में छंद नहीं है उसके कवि से कहो कि वह कुछ और धंधा ढूंढ़ ले।'







चन्द्रशेखर आजाद द्वारा लिखी कविता आज भी उनके बलिदान की गाथा कहती है।

       'मां हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज,
       तेरी बलिवेदी पर चढ़कर मां, निज शीश कटाने आज।
       मलिन वेष ये आंसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात? 
      वीर प्रसूति क्यों रोती है, जब लग खंग हमारे हाथ।
      धरा शीघ्र ही धसक जाएगी, टूट जाएंगे न झुके तार,
      विश्व कांपता रह जाएगा, होगी मां जब रण हुंकार।
      नृत्य करेगी रण प्रांगण में, फिर-फिर खंग हमारी आज,
     अरि शिर गिराकर यही कहेंगे, भारत भूमि तुम्हारी आज।
     अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में।
     हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं।।'


Wednesday, July 22, 2020

कश्मीर राग और बलूचिस्तान

(लेखक भाजपा के लोकसभा सदस्य है । आज इनका ये लेख "जनसत्ता" में दिया है)

जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से। भारतीय स्वतंत्रता से पहले जम्मू और कश्मीर मुस्लिम बहुसंख्यक रियासत थी, जिस पर हरि सिंह का शासन था। राजा और प्रजा के बीच मधुर संबंध होने के कारण राज्य में शांत माहौल था। कांग्रेस की चार नीतियों ने कश्मीर को शांत राज्य में बदल दिया। पहला, कांग्रेस ने 1919 में खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया इस आंदोलन ने मुस्लिम लीग को राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया और जिन्ना महत्त्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्ति बन गए। जिन्ना ने उत्तरार्द्ध भारत के विभाजन और 'कश्मीर समस्या' को शुरू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। दूसरा, खिलाफत आंदोलन के बाद के वर्षों में कश्मीर में कई धड़े मुसलमानों के विभिन्न वर्गों के समर्थन में उभरे। प्राथमिक गुटों में हरि सिंह, जिन्ना के नेतृत्व में मुसलिम लीग, धार्मिक नेता मीरवाइज शाह के नेतृत्व में आजाद कांफ्रेंस, और शेख के अब्दुल्ला नेतृत्व में अखिल भारतीय जम्मू कश्मीर राष्ट्रीय कांग्रेस शामिल थे। 1940 के दौरान नेहरू में 'कश्मीरियत' की भावना जागी। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला का समर्थन किया और अन्य गुटों को अलग कर दिया। तीसरा, भारत छोड़ो आंदोलन 1945 तक जम्मू कश्मीर तक पहुंच गया था। भारत के अन्य हिस्सों में आंदोलन ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, वहीं कश्मीर में आंदोलन हरि सिंह के शासन के खिलाफ था। जिन्ना ने ऐसे समय में हरि सिंह का समर्थन किया। नेहरू के प्रति अविश्वास के कारण हरि सिंह को विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने में हिचक थी। नेहरू और हरि सिंह के कड़वे रिश्तों का ही नतीजा है पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके)। अंत में, नेहरू अपने मित्र शेख अब्दुल्ला की धारा 370 और 35ए की मांग पर सहमत हुए, जो कश्मीर को एक अलग संविधान, ध्वज और राज्य का प्रमुख प्रदान करता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में सरकार धारा 370 के जरिए इस राज्य को मुख्यधारा में जोड़ने और शांति और सौहार्द से भरने में सक्षम रही है। पिछले सात दशकों से पाकिस्तान ने पीओके और बलूचिस्तान के अपने दावे को सही ठहराने के लिए लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और संगठनों से संपर्क किया है। भारत की आजादी से पहले बलूचिस्तान पर कलात के खान का शासन था। खान को जबरदस्ती बंदूक की नोंक पर कराची ले जाया गया और विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कराए गए। बलूचिस्तान राजशाही की नेशनल असेंबली के दोनों सदनों ने 12 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के खिलाफ मतदान किया। इस प्रकार से बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का कब्जा अवैध है। बलूचिस्तान ने कई मौकों पर अपने अवैध कब्जेदारों को हटाने की कोशिश की है: 1958 का युद्ध, 1962 का युद्ध, 19731977 का युद्ध, और एक अब भी लड़ा जा रहा है। भले ही बलूचिस्तान पाकिस्तान के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले खनिजों वाला एक खनिज समृद्ध राज्य है, लेकिन बलूची लोग सबसे अधिक निरक्षर हैं। बलूचिस्तान पाकिस्तान का आधा भूभाग है। समय आ गया है कि बलूचिस्तान में राष्ट्रवादी समूहों- बलूचिस्तान नेशनल पार्टी, नेशनल पार्टी, जम्हूरी वतन पार्टी, बलूच हक तलवार, पश्तून खावा मिली अवामी पार्टी और बलूचिस्तान छात्र संगठन बलूचिस्तान को को समर्थन दिया जाए। बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के दक्षिण-एशिया में महत्त्वपूर्ण परिणाम होंगे क्षेत्र में चीन की आक्रामकता घटेगी, पाकिस्तान कमजोर होगा, तालिबान से प्रभावी रूप से लड़ा जा सकेगा, और ईरान और भारत के बीच तेल पाइपलाइन को पूरा किया जाएगा। वर्तमान में चीन, बलूचिस्तान के तटीय क्षेत्र का सैन्यीकरण कर रहा है, ताकि भारत पर बेहतर पकड़ बन सके। यदि भारत ने बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के कारणों का समर्थन करने का फैसला किया, तो नैतिक रूप से यह निर्णय सही होगा।

समझना होगा संघ को

( प्रभात झा भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व सांसद है। आज उनका ये लेख संघ को लेकर "जनसत्ता" में छपा है)

हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 'वर्तमान परिदृश्य और हमारी भूमिका' विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि कोरोना से पूरी दुनिया  जूझ रही है। जीवन तो चल रहा है। स्वयंसेवकों को लगता होगा कि शाखा बंद है, नित्य कार्यक्रम बंद है। लेकिन ऐसा नहीं है। शाखा भी लग रही है और संघ का काम भी चल रहा है। बस उसका स्वरुप बदल गया है। संघ प्रमुख के इन विचारों को लेकर विश्लेषण और मेरे कुछ विपक्षी दलों के राजनीतिक मित्र हतप्रभ हैं कि ऐसी क्या बात है संघ में कि यह संगठन किसी भी परिस्थिति में सक्रिय बना रहता है। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सन 1925 को जब विजयादशमी के दिन नागपुर में पहली शाखा शुरू की, तो उपस्थित स्वयंसेवकों ने कहा कि आप संघ के गुरु बन जाइये। इस पर हेडगेवार ने कहा कि हम सबका गुरु व्यक्ति नहीं, परम पवित्र भगवा ध्वज होगा। यहीं से संदेश चला गया कि संघ व्यक्ति आधारित नहीं, बल्कि विचार आधारित सांस्कृतिक संगठन बनेगा और विश्व में हिंदू संस्कृति की विजयपताका फहराएगा। आज स्थिति यह है कि देश में मनुष्य को परिवार में मिलने वाले संस्कारों के अलावा राष्ट्रीय संस्कार का शिक्षण कहीं दिया जा रहा है। संघ का प्रमुख उद्देश्य है चरित्र निर्माण करना और मनुष्य को संस्कारवान बनाना। ही नहीं, आज बाल्यकाल से बच्चे अपनी भारतीय संस्कृति में पले-पढ़ें, अध्ययन करें, इसके लिए संघ की प्रेरणा से विद्या भारती के मार्गदर्शन में देशभर में लाखों विद्यार्थी सरस्वती शिशु मंदिर के माध्यम से अध्ययन करते हैं। तरुण विद्यार्थियों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद है। मजदूरों, कर्मचारियों के बीच, शिक्षकों के बीच काम करने के लिए भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की गई थी। ये सभी संगठन संघ की प्रेरणा, लेकिन अपनी योजना से काम करते हैं। संघ को कोई भी दूर से नहीं समझ सकता। जैसे आंख होते हुए भी लोग कान से राजनीति करते हैं और धोखा खा जाते हैं, वैसे ही संघ को देख कर ही संघ को समझा जा सकता है। संघ के बारे में सुन कर आश्चर्य ही प्रकट कर सकते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित अगर अभी की बात करें तो भारत रत्न डॉ. प्रणव मुखर्जी ने भी संघ को जब करीब से देखा-समझा तो उनका मन बदला। संघ के कार्य की नींव में आपसी विश्वसनीयता, आत्मीयता, मानवता और भारतीयता के साथ सबसे बड़ी बात है कि स्वयंसेवक जैसे देश की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानता है, वैसे ही स्वयंसेवक पर आई पीड़ा को भी अपने परिवार की पीड़ा मानता है और उसे दूर करने में तन-मन-धन से लग जाता है। संघ का कार्य अपेक्षा के बीज पर खड़ा नहीं हुआ है। स्वयंसेवक के रूप में देखें तो अटल बिहारी वाजपेयी पहले स्वयंसेवक थे, जो देश के प्रधानमंत्री बने और लालकृष्ण आडवाणी उप प्रधानमंत्री बने। आज तो देश की जनता ने स्थिति ही बदल दी है। देश में संघ के स्वयंसेवक के नाते भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भी पूर्व में प्रचारक रहे। संघ जड़ नहीं है, बल्कि प्रवाहमान संगठन है। संघ के जितने भी अनुषांगिक संगठन हैं, उनमें सभी संगठन आज भारत में शीर्ष के संगठन हैं। संघ का कार्य वैश्विक स्तर पर भी है। विश्व के अनेक राष्ट्रों में शाखा लगती है। राष्ट्रीय सेविका समिति देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए सबसे बड़ी महिला संस्था है। संघ ऐसा सांस्कृतिक संगठन है जो संघ के स्वयंसेवकों की 'गुरु दक्षिणा' से चलता है। संघ में प्रचारक नाम की एक अद्भुत व्यवस्था है। संघ के कार्य का सबसे मजबूत नैतिक आधार प्रचारक ही होता है। सरल, सामान्य, नैतिकता, प्रामाणिकता और संवेदनशीलता से जुड़ कर मानवता भाव से वह सहज ही संघ का कार्य करता है। संघ नूतनता को आमंत्रित भी करता है और पुरातनता को सम्मान भी देता है।

