Wednesday, October 28, 2020

झण्डे पे झंडा दे मारो डंडा।

लेखक:- शिवम कुमार पाण्डेय

क्या हुआ? शोर काहे मचा रहे हो? अरे भैया वो देखो तब पूछना शोर काहे मचा रहे है? अरे ई तो गजब हो रहा है पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लग रहा है। कवनो चीन का समर्थन करने कि बात कर रहा है। ध्यान से सुनिए का - का कह रहा है? कहेगा का वही 370 जो बेहूदगी से भरा हुआ था उसी की बहाली की बात कर रहा है। कह रहा है चीन हमारी मदद कर सकता है 370 की वापसी में और हम चीन का समर्थन करते है। मतलब चीन आक्रमण करके कश्मीर को कब्जा में लेले..लगता है पगला गया है अभी चीन को गलवान में मुंह की खानी पड़ी थी। क्या कर सकते है रसरी जल गया पर बल नहीं गया है। वाह रे! देश विरोधी नारे और बयान देकर कह रहा है हम कश्मीर के लोगो को न्याय दिलाने की बात कर रहे हैं। एक महिला नेता भी नजर आ रही है अरे! ये तो सीधा देश के आन बान और शान पर हमला कर रही है यानी तिरंगा पर। ये तो वही है जो कभी तिरंगा को जलाने की बात करती है तो कभी खून से भिगोने की। इहा तो लाल सलाम वाले भी खड़े है वाह का बात है धर्म को अफीम का नशा कहने वाले अब इस्लामिक जिहादियों के साथ गठबंधन कय लिए है। खैर लाल सलाम के नाम धरती को खून से रंगने की साज़िश तो इनकी भी जोर शोर से चल रही है। एक दो नहीं पूरे ६ दलो गठबंधन है 370 की वापसी इनका मकसद है जो कभी पूरा नहीं होगा।
गला फाड़ - फाड़ कर ये लोग भारत को भारत में ही गाली दे रहे है और नागरिक भी भारत के फिर भी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग कहता है यहां अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है ! कितना शर्मनाक है जब सरकार ऐसे लोगो पर कार्यवाही करती है पूरा विपक्ष इकट्ठा हो जाता है इनका बचाव करने के लिए। संसद में बवाल खड़ा कर दिया जाता है मानो संसद पर हुआ आतंकवादी हमला  किसी को याद ही नहीं। अरे याद तो सबकुछ रहता है तभी तो आतंकियों की बरसी मनाई जाती है इन तथाकथित लोगो द्वारा। 

कश्मीर अगर धरती का स्वर्ग बताया जाता है पर इस्लामिक आतंकियों और जिहादियों ने जो तबाही मचाई है यहां उसका जिक्र कर दिया जाय तमाम बुद्धिजीवियों   सेक्युलर पत्रकारों और नेताओं को मिर्ची लग जाती हैं। वो आपको सांप्रदायिक बताते हुए कट्टर , जाहिल ,अनपढ़ मूर्ख और धार्मिक हिंसा का समर्थक की संज्ञा देने लग जाएंगे। एक पत्रकार ऐसा भी है देश में जो आपको अंधभक्त और फट्टू संघी भी बोलेगा। पर तिरंगा विरोधी बयानों पर चुप बैठ जाते है सब के सब मानो तिरंगा तो बस तीन रंगों में रंगा हुआ मामूली सा कपड़ा है। हर मुद्दे को लेकर खुद को देश की आवाज़ कहने वाले तथाकथित सेक्युलर लिबरल बुद्धिजीवी न जाने कहां खो जाते है जब देश कि इज्जत से कोई खिलवाड़ करने कि कोशिश करता है। खैर देश कि जनता समझदार है इन लोगो के बहकावे मे आने वाली नहीं है। सरकार और सुप्रीम कोर्ट को भी चाहिए  ऐसे लोगो के राजनीतिक पार्टी और इनके ऊपर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दे बाकी सब अपने आप ठीक हो जाएगा । 
आखिर कब तक ऐसे गद्दारों को खुली हवा में सांस लेने के लिए छोड़ा जाए? बात देश के सम्मान की है कोई भी ऐरा- गैरा कुछ भी कह के आसानी नहीं बच सकता है। बात साफ है अगर इस देश मे अगर किसी सांसद या मुख्यमंत्री तो "तू" कहना अपमानजनक हो सकता है फिर  तिरंगा तो देश कि जान है जिसके खातिर हिमालय की चोटियों पर हजारों वीर योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति तक दे दी है। ये वही तिरंगा है जिसे सैनिक फहरा के आता है या इसमें लिपट कर। 

Wednesday, October 21, 2020

अखण्ड भारत की पहली आजाद सरकार "अर्जी हुकूमत - ए - आजाद हिन्द"