Tuesday, July 21, 2020

500 अरब डॉलर का हुआ विदेशी मुद्रा भंडार

                  _ शिवम कुमार पाण्डेय

पिछले महीने यानी 12 जून को देश का विदेशी मुद्रा का भंडार पहली बार 500 अरब डॉलर के पार पहुँचा। एक बात यह भी देखने वाली है कि भारत समेत दुनिया के सिर्फ पांच देशों के पास 500 अरब डॉलर से अधिक का विदेशी भंडार है। जापान 1,378 अरब डॉलर के साथ दूसरे, स्विट्जरलैंड 848 अरब डॉलर के साथ तीसरे और रूस 565 अरब डॉलर के साथ चौथे जबकि भारत  साथ पांचवे स्थान पर है।
देश का विदेशी मुद्रा भंडार 2002 में पहली बार 50 अरब डॉलर पर पहुँचा था दिसंबर 2003 में यह पहली बार एक सौ अरब डॉलर, अप्रैल 2007 में दो सौ अरब डॉलर और फरवरी 2008 में तीन सौ अरब डॉलर पर पहुंच गया।
वैश्विक आर्थिक मंदी के दबाव में नवंबर 2008 तक एक बार फिर घटक विदेशी मुद्रा भंडार 245 अरब डॉलर रह गया। यहाँ से दुबारा तीन सौ अरब डॉलर पर पहुँचने में सवा दो वर्ष का समय लगा। फरवरी 2011 में दुबारा यह तीन सौ अरब डॉलर पर पहुँचा। सितंबर 2017 में विदेशी मुद्रा भंडार पहली बार चार सौ अरब डॉलर के स्तर पर और 05 जून 2020 को समाप्त सप्ताह में पाँच सौ अरब डॉलर पर पहुँचने में कामयाब रहा।
रिजर्व बैंक के अनुसार, 05 जून को समाप्त सप्ताह में विदेशी मुद्रा भंडार के सबसे बड़े घटक विदेशी मुद्रा परिसंपत्ति में 8.42 अरब डॉलर की वृद्धि हुई और सप्ताहांत पर यह 463.63 अरब डॉलर पर रहा। इस दौरान स्वर्ण भंडार 32.90 करोड़ डॉलर घटकर 32.35 अरब डॉलर रह गया। आलोच्य सप्ताह में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास आरक्षित निधि 12 करोड़ डॉलर बढ़कर 4.28 अरब डॉलर पर और विशेष आहरण अधिकार एक करोड़ डॉलर बढ़कर 1.44 अरब डॉलर पर पहुँच गया।
अभी वर्तमान में देखे तो कोरोना काल में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था मजबूत बनी हुई है। मोदी सरकार की नीतियों के कारण भारत का विदेशी का मुद्रा भंडार 10 जुलाई को समाप्त सप्ताह के दौरान 3.11 अरब डॉलर बढ़कर 516.36 अरब डॉलर के अब तक के सबसे ऊपरी स्तर पर पहुंच गया है।

(ये 9 नवंबर 2019 की खबर है। राष्ट्रीय सहारा अखबार  की कटिंग..।)

ये वाली ख़बर 5 मई 2013 को छपी थी। आप देख सकते है कि कैसे 2011 में 300 अरब डॉलर तक विदेशी मुद्रा भंडार पहुंचा था पर ये आंकड़ा खिसकर कम ही होता गया।

(स्रोत:- राष्ट्रीय सहारा)


Monday, July 20, 2020

दुरुस्त हो योगी की सुरक्षा

लेखक:- विनीत नारायण

मौत तो किसी की भी, कहीं भी और कभी भी आ मुतती है। पर इसका मतलब ये नहीं कि शेर के मंह में हाथ दे दिया जाए। भगवान श्रीकृष्ण गीता दसवें अध्याय में अर्जुन से कहते हैं