क्या कह रहे हो? क्या हुआ? आज कौन सा बड़ा दिन है? अरे इतना भी नहीं जानते हो भैया की आज ही के दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 में "आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की थी। 77 साल पहले देश से बाहर बनी 'आज़ाद हिंद सरकार' अखंड भारत की सरकार थी, अविभाजित भारत की सरकार थी। ब्रिटिश राज का सर्वनाश करने के लिए नेताजी की भी हद तक जा सकते थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध में भारत को शामिल किए जाने का पुरजोर विरोध किया था जिसके बाद उन्हें जेल डाल दिया गया। उन्होंने ने भूख हड़ताल शुरू कर दिया फिर क्या अंग्रेजो को थक हार के जेल से निकाल कर उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया गया था। नेताजी इसी दौरान ब्रिटिश हुकूमत के आंख में धूल झोंक कर भारत से जर्मनी भाग गए। वहां युद्ध का मोर्चा देखा और युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग ली।
जहां उन्होंने हिटलर से मिलकर भारतीय युद्ध बन्दी सैनिकों की मदद से सेना का गठन किया था।
जर्मनी में रहने के दौरान उन्हें जापान में रह रहे आज़ाद हिंद फ़ौज के संस्थापक रासबिहारी बोस ने आमंत्रित किया। डॉक्टर राजेंद्र पटोरिया अपनी किताब 'नेताजी सुभाष' में लिखते हैं, "4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथे भवन में एक समारोह में रासबिहारी बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस के हाथों में सौंप दी।" इसके बाद सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई जिसे जर्मनी, जापान, फिलिपींस, कोरिया, चीन, इटली, आयरलैंड समेत नौ देशों ने मान्यता भी दिया था।

नेताजी की आजाद हिंद सरकार का अपना अलग बैंक भी था। 1943 में बने आजाद हिंद बैंक ने 10 रुपए के सिक्के से एक लाख रुपए तक के नोट जारी किए थे। सबसे बड़ी उपलब्धि ये थी कि इन्होंने जापान की मदद से अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह को स्वाधीन भूमि के रूप में प्राप्त किया। आजाद हिन्द सरकार ने नेताजी के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फ़ौज को बेहद शक्तिशाली बना दिया। फ़ौज को आधुनिक युद्ध के लिए तैयार करने की दिशा में जन, धन और उपकरण जुटाए। इतना ही नहीं आजाद हिंद सरकार के पास अपना डाक टिकट और अपना गुप्तचर तंत्र भी था। नेताजी ने आजाद हिन्द फौज में महिला रेजिमेंट की स्थापना की जिसका नाम था "रानी  झांसी रेजिमेंट" जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी सहगल के हाथो में थी। लोग आज के जमाने में महिला सशक्तीकरण  की बात करते है नेताजी के आजाद हिन्द सरकार ने इसको साबित किया। । नेताजी सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि आज़ादी की इच्छा हर भारतीय के दिल में उठे तो भारत को स्वतंत्र होने से कोई रोक नहीं सकेगा। इसके लिए उन्होंने अपने लेखों, भाषणों में लिखना-बोलना शुरू किया। उन्होंने 'फॉरवर्ड' नाम से पत्रिका के साथ ही आज़ाद हिंद रेडियो की स्थापना की और जनमत बनाया।  नेताजी की आजाद हिन्द फौज ने आखिर सांस तक लड़ाई लड़ी। तृतीय विश्व युद्ध में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी में  6 और 9 अगस्त को परमाणु बम से हमला कियाा गया जिसके बाद जापान नेेे सरेंडर  दिय। अंग्रेजी फौज को कोहिमा और इंफाल के मोर्चे पर कई बार आजाद हिंद फौज ने धूल चटाई। जापानियों के सरेंडर ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दीया था। बेहद कठिन परिस्थितियों में आजाद हिंद फौज के सैनिकों ने आत्मसर्पण कर दिया और उसके बाद लाल किले में इनके ऊपर मुकदमा चलाया गया। जब यह मुक़दमा चल रहा था तो पूरा भारत भड़क उठा और जिस भारतीय सेना के बल पर अंग्रेज़ राज कर रहे थे, वे विद्रोह पर उतर आए। नौसैनिक विद्रोह ने ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में अंतिम कील जड़ दी। अंग्रेज़ अच्छी तरह समझ गए कि राजनीति व कूटनीति के बल पर राज्य करना मुश्किल हो जाएगा।उन्हें भारत को स्वाधीन करने की घोषणा करनी पड़ी। ऐसे बहुत से किस्से पड़े हुए है नेताजी के आजाद हिन्द सरकार और उसकी फौज की। बाकी नेेेेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है।

जय हिन्द

Sunday, October 18, 2020

सुदर्शन तैयार रखना आगे बहुत लड़ैया रे

लेखक:- शिवम कुमार पाण्डेय

क्या कह रहे हो ? क्या हो रहा है देश में? यहां हर कोई अपने आप को राजनीति में युवा और जुझारू नेता कहता है भले सिर के बाल झड़ गए हो। एक कहावत है न "उम्र पचपन का दिल बचपन का"।उम्र भले 50 के पार चली गई हो तो क्या फर्क पड़ता है प्रधानमंत्री पद के लिए तो अभी भी युवा ही है। मुंह से बोलने से नहीं होता है न उसके लिए मेहनत और संघर्ष करना पड़ता हैं। यहां तो कुछ और ही है बैठे बिठाए राज पाठ मिल गया है। कहने को लोकतंत्र है पर राजनीतिक पार्टियां तो परिवारवाद के दम पर ही चल रही है।पिता के बाद पुत्र ही पार्टी का कार्यभार संभालेगा। महलों में पलने वाले ये लोग कहते है "हमारी पार्टी गरीबों के हक लिए लड़ती है"। राज्य में सरकार टूटने के डर से पार्टी के विधायकों के साथ पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित कमरे बैठकर मस्त तंदूरी रोटी तोड़ने वाले लोग भी कहते है "हमारी पार्टी किसानों और बेरोजगारों के हक लिए लड़ती है"! मतलब अब ऐसे गंभीर चर्चे महलों और पंचतारा कमरों में बैठकर होते हैं। विधान सभा और संसद तो बस हंगामा खड़ा करने लिए है वहा कोई सार्थक वार्तालाप थोड़ी न कि जा सकती है इससे लोकतंत्र खतरे में जो आ जायेगा।

इनकी खुद की संतान ब्रिटेन , अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया आदि जगहों पर शिक्षा लेने जाती हैं। दूसरों के बच्चो से ये लोग चाहते है कि इनके लिए आंदोलन करे ,जगह- जगह पर आगजनी और हिंसा करे , दूर कश्मीर में कही सेना के जवानों पर पत्थर फेंके, आतंकी जिहादी नारे लगाए, नक्सलियों के गुण गाए आदि। ऐसे संकीर्ण मानसिकता वालो को बस अपना घर भरना रहता है  भले दूसरे का घर उजड़ जाए। सत्ता के भूखे- प्यासे लोग विदेशी शत्रुओं का समर्थन करने से भी बाज नहीं आते है। अभिव्यक्ति आजादी के आड़ में देश जाए भाड़ में कहते है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में भी एक ऐसी ही विचारधारा पनप चुकी है जो खुद को बुद्धिजीवी वर्ग समझती है ऐसे लोगों का खुलेआम समर्थन करते है। ये सबकुछ तथाकथित छात्रों और प्रफेसरो की वजह से होता है जो सिर्फ अपनी ही बात करते है और दूसरे कत्तई सुनना नहीं चाहते है। ये वही लंपट लोग है जो राजशाही का विरोध करते है पर वर्तमान में  चल रहे परिवारवाद या वंशवाद की राजनीति पर इनको सांप सूंघ जाता है। बहुत क्रांतिकारी दिखाते है सब खुद को लेकिन किसी तथाकथित पार्टी का अध्यक्ष का लड़का विदेश पढ़कर आता है जो भारतीय राजनीति से एकदम अनिभिज्ञ है उसे अपना भैया बना लेते है ये लोग इस तरह बना बनाया एक प्लेटफॉर्म मिल जाता है और वंशवाद फूल जाता है। ऐसी ही तथाकथित लोग ब्राह्मणवाद का विरोध करते हैं जिसके बारे में यह तनिक जानते भी नहीं है। ऐसे लोगो से सतर्क रहना चाहिए खासकर युवाओं जो इनके बहकावे में देश विरोधी तत्वों का समर्थन करने लग जाते है। भड़काना, भटकाना और लड़वाना इनका मुख्य कार्य होता है। किसी भी व्यक्ति जो अपना जीवन शांति से जी रहा है उसके जीवन में भूचाल का लाने से तनिक से भी नहीं हिकिचाते है। इनका समूल विनाश करना बहुत जरूरी गया है। इनके ऊपर सख्त कार्रवाई की जरूरत है नहीं वो दिन दूर जब भारत अंदर खोखला हो चुका होगा। कहने तात्पर्य यही है कि शैतान और उसकी नाजायज औलाद लाख कोशिश करेंगे तहलका मचाने की तुम सुदर्शन चक्र तैयार रखना।