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
 ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
 अर्जुन मैं ही सबको बुद्धि देता हूं।
जिसका प्रयोग हमें करना चाहिए, इसलिए जान बूझकर किसी की जिंदगी से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के युवा एवं सशक्त मुख्यमंत्री की जिंदगी से। बहुत पुरानी बात नहीं है जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माधवराव सिंधिया, लोक सभा के स्पीकर रहे बालयोगी, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रेड्डी और 1980 में संजय गांधी विमान हादसे में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए। चिंता की बात यह है कि ये दुर्घटनाएं खराब मौसम के कारण नहीं हुई थी। बल्कि ये दुर्घटनाएं विमान चालकों की गलतियों से या विमान में खराबी से हुई थीं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री की आयु मात्र 48 वर्ष है। अभी उन्हें राजनीति में और भी बहुत मंजिलें हासिल करती हैं। बावजूद इसके उन्हें दी जा रही सरकारी वाण सेवा में इतनी लापरवाही बरती जा रही है आश्चर्य है कि अभी तक वे किसी हादसे के शिकार नहीं हुए? शायद ये उनकी साधना और तप का बल है, वरना उत्तर प्रदेश के उड्डयन विभाग व केंद्र सरकार के नागरिक विमानन निदेशालय ने योगी जी जिंदगी से खिलवाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी कॉलम में दो हफ्ते पहले हम उत्तर प्रदेश सरकार की नागरिक उड्डयन सेवाओं के ऑपरेशन मैनेजर के कुछ काले कारनामों का जिक्र कर चुके हैं। दिल्ली के कालचक्र ब्यूरो के शोर मचाने के बाद कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा नाम के इस ऑपरेशन मैनेजर का प्रवेश किसी भी हवाई अड्डे पर वर्जित हो गया है। जहाज उड़ाने का उसका लाइसेंस भी फिलहाल डीजीसीए से सस्पेंड हो गया है। मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर उसका प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। प्रवर्तन निदेशालय भी उसकी अकूत दौलत और 200 से भी अधिक फर्जी कम्पनियों पर निगाह रखे हुए है। पर उसके कृत्यों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्रवाई है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताकतवर मंत्री और अफसर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जाते थे, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि प्रज्ञेश मिश्रा की ईमानदार जांच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के किले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जांच होने देंगे? जबकि योगी जी हर जनसभा में कहते हैं कि वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करते? जैसे आज तक ये लोग योगी जी को गुमराह करके कैप्टन मिश्रा को पलकों पर बिठाये थे और इसकी कम्पनियों में अपनी काली कमाई लगा रहे थे, वैसे ही आज भी योगी जी को बहका रहे हैं कि 'हमने मीडिया मैनेज कर लिया है अब कोई चिंता की बात नहीं।' पर शायद उन्हें ये नहीं पता कि आपराधिक गतिविधियों के सबत कुछ समय के लिए ही दबाये जा सकते हैं, पर हमेशा के लिए नष्ट नहीं किए जा सकते। अगर चुनाव के समय या अन्य किसी खास मौके पर ये सब सब जनता के सामने आकर बड़ा बवाल खड़ा कर सकते हैं, जिसकी फिक्र योगी जी को ही करनी होगी। हवाई जहाज उड़ाने की एक शर्त ये होती है कि हर पाइलट और क्रू मेम्बर को हर वर्ष अपनी सेफ्टी एंड इमरजेंसी प्रोसीजर्स ट्रेनिंग एंड बुकिंग करवानी होती है, जिससे हवाई जहाज चलाने और उड़ान के समय उसकी व्यवस्था करने वाला हर व्यक्ति किसी भी आपात स्थिति के लिए चौकन्ना और प्रशिक्षित रहे। ऐसा "नागर विमानन महानिदेशालय' की नियमावली 9.4, डीजीसीए सीएआर सेक्शन 8 सिरीज एफ पार्ट 7 में स्पष्ट लिखा है। योगी जी के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा बिना इस नियम का पालन किए बी 200 जहाज धड़ल्ले से उड़ता रहा है। ऐसा उल्लंघन केवल खुद प्रज्ञेश मिश्रा ही नहीं बल्कि अपरेशन मैनेजर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के दो अन्य पाइलटों से भी करवाता रहा है और इस तरह मुख्यमंत्री व अन्य अतिविशिष्ट व्यक्तियों की जिंदगी को खतरे में डालता रहा है। आश्चर्य है कि डीजीसीए के अधिकारी भी इतने संगीन उल्लंघन पर चुप बैठे रहे? जाहिर है कि यह चुप्पी बिना कीमत दिए तो खरीदी नहीं जा सकती। इसका प्रमाण है कि 30 दिसम्बर 2019 को डीजीसीए की जो टीम जांच करने लखनऊ गई थी। उसने मिश्रा व अन्य पायलटों के इस गम्भीर उल्लंघन को जान-बूझकर अनदेखा किया।
क्या डीजीसीए के मौजूदा निदेशक अरुण कुमार को अपनी इस टीम से इस लापरवाही या भ्रष्टाचार पर ये जवाब-तलब नहीं करना चाहिए? इसी तरह हर पायलट को अपना मेडिकल लाइसेंस का भी हर वर्ष नवीनीकरण करवाना होता है, जिससे अगर उसके शरीर, शिष्टता निर्णय लेने की क्षमता में कोई गिरावट आई हो तो उसे जहाज उड़ाने से रोका जा सकता है। पर कैप्टन मिश्रा बिना मेडिकल लाइसेंस के नवीनीकरण के बी-200 जहाज धड़ल्ले से उड़ता रहा। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि कोई पाइलट हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज दोनों नहीं उड़ा सकता। क्योंकि दोनों की एरोडायनामिक्स अलग-अलग हैं। पर प्रज्ञेश मिश्रा इस नियम की भी धज्जियां उड़ा कर दोनों किस्म के वीआईपी जहाज और हेलीकॉप्टर उड़ाता रहा है, जिससे मुख्यमंत्री उसके कब्जे में ही रहे और वो इसका फायदा उठाकर अपनी अवैध कमाई का मायाजाल लगातार बढ़ाता रहे।
नई दिल्ली के खोजी पत्रकार रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की 200 से भी अधिक फर्जी कम्पनियों में से 28 कम्पनियों और उनके संदेहास्पद निवेशकों के नाम सोशल मीडिया पर उजागर कर दिए हैं और योगी जी से इनकी जांच कराने की अपील कई बार की है। इस आश्वासन के साथ, कि अगर यह जांच ईमानदारी से होती है तो कालचक्र ब्यूरो उत्तर प्रदेश शासन को इस महाघोटाले से जुड़े और सैकड़ों दस्तावेज भी देगा। आश्चर्य है कि योगी महाराज ने अभी तक इस पर कोई सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की? लगता है कैप्टन मिश्रा के संरक्षक उत्तर प्रदेश शासन के कई वरिष्ठ अधिकारी योगी महाराज को इस मामले में अभी भी गुमराह कर रहे हैं। 1990 में एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा था कि, नौकरशाही घोड़े के समान होती है; और अपनी ताकत से उसे जिधर चाहे मोड़ सकता है। पर यहां तो उल्टा ही नजारा देखने को मिल रहा है। देखें आगे क्या होता है ?

( संपादकीय ,राष्ट्रीय सहारा )

इंकलाब ज़िन्दाबाद क्या है?

लाहौर के स्पेशल मजिस्ट्रेट की अदालत में "इंकलाब ज़िन्दाबाद" नारा लगाने के जुर्म में छात्रों की गिरफ्तारी के खिलाफ़ गुजराँवाला में नौजवान भारत सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया। 'मॉडर्न रिव्यू के सम्पादक रामानंद चट्टोपाध्याय ने इस खबर के आधार पर "इंकलाब जिन्दाबाद" के नारे की आलोचना की। भगतसिंह और बी.के. दत्त ने 'मॉडर्न रिव्यू' के सम्पादक को उनके उस सम्पादकीय का निम्नलिखित उत्तर दिया था।

सम्पादक महोदय, 
मॉडर्न रिव्यू। 

आपने अपने सम्मानित पत्र के दिसम्बर, 1929 के अंक में एक टिप्पणी 'इन्कलाब जिन्दाबाद' शीर्षक से लिखी है और इस नारे को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की है। आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशस्वी सम्पादक की रचना में दोष निकालना तथा उसका प्रतिवाद करना, जिसे प्रत्येक भारतीय सम्मान की दृष्टि से देखता है, हमारे लिए एक बड़ी धृष्टता होगी तो भी इस प्रश्न का उत्तर देना हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं कि इस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है। यह आवश्यक है, क्योंकि इस देश में इस समय इस नारे को सब लोगों तक पहुँचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है। इस नारे की रचना हमने नहीं की है। यही नारा रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्रयोग किया गया है। प्रसिद्ध समाजवादी लेखक अप्टन सिंक्लेयर ने अपने उपन्यासों 'बोस्टन' और 'आईल' में यही नारा कुछ अराजकतावादी क्रान्तिकारी पात्रों के मुख से प्रयोग कराया है। इसका अर्थ क्या है? इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सशस्त्र संघर्ष सदैव जारी रहे और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिए भी स्थायी न रह सके, दूसरे शब्दों में देश और समाज में अराजकता फैली रहे।
दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है, जो सम्भव है भाषा के नियमों एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध न हो पाये, परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारों को पृथक नहीं किया जा सकता जो इसके साथ जुड़े हुए हैं ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीकृत अर्थ के द्योतक हैं, जो एक सीमा तक उनमें उत्पन्न हो गये हैं तथा एक सीमा तक उनमें निहित हैं। उदाहरण के लिए हम यतीन्द्रनाथ जिन्दाबाद का नारा लगाते हैं। इससे हमारा तात्पर्य यह होता है कि उनके जीवन के महान आदों तथा उस अथक उत्साह को सदा-सदा के लिए बनाये रखें, जिसने इस महानतम बलिदानी को उस आदर्श के लिए अकथनीय कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी। यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शों के लिए ऐसे ही अचूक उत्साह को अपनायें। यही वह भावना है, जिसकी हम प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार हमें 'इन्कलाब' शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए। इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगों के हितों के आधार पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न विशेषताएँ जोड़ी जाती हैं। क्रान्तिकारियों की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है हमने इस बात को ट्व्यूनल के सम्मुख अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का प्रयास किया था। इस वक्तव्य में हमने कहा था कि क्रान्ति (इंकलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता। बम और पिस्तौल कभी-कभी क्रान्ति को सफल बनाने के साधन-मात्र हो सकते हैं। इसमें भी सन्देह नहीं है कि कुछ आन्दोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं, परन्तु कंवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रान्ति के पर्यायवाची नहीं हो जाते। विद्रोह को क्रान्ति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि यह हो सकता कि विद्रोह का अन्तिम परिणाम क्रान्ति हो। इस वाक्य में क्रान्ति शब्द का अर्थ 'प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा' है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार-मात्र से ही काँपने लगते हैं। यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर कान्तिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियों मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं ये परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं। क्रान्ति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थायी तौर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए, जिससे कि रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सके यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको हृदय में रखकर हम 'इन्कलाब जिन्दाबाद' का नारा ऊँचा करते हैं।

22 दिसम्बर, 1929

भगत सिंह - बी.के. दत्त

Sunday, July 19, 2020

आतंक के असली अर्थ

अपने समय की विचारधारात्मक बहस में हिस्सा लेते हुए भगतसिंह और उनके साथियों ने 'आतंक' शब्द के अर्थ समझने की कोशिश की। मई, 1928 के 'किरती' में यह लेख इसी विषय पर छपा जो बम्बई के अखबार 'श्रद्धानन्द' से अनूदित था तथा भगतसिंह और उनके साथियों के उस समय के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है।

पिछले सात-आठ सालों में जिन कुछ शब्दों ने हमारे राजनीतिक जीवन में तूफान खडा किया है और जिनके बारे में बहुत लोगों को गलतफहमी रही है उनमें सबसे जरूरी शब्द 'आतंक' है। अब तक किसी ने भी गहन विचार कर इस शब्द के अर्थ समझने के यत्न नहीं किए इसीलिए आज तक इस शब्द का गलत इस्तेमाल होता रहा है। पूरी कौम अपने लक्ष्य को ठीक न समझ पाने के कारण दिन को रात और रात को दिन समझती हुई ठोकरें खा रही है। आतंक पर बोलते ही अनुभव होने लगता है कि वह त्याज्य और बुरा शब्द है। सुनते ही यह विचार पैदा होता है कि वह दुख देने वाला अत्याचारी, जोर-जबरदस्ती और अन्यायपूर्ण है। जिस काम के साथ 'आतंक' शब्द लग जाये वही काम पलीत, हानिकर और त्याज्य लगने लगता है। इस हालत में कोई शरीफ़ और नेकदिल इन्सान इससे हमेशा के लिए परे रहने का यत्न करे तो यह एक स्वाभाविक बात है। आतंक और जुल्म से आशय ताकत का अयोग्य ढंग से प्रयोग है। इन दोनों शब्दों से ताकत के इस्तेमाल की बू तो आती है, लेकिन ताकत के इस्तेमाल की एक सीमा है। उसी सीमा का ख्याल न रखते हुए कुछ हंगामाबाज़ लोगों ने 'आतंक' नाम दे दिया है और हिन्दी भाषा में इसकी तुलना में 'अहिंसा' शब्द ठोंक दिया गया है। इसी कारण आज एक बड़ी ख़तरनाक गलतफ़हमी फैली हुई है।

आतंक में ताकृत का इस्तेमाल भी होता है। इसलिए कुछ घटिया दिमाग वालों ने ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम दे डाला। किसी आदमी को बुरे काम से रोकने के लिए यही कह देना काफ़ी होता है कि वह काम बहुत बुरा और घृणित है। ऐसे ही शब्दों में आतंक भी एक है। कांग्रेस के आदेशानुसार हज़ारों इन्सान बिना किसी न-नकार के शान्ति की कसमें उठाते चले गये। बात तो ठीक थी। आतंक का अर्थ जुल्म और जबरदस्ती करना है। ऐसा बुरा काम न करने की कसम खाने में किसी को क्या उज़ हो सकता है, लेकिन असली बात यह है कि जुल्म को नहीं, बल्कि ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम देकर लोगों में गलतफ़हमी फैला दी गयी है। बहुत-से लोग जोकि ताकृत के इस्तेमाल के हक़ में थे, वे आतंक का पक्ष लेने की हिम्मत न दिखा सके और उन्होंने भी चुपचाप शान्तिपूर्ण (आन्दोलन) के पक्ष में होने की कसम उठा ली। इसीलिए अहिंसा(Non- violence) जैसे शब्दों ने बहुत गड़बड़ी मचा दी हजारों ही काम जो आज तक न सिर्फ जायज़, बल्कि अच्छे माने जाते थे, वह पलक झपकने में ही घृणित माने जाने लगे। वीरता, हिम्मत, शहादत, बलिदान, सैनिक-कर्तव्य, शस्त्र चलाने की योग्यता, दिलेरी और अत्याचारियों का सर कुचलने वाली बहादुरी आदि गुण बल-प्रयोग पर निर्भर थे। अब ये गुण अयोग्यता और नीचता समझ जाने लगे! आतंक शब्द के इन भ्रामक अर्थों ने कौम की समझ पर पानी फेर दिया। नौबत यहाँ तक पहुँची कि हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में मान लिया गया और लाठी पकड़ने तक को आतंक माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाये?

किसी भी शब्द के सुनते ही हर इन्सान के दिल में एक विचित्र ढंग की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं और उसके बाद झटपट एक प्रकार के अर्थ समझ चुकने के कारण इन्सान उसकी तह तक जाने के लिए अधिक दिमाग नहीं लड़ाता। किसी अजनबी इन्सान के आते ही यदि यह कह दिया जाये कि वह बड़ा पापी है, लुच्चा है, तो सुनने वाले के दिल में उसके खिलाफ़ स्वभावत: ही एक तरह के घृणित ख्याल उत्पन्न हो जाते हैं। उस आदमी के सम्बन्ध में अधिक जाँच किये बगैर ही राय बना ली जाती है इसी तरह शब्दों के प्रयोग सम्बन्धी मामले में कहा जा सकता है। वेदों और पुराणों में इस बात पर जोर दिया गया है कि जो भी शब्द बोले जायें, उनका सही प्रयोग होना चाहिए, क्योंकि शाब्दिक भ्रम से देवताओं तक में बड़े-बड़े दंगे हो गये थे और बड़ा भारी नुक्सान हो गया था। ठीक वही दशा पिछले सात साल से हमारी हो रही है। ताकृत के योग्य और अयोग्य इस्तेमाल को बिना किसी जांच-विचार के फौरन आतंक का फतवा देकर घृणित होने की घोषणा कर दी गयी है। यदि कोई डाकू कुल्हाड़ी लेकर किसी के घर में आ घुसे तो उसे आतंक (की कार्यवाही) कहा गया, लेकिन यदि घरवालों ने छुरी का इस्तेमाल कर डाकू को मार डाला तो उसे भी आतंक (का काम) माना गया अर्थात जब अपने और अपने परिवार की रक्षा के लिए ताकत का योग्य और नेक इरादों से इस्तेमाल किया गया तब भी उसे आतंक ही कहा गया। रावण जोर- जबरदस्ती सीता को उठा ले गया तो वह आतंक। और सीता को छुड़ाने गये राम ने रावण का सिर काट दिया तो वह भी आतंक! इटली, अमेरिका, आयरलैण्ड आदि देशों पर कई प्रकार के जुल्म करने वाले अत्याचारी भी आतंक फैलाने वाले समझे गये और नंगी तलवार पकड़े इन विदेशी डकैतों का छिपी हुई शमशीर से इलाज करने वालों को भी आतंक (फैलाने वाले) की उपाधि दी जाती है। गैरीबाल्डी, वाशिंगटन, एमट और डी वलेरा आदि सभी इसी सूची में डाल दिये गये। क्या इसे इन्साफ कहा जा सकता है? आभूषण चुराने के लिए मासूम बच्चे की गरदन काट देने वाला चोर भी घृणित और उस पत्थर-दिल चोर को फांसी पर लटका देने वाला न्यायकारी सम्राट भी आतंककारी और घृणित! कृष्ण भी उतना ही पापी, जितना कंस! शूरवीर भीम भी उतना ही गुनहगार, जितना कि उसकी धर्मात्मा पत्नी का अपमान करने वाला दुःशासन! आह! कितनी गलतफहमी है। कितना बड़ा अन्याय है। इसीलिए कुछ सीधे-सादे लोगों ने अच्छे कामों को भी केवल बल-प्रयोग के कारण अयोग्य और आतंकवादी कह दिया। साँप डसता है, आदमी उसे मार डालता है। पर दोनों बराबर-बराबर नहीं। बसना तो सांप की आदत थी और वह इस आदत से मजबूर था, लेकिन इन्सान ने यह काम जानबूझकर किया, इसलिए उसे अधिक नीच समझा जाना चाहिए !