Tuesday, October 13, 2020

राजनीति अगर जुआ है तो खेलने वाला भी युवा है।

लेखक:- शिवम कुमार पाण्डेय
क्या कह रहे हो? तुमसे तुम्हारा हक छीना जा रहा है तुमको आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जा रहा है। आखिर ऐसी नाइंसाफी क्यों हो रही तुम्हारे साथ कभी इसपर तर्क - वितर्क किये हो? सोचना और समझना केवल मुंह से बोल देने कोई युवा नहीं हो जाता है। तुम्हारे ही कंधे पर बंदूक रखकर वो अपनी वंशवादी परंपरा को बचाते है और इनकी रक्षा में तुम अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते हो। तुमको मिलता क्या है इसके बदले में? सिवाय उपहास, बहिष्कार और तिरस्कार के। काम निकल जाने के बाद तुम्हारी अवहेलना की जाती है तब तुमको ख्याल आता है कि तुम "युवा" हो। धिक्कार है ऐसे युवाओं पर जो जातिवाद, पंथवाद, क्षेत्रवाद और धर्म के नाम पर राजनीतिक दलों का समर्थन  करते है। कुछ तथाकथित नेताओ के आगे पीछे घूमते रहते है और उनकी जय करते है। यहां तक तो ठीक है पर इन नेताओ की औलादों का भी चरण चुम्बन करने लगोगे तो तुम्हारा अधिकार छिनेगा नहीं तो क्या होगा? जिंदगी भर मेहनत और संघर्ष तुम किये और फल कल कोई और ले गया। दरअसल आजकल केे युवा खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं रही है आजकल के युवाओं में यह बस अपने जाति के नेताओं के चक्कर में पड़कर अनर्गल एवं अनावश्यक मुद्दों का समर्थन करने लगे है जो किसी भी समाज के लिए हितकारी नहीं है। आजकल के युवा खुद गुटों में  बट गए हैं और इन तथाकथित नेताओ के खातिर एक दूसरे से सिर फुटौव्वल , बिना तथ्यों के बहसबाजी और  वाद - विवाद करने लग जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब एक दूसरे केेे घोर विरोधी नेता या राजनीतिक दल सत्ता में बैठने के लिए गठबंधन कर लेेते हैं और यह तथाकथित युवा नेता ताकते रह जाते हैं। फिर एहसास होता है कि हम युवाओं के साथ दगाबाजी हुई हैं पर इससे कोई सीख नहीं लेते और चले जाते हैं जूठन पत्तल चाटने के लिए। 
बड़ा ही हास्यास्पद लगता है जब कोई अधेड़ उम्र या उम्रदराज का नेता कहता है कि "युवाओं को राजनीति से दूर रहना चाहिए" लेकिन ये वो क्यों भूल जाते है जब चुनाव सर पर आता है तो ये युवा ही प्रचार - प्रसार करते है तमाम राजनीतिक दलों के लिए किसी बूढ़े की बस बात नहीं है कि तपती धूप गर्मी में या कड़कती सर्दियों में जाके गांव - गांव घूम के पोस्टर चिपकाए। ठीक है युवाओं को राजनीति से दूर रहना चाहिए तो तमाम राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि अपने दल के नाम जोड़कर फलनवा युवा मोर्चा , ढिकनवा युवा संगठन भी बर्खास्त या समाप्त कर दे। आप देश के तमाम शिक्षण संस्थानों , विश्वविद्यालयो और महाविद्यालयों में जितने भी छात्र संगठन सबकी विचारधारा किसी न किसी राजनीतिक दल जुड़ी रहती है इससे भी मुंह नहीं फेरा जा सकता है। सभी छात्र नेताओं को समर्थन यही राजनीतिक दलों के लोग ही करते है सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए। मेरे ख्याल से ये सब भी बंद हो चाहिए क्योंकि जब कोई युवा छात्र संघ के अध्यक्ष का चुनाव जीतते है तब इन्हीं माननीय लोगो पैर छूकर आशीर्वाद लेने जाते है और उन मित्रो या साथी छात्रों को भूल जाते है जिनके वजह से मुकाम पाए है।