नौबत यहाँ तक पहुँची कि देश और कौम के लिए सशस्त्र हो मैदाने-जंग में शहीद हो जाने वाले बहादुर भी पापी समझे जाने लगे। शिवाजी, राणा प्रताप और रणजीत सिंह जी को आतंक फैलाने वाले कहा गया और वे पूजनीय व्यक्तित्व भी घृणा का शिकार हो गये। उधर दुनिया के सारे देश शस्त्रधारी हैं। प्रत्येक अपने हथियारों की ताकृत को बढ़ाता चला जा रहा है। इधर हमारा यह भारतवर्ष है, जिसमें रहने वालों का शस्त्र पकड़ना पाप समझा जाता है। 'लाठी मत पकड़ो' यह शिक्षा देने वाले लाठी देखते ही डरपोक और कायर लोगों की पीठ ठोंकने लगे। देश को गिरी हुई अवस्था से उठाकर उन्नति के रास्ते पर खड़ा करने वाली शूर-वीरता मटियामेट होने लगी और ताकत से डरने वाले दुश्मन राजी-खुशी दिखायी देने लगे। कुछ बिरले ही लोग थे जो यह दुखद स्थिति न देख सके और उन्होंने इसका खण्डन करना शुरू कर दिया। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वे स्वयं भी इस गड़बड़ी का शिकार हो गये और ठोस तों से विरोध प्रकट करना उनके लिए कठिन हो गया। बस इसी से युग पलटने वाले लोगों ने चिढ़कर यह कहना शुरू कर दिया हाँ, हाँ, हम आतंक फैलायेंगे, हम Violence ही करेंगे! जैसे कोई शरीफ आदमी अपने अच्छे काम को गुनाह ठहराये जाते देखकर और फिर तर्कसम्मत उत्तर न दे पाने के कारण हड़बड़ाकर यही कहना शुरू कर दे स्थिति इन बेचारे युग पलटने वालों की हो रही है। मद्रास कांग्रेस के अध्यक्ष तक ने यह कह दिया कि आज यदि हम शांतिपूर्ण (तरीके) के पक्षधर हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि हम हमेशा ऐसे ही रहेंगे। हो सकता है कि हमें कल ही आतंक (Violence) के लिए तैयार होना पड़े। दुख तो इस बात का है कि यह 'आतंक' शब्द घृणित है। यह अपने गुणों व ठीक अर्थों में व्याख्यायित न होने के कारण दूसरों को अपने पक्ष में नहीं कर सका भी हैं, वे भी जालिम या आतंकवादी कहलवाना पसन्द नहीं कर सकते इस एक शब्द 'आतंक' के अर्थों के अनर्थ होने के कारण ही कितना भारी नुकसान हो रहा है।
अर्थात वे लोग जोकि बल-प्रयोग के पक्ष में पूरी गलतफहमी की जड़ तो इस एक शब्द 'आतंक' की गुलत व्याख्या है। क्योंकि आतंक व जुल्म भी बल-प्रयोग से ही होते हैं, इसलिए बल-प्रयोग से बहुत सारे अच्छे व बुरे काम होते हैं। जुल्म इनमें से एक है एक पुरुष चोरी से किसी के घर में आग लगाता है, वह भी आग लगाने वाला है और दूसरी ओर रसोइया भी आग जलाता है, लेकिन रसोइया अपराधी नहीं कहला सकता और न ही आग लगाने का काम बुरा कहा जा सकता है। इसी तरह अपने देश की रक्षा के लिए या देश की आजादी की प्राप्ति के लिए शस्त्र लेकर मैदान में उतरने वाला देशभक्त जब जालिम और बलशाली की गरदन तलवार से उतार देता है या ज़ालिम से किसी मज़लूम का बदला लेता हुआ फाँसी पर चढ़ जाता है, वह या कोई और शूरवीर, जोकि अपने सगे-सम्बन्धियों, अपनी पत्नी या घर-बार की रक्षा के लिए हथियार लेकर लुच्चे जालिमों का मुकाबला करने के लिए निकलता है, वह बल-प्रयोग तो ज़रूर करता है, लेकिन आतंक नहीं फैलाता, अर्थात इनके किये काम, आतंक के कामों में नहीं गिने जा सकते, बल्कि वे अच्छे और नेक कहे जाते हैं। वह बल-प्रयोग जिससे निर्दोषों को बिना किसी कारण से सताया जाये या दूसरों को किसी नीच इच्छा से नुकसान पहुँचाया जाये, केवल ऐसे ही बेहूदा कामों के लिए (किये गये) बल-प्रयोग को आतंक कहा जा सकता है, लेकिन जब इसी ताकत को किसी गरीब अनाथ की मदद के लिए या ऐसे ही किसी और काम के लिए इस्तेमाल किया जाये तो वह आतंक नहीं, बल्कि पुण्य और परोपकार कहलाता है। या फिर इससे सिद्ध हुआ कि बल-प्रयोग करना कोई जुल्म, अत्याचार या आतंक नहीं, बल्कि यह बल-प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भर रहता है। यदि उसने किसी भले व नेक काम के लिए बल-प्रयोग किया है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दुख देने की खातिर अपने बल का गलत प्रयोग किया है तो उसे नि:संदेह, निर्भय होकर 'आतंकवादी' कहा जा सकता है। आतंक हमेशा ही घृणा योग्य है। आतंक ताकृत का ऐसा इस्तेमाल है, जिससे बिना अपराध के किसी को दुख दिया जाये। लेकिन जहाँ जालिमों और गुण्डों की गुण्डई रोकने के लिए बल-प्रयोग किया जाये, वह आतंक नहीं बल्कि अच्छा व भला काम होता है, क्योंकि दुनिया के अच्छे कामों की परख की एक ही कसौटी है।
 यह कि वे काम दुनिया को सुख व आराम देने वाले हों । किसी को दुख देना आतंक है, लेकिन दुख देने वाले मालिक का खुरा-खोज मिटाना पुण्य है जालिम कंस जब जुल्म की तलवार पकड़ देवकी के घर में जा घुसता है, उसका उस समय का काम घृणित आतंक है, लेकिन जब इसी जालिम के पंजे से जनता को छुटकारा दिलाने के लिए श्रीकृष्ण तलवार लेकर उसके दरबार में घुस जाते हैं और तलवार से उसका सिर गरदन से अलग कर देते हैं, उस समय की उनकी यह कार्रवाई अभिनन्दनीय है। दोनों तलवारें हैं, दोनों हथियार हैं, दोनों कामों में बल-प्रयोग किया गया है, लेकिन एक काम जुल्मों से भरा है, इसलिए उसे आतंक कहा जायेगा और दूसरा काम नेक है, वह एक जालिम और अत्याचारी की हस्ती को, गलत अक्षर की तरह, मिटाकर लोगों पर परोपकार करना है, इसलिए वह नेक काम सम्माननीय है। पर यदि हमारी मौजूदा फिलॉसफी के हिसाब से देखा जाये तो दोनों ही काम आतंककारी और घृणित हैं। लोगों को दुख देने वाला जालिम भी आतंककारी, और लोगों को ज़ालिम के पंजे से छुटकारा दिलाने वाला भी आतंककारी! यदि हमारे देश में यही स्थिति रही तो अच्छे-बुरे की पहचान कैसे होगी और सम्माननीय कामों और घृणित कामों के पार्क का कैसे पता चलेगा?

यदि इतना जान लिया जाये कि ताकत का गलत इस्तेमाल अर्थात गरीबों, अनाथों को सताना आतंक कहलाता है और इन सबको रोकना अच्छे काम समझा जाता है तो सारे भ्रम दूर हो सकते हैं। चोर, डाकू और हत्यारे जब हथियारों का इस्तेमाल करते हैं तो वे आतंक करते हैं (That force being aggressively used become violence). लेकिन जब घर का मालिक समय पाकर उस डाकू या हत्यारे की छाती में छुरी घोंप देता है या उस डाकू को कोई न्यायप्रिय शासक फाँसी की सजा देता है तो वह अच्छा काम होता है। इसीलिए हिन्दू धर्मशास्त्र के कर्ता मनु जी लिखते हैं जालिम, हत्यारे, अपराधी को खुफ़िया ढंग से या खुले मैदान चुनौती देकर या किसी और ढंग से छापा मारकर जान से मार डालने वाले दिलेर इन्सान पापी या गुनाहगार नहीं, बल्कि सम्माननीय इन्सान कहलाता है। पुराने से पुराने और नये से नये कानून के अनुसार आत्मरक्षा में किये बल-प्रयोग को कभी भी आतंक के नाम से नहीं पुकारा गया। यहाँ तक कि हिन्दू दण्ड-विधान में भी उसे आतंक (Violence) नहीं कहा गया। आतंक फैलाना दण्डनीय है, लेकिन आत्मरक्षा में बल-प्रयोग कानूनी ताकत समझी जाती है। ठीक वही बात राजनीति की है। इटली पर इस देश की इच्छा के विरुद्ध आस्ट्रिया सिर्फ तलवार के जोर से राज करता था, इसलिए इटली को जबरदस्ती अधीन रखने का उसका काम आतंक था, घृणित था और खत्म करने योग्य था। लेकिन जब गैरीबाल्डी और मैजिनी ने इसके खिलाफ तलवार उठायी और उस जालिम बादशाहत को उलटा दिया तब उनका यह काम घृणा लायक नहीं, बल्कि पूजनीय माना गया। ठीक यही बात हम 1857 में हिन्दुस्तान की आजादी के लिए लड़ी लड़ाई के सम्बन्ध में कह सकते हैं, क्योंकि वह हमारे पहले बताये अनुसार जुल्म या आतंक नहीं था। इस लेख से यह अर्थ निकालना कि हम एक हथियारबन्द बगावत करने की प्रेरणा दे रहे हैं, बिल्कुल झूठ और बेकार होगा। आज हम हथियारबन्द बगावत करने या न करने सम्बन्धी कुछ नहीं लिखते। हथियारबन्द बगावत की प्रौढ़ता या विरोध अलग-अलग देशों के अलग-अलग समाचारों के कारण होते हैं। जो लोग इस समय हथियारबन्द बगावत को कठिन या समयपूर्व मानते हों, वे 'आतंक' शब्द की ओट लेकर उस विचार को ही त्याज्य न बनायें। इस विचार से ही आतंक शब्द की उक्त व्याख्या की गयी है, ताकि लोग फिर वैसी ही खतरनाक और ठीक न हो सकने वाली भूल न करें। 

('श्रद्धानन्द', बम्बई से) किरती/मई, 1928

Saturday, July 18, 2020

शहीद कर्तार सिंह सराभा

शहीद कर्तार सिंह सराभा को भगतसिंह अपना प्रेरणास्त्रोत मानते थे। वह उनका चित्र अपने पास रखते थे और कहते थे. "यह मेरा गुरु, साथी व भाई है।" यह लेख सम्भवतः 1928 के शुरू में प्रकाशित हुआ था।
 
रणचण्डी के इस परम भक्त विद्रोही कर्तार सिंह की आयु अभी बीस वर्ष की भी नहीं हुई थी कि जब उन्होंने स्वतन्त्रता-देवी की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे दिया। आँधी की तरह वह अचानक कहीं से आये, अग्नि प्रज्वलित की और सपनों में पड़ी रणचण्डी को जगाने की कोशिश की। विद्रोह का यज्ञ रचा और आखिर वह स्वयं इसमें भस्म हो गये। वे क्या थे, किस दुनिया से अचानक आये और झट कहाँ चले गये? हम कुछ भी न जान सके। 19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाये कि सोचकर हैरानी होती है। इतनी जुर्रत, इतना आत्मविश्वास, इतना आत्महत्या और ऐसी लगन बहुत कम देखने को मिलती है। भारतवर्ष में ऐसे इन्सान बहुत कम पैदा हुए हैं, जिनको सही अर्थों में विद्रोही कहा जा सकता है, परन्तु इन गिने-चुने नेताओं में कार सिंह का नाम सूची में सबसे ऊपर है। उनकी रग-रग में क्रान्ति का जज्बा समाया हुआ था उनकी जिन्दगी का एक ही लक्ष्य, एक ही इच्छा और एक ही आशा, जो भी था क्रान्ति थी, इसीलिए उन्होंने जिन्दगी में पाँव रखा और आखिर इसीलिए इस दुनिया से कूच कर गये। आपका जन्म 1896 में गाँव सराभा, जिला लुधियाना में हुआ था। आप माता-पिता के इकलौते बेटे थे। अभी इनकी आयु बहुत कम थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परन्तु आपके दादा ने बहुत प्रयत्न से आपको पाला। नवीं कक्षा पढ़ने के बाद आप अपने चाचा के यहाँ चले गये वहाँ उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और कॉलेज में पढ़ने लगे। यह 1910-11 के दिन थे। इधर आपको स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम के तंग दायरे से बाहर की बहुत-सी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। यह आन्दोलन का जमाना था। इस वातावरण में रहकर आपकी देशप्रेम की भावना पल्लवित हुई। इसके बाद आपकी अमेरिका जाने की इच्छा हुई। घरवालों ने उसका कोई विरोध नहीं किया। आपको अमेरिका भेज दिया गया सन् 1912 में आप सान फ्रांसिस्को की बन्दरगाह पर पहुँचे। आजाद देश में पहुँचकर कदम-कदम पर आपके कोमल हृदय पर चोट पड़ने लगी। इन गोरों की ज़बान से Damm Hindu (तुच्छ हिन्दू) और Black man (काला आदमी) आदि सुनते ही वे पागल हो उठते थे। उनको कृदम-कदम पर देश की इज्जत व सम्मान खतरे में नजर आने लगे। घर की याद आने पर जंजीरों में जकड़ा हुआ विवश भारत सामने आ जाता। उनका कोमल दिल धीरे-धीरे सख्त होने लगा और देश की आजादी के लिए ज़िन्दगी कुर्बान करने का निश्चय दृढ़ होता गया। उनके दिल पर उस समय क्या गुज़रती थी, यह हम कैसे समझ सकते हैं। यह असम्भव था कि वे चैन से रह पाते। हर समय उनके सामने यह प्रश्न उठने लगा कि यदि शान्ति से काम न चला तो देश आजाद किस तरह होगा? फिर बिना अधिक सोचे उन्होंने भारतीय मजदूरों का संगठन शुरू कर दिया। उनमें आजादी की भावना उभरने लगी। हर मजदूर के पास घण्टों बैठकर वे समझाने लगे कि अपमान से भरी गुलामी की जिन्दगी से तो मौत हज़ार दर्जा अच्छी है काम शुरू होने पर और लोग भी उनसे आ मिले। मई, 1912 में इन लोगों की एक खास बैठक हुई। इसमें कुछ चुनिन्दा हिन्दुस्तानी शामिल हुए सभी ने देश की आज़ादी के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने का प्रण लिया। इन्हीं दिनों पंजाब के जलावतन देशभक्त भगवान सिंह वहाँ पहुँचे। धड़ाधड़ जलसे होने लगे, उपदेश होने लगे। काम से काम चलता गया। मैदान तैयार हो गया। फिर अखबार की जरूरत महसूस होने लगी। गुदर' नामक अखबार निकाला गया। इसका प्रथम अंक नवम्बर 1913 में निकाला गया। इसके सम्पादकीय विभाग में कार सिंह भी थे। आपकी कलम में अथाह जोश था। सम्पादकीय विभाग के लोग अखबार को हैण्ड प्रेस पर छापते थे। कर्तार सिंह क्रान्ति-पसन्द मतवाले नौजवान थे। प्रेस चलाते हुए थक जाने पर वे गीत गाया करते थे

सेवा देश दी जिन्दड़ी बड़ी औखी, 
गल्ल करना ढेर सुखल्लीयाँ ने। 
जिन्ना देशसेवा विच पैर पाया.
उस्ता लक्खा मुसीबत झल्लियाँ ने। 
(देशसेवा करनी बहुत मुश्किल है जबकि बातें करना खूब आसान है। जिन्होंने देशसेवा के रास्ते पर कदम उठा लिया वे लाख मुसीबतें झेलते हैं।) 
कर्तार सिंह जिस लगन से परिश्रम करते थे उससे सभी की हिम्मत बढ़ जाती थी। भारत को किस तरह आजाद कराया जाये यह किसी और को पता चले या नहीं, और किसी ने इस सवाल पर सोचा हो या नहीं, लेकिन कर्तार सिंह ने इस सवाल पर बहुत कुछ सोच रखा था। इसी दौरान आप न्यूयार्क में विमान कम्पनी में भर्ती हो गये और वहीं दिल लगाकर काम सीखने लगे।

सितम्बर, 1914 में कामागाटामारू जहाज को अत्याचारी गोरे साम्राज्यवादियों को हाथ से अवर्णनीय यातनाएँ झेलने पर वैसे लौटना पड़ा। तब हमारे कर्तार सिंह क्रांति प्रिया गुप्ता और एक अमेरिकी अराजकतावादी जैक को साथ लेकर जापान आये और कोबे में बाबा गुरदित्त सिंह जी से मिलकर सब बातचीत की। युगान्तर आश्रम, सैन फ्रांसिस्को के गदर प्रेस में 'गदर और गुदर की गूँज' और अन्य बहुत-सी पुस्तकें छापकर बाँटी जाती रहीं। दिनोदिन प्रचार बढ़ता गया। जोश बढ़ता गया। फरवरी, 1914 में स्टार के पब्लिक जलसे में आजादी का झण्डा लहराया गया और आजादी और बराबरी के नाम पर कसमें खायी गयीं इस जलसे के मुख्य वक्ताओं में कार सिंह भी थे। सभी ने घोषणा की कि वह अपने खून-पसीने की कमाई एक-एक कर देश की आजादी के संघर्ष में लगा देंगे। इसी तरह दिन गुज़रते रहे। अचानक यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की खुबर आयी। वे खुशी से फूले नहीं समाते थे। एकदम सभी गाने लगे....

 चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,
 यही आखिरी वचन व फ़रमान हो गये। 

कर्तार सिंह ने देश लौटने का जोरों से प्रचार किया। फिर स्वयं जहाज़ पर सवार होकर कोलम्बो (श्रीलंका) पहुँच गये। इन दिनों अमेरिका से पंजाब आने वाले प्रायः डिफेंस ऑफ़ इण्डिया कानून (डी.आई.आर.) की पकड़ में आ जाते थे बहुत कम सही-- सलामत पहुंच पाते थे कर्तार सिंह सही - सलामत आ गये। बड़े जोरों से काम शुरू हुआ। संगठन की कमी थी, लेकिन किसी तरह वह पूरी की गयी। दिसम्बर, 1914 में मराठा नौजवान विष्णु गणेश पिंगले भी आ गये इनकी कोशिश से श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और रासबिहारी पंजाब आये। कर्तार सिंह हर समय हर जगह पहुँचते। आज मोगा में गुप्त मीटिंग है। आप वहाँ भी हैं कल लाहौर के विद्यार्थियों में प्रचार हो रहा है, आप फिर प्रथम पंक्ति में हैं। अगले दिन फिरोजपुर छावनी के सैनिकों से गठजोड़ हो रहा है। फिर हथियारों के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। रुपये की कमी का प्रश्न उठने पर आपने डाका डालने की सलाह दी। डकैती का नाम सुनते ही बहुत-से लोग स्तम्भित रह गये, लेकिन आपने कह दिया कि कोई भय नहीं है। भाई परमानन्द भी डकैती से सहमत हैं। उनसे पुष्टि करवाने की जिम्मेदारी आप पर डाली गयी। अगले दिन बगैर उनसे मिले ही कह दिया, "पूछ आया हूँ, वे सहमत हैं।" वे यह सहन नहीं कर सकते थे कि केवल रुपये की कमी से विद्रोह की तैयारी में देरी हो। एक दिन वे डकैती डालने एक गाँव गये। कार सिंह नेता थे। डकैती चल रही थी। घर में एक बेहद खूबसूरत लड़की भी थी। उसे देखकर एक पापी आत्मा का मन डोल गया। उसने जबरदस्ती लड़की का हाथ पकड़ लिया। लड़की ने घबराकर शोर मचा दिया। कर्तार सिंह एकदम रिवाल्वर तानकर उसके नज़दीक  पहुँच गये और उस आदमी के माथे पर पिस्तौल रखकर उसे निहत्था कर दिया। फिर कड़ककर बोले, "पापी! तेरा अपराध बहुत गम्भीर है। तुम्हें सजा-ए-मौत मिलनी चाहिए, लेकिन हालात की मजबूरी से तुम्हें माफ़ किया जाता है फौरन इस लड़की के पाँवों में गिरकर माफ़ी माँग कि हे बहिन! मुझे माफ़ कर दो। और इसकी माता जी के पैर छूकर कह कि माता जी, में इस पतन के लिए माफी चाहता हूँ। यदि वे तुम्हें माफ़ कर दें तो तुम्हें जिन्दा छोड़ दिया जायेगा वरना गोली से उड़ा दिया जायेगा।" उसने ऐसा ही किया। बात अभी ज़्यादा नहीं बढ़ी थी। यह देखकर माँ-बेटी की आँखें भर आयीं। माँ ने कर्तार सिंह को प्यार भरे लहजे में कहा, "बेटा! ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर आप इस काम में किस तरह शामिल हुए?" कर्तार सिंह का भी दिल भर आया और कहा, "माँ जी! रुपये के लालच में हमने यह काम शुरू नहीं किया। अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर डकैती डालने आये हैं। हथियार खरीदने के लिए रुपये की ज़रूरत है। वह कहाँ से लायें? माँ जी, इसी महान काम के लिए आज इस काम पर मजबूर हुए हैं।" इस समय पर यह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। माँ ने फिर कहा, "इस लड़की की शादी करनी है। इसके लिए कुछ छोड़ जाओ तो अच्छा है।" इसके बाद उन्होंने अपना सारा धन माँ के सामने रख दिया और कहा, "जितना चाहें ले लें।" कुछ पैसा रखकर माँ ने बाकी सारा रुपया कर्तार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया, “जाओ बेटा, तुम्हें सफलता मिले।" डकैती जैसे भयानक काम में शामिल होकर भी कर्तार सिंह का दिल कितना भावनामय, पवित्र व विशाल था, यह इस घटना से जाहिर है। फरवरी, 1915 में विद्रोह की तैयारी थी। पहले सप्ताह आप पिंगले और दूसरे दो-तीन साथियों के साथ आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ व अन्य कई स्थानों पर मत और विद्रोह के लिए उनसे मेल-मिलाप कर आये। आखिर वह दिन करीब आने लगा, जिसका बड़ी देरी से इन्तज़ार हो रहा था 21 फरवरी, 1915 भारत में विद्रोह का दिन नियत हुआ था। इसी के अनुसार तैयारी हो रही थी। लेकिन इसी समय उनकी आशाओं के वृक्ष की जड़ में बैठा एक चूहा उसे कुतर रहा था। चार-पाँच दिन पहले सन्देह हुआ कि किरपाल सिंह की गृद्दारी से सब ध्वस्त हो जायेगा। इसी आशंका से कर्तार सिंह ने रासबिहारी बोस से विद्रोह की तारीख 21 की बजाय 19 फरवरी करने के लिए कहा ऐसा होने पर भी इसकी भनक किरपाल सिंह को मिल गयी। इस क्रान्तिकारी दल में एक गद्दार का होना कितने खतरनाक परिणाम का कारण बना। रासबिहारी और कर्तार सिंह भी कोई उचित प्रबन्ध न होने से अपना भेद छिपा नहीं पाये। इसका कारण भारत के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या हो सकता है?

कर्तार सिंह पिछले फैसले के अनुसार पचास-साठ साथियों के साथ फ़िरोज़पुर जा पहुँचे। अपने साथी सैनिक हवलदार से मिले और विद्रोह की बात की। लेकिन किरपाल सिंह ने तो पहले से ही सारा मामला विगाड़ दिया था। हिन्दुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिये गये। धड़ाधड़ गिरफ्तारियाँ होने लगीं। हवलदार ने सहायता करने से इन्कार कर दिया। कार सिंह की कोशिश असफल रही। निराश हो लाहौर आये। पंजाबी में गिरफ्तारियों का चक्कर तेज हो गया अब साथी भी टूटने लगे। ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे हुए थे। कर्तार सिंह भी वहीं आकर एक चारपाई पर दूसरी और मुँह फेर लेट गये। परस्पर कोई बात नहीं की, लेकिन चुपचाप ही एक-दूसरे के दिल की हालत समझ गये। इनकी हालत का अनुमान हम क्या लगा सकते हैं !

दरं-तदबीर पर सर फोड़ना शेव रहा अपना, 
वसीले हाथ ही ना आये किस्मत आज़माई के
 (हमारा काम भाग्य के दर पर सर फोड़ना ही रहा, लेकिन भाग्य आज़माने के साधन ही हाथ नहीं आये।)