 क्या सिर्फ युवा तमाम राजनीतिक दलों के राजनीतिक रोटियां सेकने वाले को राजनीतिक बावर्ची है जिसका काम हो गया तो दुत्कार कर भगा दो? वो राजनीतिक दल जो समाजवाद के नाम पर अस्तित्व में आए पर हकीकत में कभी परिवारवाद से आगे बढ़ ही नहीं पाए वो देश चलाने की बात करते है और युवाओं को कहते है तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ है। युवाओं का साथ देने वाली बात उस समय खारिज हो जाती है जब किसी काबिल युवा के स्थान पर किसी बड़े माननीय नेता के पुत्र को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाता है। बात पूरी तरह से साफ है खुद को युवा कह देने भर से अब काम नहीं चलने वाला है सोच और राजनीतिक समझ को मजबूत करना होगा वरना "युवा जोश कट्टर सोच" बस नारों में रह जायेगा। जातिवाद , पंथवाद क्षेत्रवाद आदि जैसे संकीर्ण दायरों से खुद मुक्त करना होगा और राष्ट्रवादी विचारधारा को अपनाना होगा जो रगो - रगो में राष्ट्रीयता का संचार करती है।
एकमात्र ऐसी विचारधारा जो सभी युवाओं को बिना किसी मतभेद के एक - दूसरे जोड़कर रखने का काम करेगी। युवक चाहे तो वो सबकुछ कर सकता है जो वो चाहे। संसार का इतिहास युवाओं से भरा हुआ है। युवक चाहे तो सरकार बदल जाए या तख्ता पलट कर दे। युद्धों का इतिहास उठा के देखिए बलिदानी युवाओं के रक्त से लथपत मिलेगा। भारत में भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु का बलिदान कौन भूल सकता है जो हसते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए ताकि भारत माता का उद्धार हो सके। इनके विचारो से सम्पूर्ण भारत में क्रांति की लहर जाग उठी लोगो के दिलो में उनके प्रति आदर और सम्मान और बढ़ गया। वर्तमान में देखे तो भारत में युवाओं की कोई कमी नहीं बस जरुरत है तो जोश जज्बा और जुनून की जो सिर्फ राष्ट्रवादी विचारधारा से ही उत्पन्न होगी। जिस दिन मन में ये भावना आ गई कि राष्ट्र से बढ़कर कोई नहीं है तो उस दिन युवाओं को राजनीति में कोई वंशवादी या परिवारवादी , जातिवादी आदि राजनीतिक दल चाह कर भी मात नहीं दे पाएगा। आज का युवा अगर कल को देश का बागडोर संभालना चाहता है तो उसे गुलाम मानसिकता को त्यागना ही पड़ेगा। अंत में यही कहना चाहूंगा उठो तुम युवा हो भारत देश के ,गहरी नींद से जागो अपने अंदर झाको और खुद के अस्तित्व को पहचानो। 

वन्देमातरम!
 

Saturday, October 10, 2020

माइक कैमरा और एक्शन!

लेखक:- शिवम कुमार पाण्डेय
ये क्या हो रहा है? कौन इतना हल्ला हूं क्यों मचा हुआ है? तू तू मै - मै कर के बात हो रही है। ऐसे तू तड़ाक कय के कौन बतियाता है भाई?  अरे! किसी ने टेलीविज़न चला रखा है। सब समाचार देख रहे है। तीखी बहस हो रही है चिल्ला चिल्लाकर। सब टीआरपी का खेल है भैया नहीं तो कौन इतना गला फाड़ता है। कवनो समाचार चैनल लगाइए सब अपना एजेंडा चलाए जा रहे है। जनता को क्या देखना है ये जनता नहीं ये खुद तय करते है डंके की चोट पर। बहस के दौरान स्टूडियो में हाथापाई तक हो जाती है और गाली गलौज तो आम बात हो चुकी है आजकल के नेताओ के लिए। पत्रकार कहता है ये मेरा न्यूज चैनल मेरी मर्जी जो मन तो दिखाऊं मुझे कोई रोक नहीं सकता है। न्यूज़ दिखाते दिखाते वक्त हर चैनल एक ही बात दोहराता है "सबसे पहले हमारे चैनल ने इस खबर को दिखाया है।" कोई ख़बर दिखाते हुए आराम से बोलता तक नहीं है इतनी हड़बड़ी मची रहती हैं मानो इनसे बड़ा कोई सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र नहीं है। "हम सिर्फ सच दिखाते है झूठ नहीं" के वाले चोचले भी चलते रहते हैं। हर खबर पर हमारी नजर , अफवाहों से रहे दूर, सनसनी, आर पार की जंग कर देंगे बेनकाब और मच गया दंगल मानो मीडिया जगत है पूरा का पूरा जंगल।
पत्रकारिता यही तक सीमित नहीं रहती है कुछ शांतिप्रिय पत्रकार भी हैं जो अपने आपको बहुत बड़ा बुद्धिजीवी भी समझते हैं। इनका काम आतंकियों और नक्सलियों के घर जाकर संवेदना व्यक्त करना होता है। वे कहा तक पढ़े है और कौन सी डिग्री हासिल किए है बताकर उनका महिमा मंडन करना होता है। इन जिहादी आतंकियों को भटका हुआ नौजवान बताकर इनके एनकाउंटर पर सवाल खड़ा करते है। हद तब और हो जाती है जब क्रूर नक्सलियों को ये लोग "क्रांतिकारी" बताने लग जाते हैं। न्यूज चैनलों पर बैठकर देश विरोधी एजेंडा चलाते है और कुछ मुट्ठी भर राजनीतिक पार्टियां इनका समर्थन करती है। टीआरपी लेने की ऐसी होड़ मची रहती हैं मानो दो कुत्ते आपस में मांस के टुकड़े के लिए छीना झपटी कर रहे हो। रात को 9 बजे सबका शो चलता है "प्राइम टाइम" यहां बाजी मारने के लिए टीवी की स्क्रीन तक काली कर दी जाती है और कहा जाता है आज का अंधेरा ही सच्चाई है। किसी मुद्दे को ऐसा तोड़ - मरोड़ के पेश किया जाता है कि मुख्य जानकारी से जतना अनिभिज्ञ रह जाती है और ये अपना एजेंडा फैलाने में कामयाब हो जाते है। अब उदाहरण के तौर पर नागरिकता संशोधन कानून को ही ले लीजिए इसको लेकर धड़ल्ले से भ्रामक फैलाया जा रहा था। झूठ कपास बोलना आजकल के पत्रकारों ने भी सीखा लिया है खैर आजकल यही ख़बरें तो धूम मचा रही है।
माइक ,कैमरा और एक्शन! लीजिए आप बन गए पत्रकार अब उड़ाइए अफवाह सरेआम बाज़ार। अब तो पत्रकारिता ऐसा व्यासाय बन गया है जो अफवाह उड़ाने, दंगा भड़काने , देश को तोड़ने आदि का कार्य कर रहा है। ऐसे संकीर्ण मानसिकता वाले पत्रकारों का बहिष्कार करना अनिवार्य हो गया हैं। ये पत्रकार नहीं चाटुकार हो गए है जो जनता को भक्त और चमचा की संज्ञा देने लग जाते हैं पर कही ना कहीं मूर्ख तो ये मुट्ठी भर लोग इसी जनता में ही निकलेंगे जो खुद को भक्त और चमचा कहलवाने में गौरांवित महसूस करते होंगे। बिना तथ्यो के तर्क - कुतर्क किए हुए इन लोगो का मन नहीं भरता है। फिर कहते है हमारा चैनल है 
नंबर वन ! आपको रखे आगे।

Monday, October 5, 2020

लाश लकड़ी और रोटी

लेखक:- शिवम कुमार पाण्डेय

अरे ये क्या वो देखो क्या हो रहा है? लकड़िया जलाई जा रही है और क्या? अरे बुड़बक तनिक ध्यान से देखो उसमे मासूम लड़किया भी जल रही है ! ओ तेरी ई सब का हो रहा है कुछ लोग इसी पे रोटिया सेक रहे है घी में चपोर-चपोर के खाने के लिए। कौन है ये लोग? अरे नहीं जानते हो ये वही लोग है सालो - साल पंचतारा होटलों के वातानुकूलित कमरों में आराम से बैठकर तंदूरी का चाव से मज़ा लेते है। ये मौका बार - बार नहीं मिलता है इस तरह जलती हुई लकड़ियों पे रोटी सेकने का। देखो सब कितना मज़ा लेकर खा रहे है रोटिया। ऐसी रोटियों में गजब की ताकत होती है, जो इसको खा लेता है वो बुद्धिजीवी हो जाता है। गिद्ध तो सीधा लाश को नोच - नोच कर खा जाते है पर ई लोग जलती हुई लाश पर रोटी सेंक कर खाने का दम रखते है। कवनो ज्यादा फर्क नाही है गिद्धों में और इनमें सिवाय इसके की  गिद्ध पक्षी और ये मनुष्य है। जलती हुई लाश पर रोटियां सेकने की परंपरा तो कई दशकों से चली आ रही है फिर चाहे वो लड़की की हो, जवान का हो, किसान का हो या विशेष जाति - धर्म का हो इसीलिए ये आवाम भी दशकों से परेशान है। 
रोटी को भी विशेष नाम दिया गया है "राजनीतिक रोटी" जो हर कोई सेके जा रहा है। मत पूछिए बड़ी लंबी होड़ लगी हुई हैं ,गजब की भीड़ और मारामारी है। हर कोई अपना हक मांग रहा है नहीं किसी से भीख मांग रहा है। मजाल किसी की कोई रोककर देखा दे इनको अरे भाई झुझारू नेता - परेता लोग है ये नहीं जलती हुई लाश पर रोटी सकेंगे तो कौन सेकेगा? ओ कुछ पत्रकार भी है का लाइन में लगे हुए है नमक, मिर्च, मसालों के साथ अब बिना इसके सब्जी तो बन नहीं सकती न। नीछान सादि रोटियां मज़ा थोड़ी न देंगी तो ये भी आ जाते है माल मटेरियल लेकर। झूठ कपास , उलुल - जुलूल , इधर - उधर की फालतू बकैती करने वाले कुछ मुट्ठी भर डिजाइनर पत्रकारों का काम होता जब लकड़ियां जल कर राख हो जाय तब उसको क्षितिर - वितिर कर के उसको हवा में उड़ा देना। इन्हें क्या मालूम कि लोगों पर क्या गुजर रही होगी जिनके मृत परिजनों के जलती हुई चिता पर ये घिनौना खिलवाड़ होता है ?  यह सब एक साजिश और षड्यंत्र के साथ किया जाता है इस देश की एकता और अखंडता को तोड़ने के लिए। जब कोई भी व्यक्ति जाति विशेष का भूखा मरता है कोई नहीं जाता उसका खोज खबर लेने  के लिए पर जहां कोई उसके साथ दुर्घटना या अनहोनी हो जाती है तो सब उसके घर में इतनी भीड़ लगा देते है कि इनसे बड़ा कोई उसका हितैषी ही नहीं है। मौका मिला नहीं शुरू हो गए दलितों की तुष्टिकरण की राजनीति करने। कभी सवर्णों से लगाव तो कभी पिछड़ों से जुड़ाव बस जहां इनकी राजनीतिक रोटी को आग मिल जाय देखने के खातिर और का रखा है जीवन में! आरोपी अगर मुस्लिम हो तो ऐसी चुप्पी साध लेंगे की मानो जैसे कोई सांप सूंघ गया हो, इसी को कहते है मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति।  इन सबका फायदा मिशनरी वालो भी फायदा उठाते है धर्मपरिवर्तन करके दलित को ईसाई बनाकर। एक ग़लत धरना उत्पन्न की जाती है दलितों के सामने तुम्हारे साथ हिंदू धर्म में अपमान और अत्याचार हो रहा है। आओ इशू प्रभु के शरण में। यह अब एक एजेंडा नहीं है तो क्या है? किस नजरिए से देखा जाए इसको? जब कोई भी अपराध होता है तो बिना जांच - पड़ताल के विवादित और भड़काऊ बयान देने के तथाकथित सेकुलर समाजवादी लिबरल गैंग सक्रिय हो जाता है। एक मंच पर खुलेआम लोगों के सामने एक क्षेत्रीय पार्टी का नेता दूसरे समाज के मा, बहन - बेटियों को गरियाता है पर इस पर मीडिया में कोई शोर शराबा देखने को नहीं मिलता है क्योंकि वह नेता पिछड़े वर्ग का है। जब विकास दुबे जैसा अपराधी मारा जाता है तब शोर-शराबा होने लग जाता है 'ब्राम्हण को कैसे  मार दिए'? मतलब जो सही है उसको नहीं दिखाएंगे जो गलत है उसके लिए लड़ मर जाएंगे वाह क्या गजब है हम किस अजीबो - गरीब भारत में जी रहे है जहां हिन्दू धर्म तोड़ने की साजिश रची जा रही है कुछ जयचंदो द्वारा सिर्फ सत्ता सुख के लिए। जघन्य अपराध करने वालों के लिए समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए चाहे वो किसी भी जाति , धर्म या मजहब का हो। उसको कड़ी से कड़ी सजा मिले पर इस तरह जलती हुई लाश पर रोटियां सेंकने वालों को सबक सिखाने सख्त जरुरत है।

Saturday, October 3, 2020

एक उम्मीद की किरण जो जागी थी इस देश को बदलने की।

                         शिवम कुमार पाण्डेय



दिन बुधवार 17 अगस्त 2011, सुबह-सुबह अखबार पर ध्यान गया राष्ट्रीय सहारा पृष्ठ 9, "हजारे के साथ हजारों", पूर्वांचल भी खड़ा हुआ अन्ना के साथ" में हेडलाइन छपा था।
16 अगस्त 2011, मंगलवार सुबह वही हुआ जिसका अंदेशा था।अनशन से पहले ही दिल्ली पुलिस ने अन्ना हजारे और उनके चार सहयोगियों को सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। फिर क्या था देश के विभिन्न हिस्सों में गिरफ्तारी के खिलाफ हो हल्ला शुरू हो गया हर जगह निंदा ,नारेबाजी, विरोध प्रदर्शन होने लगा, इस बीच खबर आई कि उन्हें 7 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इस पर लोगों ने कहा, '1975 में जैसे इमरजेंसी लगाकर सारे देश को बंधक बना दिया गया था आज वैसी ही स्थिति है'। पूर्वांचल के विभिन्न जिलों में सुबह अन्ना की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही जनाक्रोश भड़क गया क्या वकील, क्या नेता क्या, क्या सामाजिक कार्यकर्ता, क्या नौजवान, क्या महिलाएं, क्या छात्र क्या बच्चे, सभी उनकी गिरफ्तारी से आहत थे। इसी बीच एक वृद्ध ने कहा कि अगर आज जेपी यानी जयप्रकाश नारायण जिंदा होते तो व्यथित होकर यही कहते कि 36 साल में भी सत्ता का चरित्र नहीं बदला।

बात भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर हुई थी और देखते-देखते यह लोकतंत्र की हिफाजत के लिए संघर्ष और व्यवस्था में परिवर्तन के बड़े मकसद में तब्दील हो गई थी।सरकारी स्तर पर अन्ना को रोकने की जो कोशिश हुई उसका प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों ही तकाजा साथ तौर पर  अदूरदर्शिता का शिकार होते दिख रहा था।महिलाएं, छात्र तमाम अन्य तबकों ने सड़कों पर निकल कर जतला दिया था कि यह देश किसी सरकार और सत्ता पर काबिज पार्टी से ज्यादा उस परंपरा का है जिसे अहिंसक मूल्यों की गांधीवादी परंपरा कहते हैं।
अन्ना हजारों के रोल मॉडल बन चुके थे।सब के मुंह से अन्ना - अन्ना की आवाजें निकल रही थी एक उम्मीद की किरण जो जागी थी इस देश को बदलने की।
इनकी इस लड़ाई को इतिहास की लंबी यात्रा से जोड़कर देखा जा रहा था। लोक बनाम तंत्र की या विभाजक रेखा किसी दूसरे ने नहीं मात्मा गांधी ने खींची थी जब गोली खाने की पूर्व संध्या पर लिखे अपने आखिरी दस्तावेज में उन्होंने लिखा था 'लोकतंत्र के विकास क्रम में यह अवस्था आने ही वाली है जब लोक और तंत्र में सीधा मुकाबला होगा और उस मुकाबले में लोक की जीत हो इसकी हमें आज से तैयारी करनी है'।
26 जून 1975 की सुबह सूरज अभी आंख भी नहीं खुल पाया था कि इंदिरा गांधी ने सारे देश को जेल में बदल दिया था। पता नहीं यह क्यों है कि तंत्र अपने सारे काले कारनामे सूरज उगने से पहले ही करता है। 1942 में भी ऐसा ही हुआ था और गिरफ्तार गांधी कहां ले जाए गए देश को लंबे समय तक पता नहीं चला। 1975 में दिल्ली से जयप्रकाश को गिरफ्तार कर कहां ले गए किसी को पता नहीं चला। लेकिन लोक अपने पाले आई गेंद का पता कर लिया और फिर खेल कुछ यूं हुआ कि आजादी के बाद पहली बार केंद्र से कांग्रेसी सरकार का बिस्तर बन गया तब जो बंधा से आज तक बना ही हुआ है। अब जब तक उनका बिस्तर लगता है अभी तो दूसरों के सहारे।
अन्ना हजारे ने भी कदम कदम पर अपना आंदोलन जिस तरह खड़ा किया था इसमें इतनी दूर तक आने की संभावना नहीं थी।इस आंदोलन का असली काम तो यह था कि भ्रष्टाचार को पैदा करने वाली अवस्था बदलनी है। अन्ना का कहना था कि या लंबी लड़ाई है जिसे हमें सावधानी से लड़ना है दूसरी बात उन्होंने यह कहा कि जब किसी सरकार को उखाड़ दिया गिराने का आंदोलन नहीं बल्कि साफ शब्दों में भी बोले कि इनको गिराकर क्या होगा जो आएंगे वह कैसे हैं यह भी तो हम देख रहे हैं। सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। इस आंदोलन की आड़ में जो अपनी राजनीति की छोरियां तेज कर रहे थे उन्हें सीधी चोट थी।लेकिन वह यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे यह भी कहा कि अगर सरकार इस आंदोलन का गलत ढंग से मुकाबला करेगी तो जाएगी और इस तरह जाएगी तो मैं उसकी फिक्र नहीं करता हूं। देश जिस तरह जाग उठा है, उसके बाद दो ही बातें होंगी या तो सरकार अपना रवैया बदले गिया सरकार ही बदल जाएगी। अब चुनना सरकार वालों का है।उन्होंने कांग्रेस के दुष्प्रचार का सीधा जवाब दिया कि "अन्ना हजारे संसद की सर्वोपरिता को नहीं मानते हैं।" हम उसे पूरी तरह मानते हैं उसका पूरा सम्मान करते हैं, कानून बनाने के उसके अधिकार को भी स्वीकार करते हैं।

ऐसी तमाम बातें उस दौर में हमें सुनने और देखने को मिला उस वक्त