उनकी तो यही ख्वाहिश थी कि कहीं लड़ाई हो और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण दे दें। फिर सरगोधा के नजदीक चक्क नम्बर पाँच में आ गये। फिर विद्रोह का चर्चा छेड़ दिया। वहीं पकड़े गये। जंजीरों में जकड़े गये। निर्भीक विद्रोही कर्तार सिंह को लाहौर स्टेशन पर लाया गया। पुलिस कप्तान से कहा,
"मिस्टर टामकिन, कुछ खाना तो लाइये।" वह कितना मस्त-मौला था। इस आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर दोस्त व दुश्मन सब खुश हो जाते थे गिरफ्तारी के समय वे बहुत खुश थे। प्रायः कहा करते थे, "वीरता और हिम्मत से मरने पर मुझे विद्रोही की उपाधि देना। कोई याद करे तो विद्रोही कर्तार सिंह कहकर याद करे।" मुकदमा चला। उस समय कर्तार सिंह की आयु कुल साढ़े अठारह वर्ष थी। सबसे कम आयु के अपराधी आप ही थे, लेकिन जज ने इनके सम्बन्ध में यह लिखा वह इन अपराधियों में, सबसे खतरनाक अपराधियों में एक है। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड्यन्त्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभायी हो।"
एक दिन आपके बयान देने की बारी आयी। आपने सबकुछ मान लिया। आप क्रान्तिकारी बयान देते रहे। जज कृुलम दाँतों के नीचे दबाये देखता रहा। एक शब्द न लिखा। बाद में इतना कहा, "कर्तार सिंह, अभी आपका बयान लिखा नहीं गया। आप सोच-समझकर बयान दें। आप जानते हैं कि आपके बयान का क्या परिणाम हो सकता है?" देखने वाले कहते हैं कि जज के इन शब्दों को कर्तार सिंह ने बड़ी मस्तानी अदा से केवल इतना कहा, "फाँसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।" इस दिन अदालत की कार्रवाई समाप्त हो गयो। अगले दिन फिर कार सिंह का अदालत में बयान शुरू हुआ। पहले दिन जजों का कुछ ऐसा विचार था कि कर्तार सिंह भाई परमानन्द के इशारे पर ऐसा बयान दे रहे हैं, लेकिन वह विद्रोही कार सिंह के दिल की गहराइयों में नहीं उतर सकते थे। कार सिंह का बयान अधिक जोरदार, अधिक जोशीला और पहले दिन की तरह ही इक्बालिया था। 44 आखिर में आपने कहा, "अपराध के लिए मुझे उम्रकैद की सजा मिलेगी या फाँसी। लेकिन मैं फाँसी को प्राथमिकता दूँगा, ताकि फिर जन्म लेकर -" जब तक हिन्दुस्तान आज़ाद नहीं हो, तब तक मैं बार-बार जन्म लेकर - फाँसी पर लटकता रहूँगा। यही मेरी अन्तिम इच्छा है..."
आपकी वीरता से जज बहुत प्रभावित हुए, लेकिन उन्होंने विशाल दिलवाले दुश्मन की तरह आपकी वीरता को वीरता न कहकर बेशर्मी के शब्दों में याद किया। कर्तार सिंह को सिर्फ गालियाँ ही नहीं, मौत की सजा भी मिली। आपने मुस्कुराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। कर्तार सिंह फाँसी की कोठरी में कैद थे। आपके दादा ने आकर कहा, "कर्तार सिंह, जिनके लिए मर रहे हो, वे तुम्हें गालियाँ देते हैं। तुम्हारे मरने से देश को कुछ लाभ होगा, ऐसा भी दिखायी नहीं देता।" कर्तार सिंह ने बहुतधीमे से पूछा _.
"दादा जी, फलाँ रिश्तेदार कहाँ है?"
"प्लेग में मर गया।"
"फलाँ कहाँ है?"
"हैजे से मर गया।"
"तो क्या आप चाहते हैं कि कर्तार सिंह महीनों बिस्तर पर पड़ा रहे और पीड़ा से दुखी किसी रोग से मरे! क्या उस मौत से यह मौत हज़ार गुना अच्छी नहीं?"
दादा चुप हो गये। आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।
आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।

  चमन जाने मुहब्बत में, उसी ने बागवानी की, 
जिसने मिहनत को ही मिहनत का समर जाना। 
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फैज़ शबनम का, 
अँधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में। 

डेढ़ साल तक मुकदमा चला। 16 नवम्बर, 1915 का दिन था, जब उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। उस दिन भी हमेशा की तरह खुश थे। इनका वजन दस पौण्ड बढ़ गया था। 'भारत माता की जय' कहते हुए वे फाँसी के तख्ते पर झूल गये।




धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम

मई, 1928 के 'किरती' में यह लेख छपा। अमृतसर में अप्रैल में राजनीतिक कॉन्फ्रेंस और नौजवान सभा की कॉफ्रेंन्स हुई थी, जिसमें धर्म की समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों में जमकर विचार-विमर्श हुआ। यह लेख उसी मसले पर प्रकाश डालता है।

अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कॉन्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कॉन्फ्रेंस हुई। दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई। उनमें से एक सवाल धर्म का भी था। वैसे तो धर्म का प्रश्न कोई न उठाता, किन्तु साम्प्रदायिक संगठनों के विरुद्ध प्रस्ताव पेश हुआ और धर्म की आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेने वालों ने स्वयं को बचाना चाहा। वैसे तो यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो गयी और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठा। प्रान्तीय कॉन्फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफ़र अली साहब के पाँच-सात बार खुदा-खुदा करने पर अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल ने कहा कि इस मंच पर आकर खुदा-खुदा न कहें। आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता (Irreligion) का प्रचारक हूँ। बाद में लाहौर में भी इसी विषय पर नौजवान सभा ने एक मीटिंग की। कई भाषण हुए और धर्म के नाम का लाभ उठाने वाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जाने वाले कई सज्जनों ने कई तरह की नेक सलाहें दीं। सबसे जरूरी बात जो बार-बार कही गयी और जिस पर श्रीमान भाई अमर सिंह जी झबाल ने विशेष जोर दिया, वह यह थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाये। बड़ी नेक सलाह है। यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शान्ति में कोई विघ्न न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज उठाने की क्या जरूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आन्दोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आजादी दे दी गयी। यहाँ तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मन्त्र पढे जाने लगे। उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था।
 फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी।

जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतन्त्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गये हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं।
बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है बच्चे को हमेशा के लिए कमजोर बनाना है। उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने से इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! छूत-अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा हो। गुरुद्वारे जाकर जो सिख 'राज करेगा खालसा' गायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?
धर्म तो यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को फिर तलवार के घाट उतार देना चाहिए और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये तो परिणाम क्या होगा? हम जानते हैं कि अभी कई और बड़े ऊँचे भाव की आयतें और मन्त्र पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाये? धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नज़र आता है। मान लें कि भारत में स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ जाये। सेनाएँ आमने-सामने बंदूक ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह जैसे कि कहावत बतायी जाती है आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, ग्रन्थ साहिब, वेद-कुरान आदि चीजें खड़ी कर दी जायें, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेटकर घर बैठ जायेंगे। धर्म के होते हुए हिन्दू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते। धर्म के बड़े पक्के इन्सान तो उस समय सोमनाथ के कई हज़ार पण्डों की तरह ठाकुरों के आगे लौटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी-काम कर जायेंगे। जायेंगे। तो हम किस निष्कर्ष पर पहुँचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है। लेकिन यदि धर्म के पक्ष वालों के तर्क भी सोचे जायें तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अन्धेर हो जायेगा, पाप बढ़ जायेगा। बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें। रूसी महात्मा टॉलस्टॉय ने अपनी पुस्तक (Essay and Letters) में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये हैं Essentials of Religion, यानी धर्म की जरूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना प्यार से रहना, वगैर। Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।

Ritual of Religion, यानी रस्मो-रिवाज वगैरा मतलब यह कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो। इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहा है। इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता। वरन यह कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिए। दूसरा फिलॉसफी का प्रश्न है। असल में कहना पड़ता है कि 

Philosophy is the outcome of Human weakness, यानी फिलॉसफी आदमी की कमजोरी का फल है जहाँ भी आदमी देख सकते हैं वहाँ कोई झगड़ा नहीं। जहाँ कुछ नज़र न आया, वहीं दिमाग लड़ाना शुरू कर दिया और खास-खास निष्कर्ष निकाल लिये। वैसे तो फिलॉसफी बड़ी जरुरी चीज़ है, क्योंकि इसके बगैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शान्ति होनी भी बड़ी जरूरी है। हमारे बुजुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते। बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है। आइय, प्यार के साथ बैठकर बहस करें। एक-दूसरे के विचार जाने लेकिन 'मसला-ए-तनासुक' पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियाँ चल जाती हैं। बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में खुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। अपने सोचने की शक्ति (Power of Reasoning) को छुट्टी दी हुई होती है। सो जो फिलासफ़ी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्त्व न रखती हो तो एक खास फिलासफ़ी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है। अब आती है तीसरी बात - रस्मो-रिवाज। सरस्वती-पूजा वाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना ज़रूरी है। उसमें आगे-आगे बैण्ड-बाजा बजना भी जरूरी है। लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है। इस्लाम धर्म  कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे। अब क्या होना चाहिए? नागरिक आज़ादी का हक़ (Civil rights of citizen) कहता है कि बाजार में बाजा बजाते हुए भी जाया जा सकता है। लेकिन धर्म कहता है कि नहीं। इनके धर्म में गाय का बलिदान ज़रूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है। अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अन्तर आ जाता है तो क्या किया जाये? तो यही फिलॉसफी व रस्मो-रिवाज के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर (National Religion) बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं। परिणाम हमारे सामने है।
सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई जरूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिए। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतन्त्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है।
लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हममें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रेज़ी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम है - जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे।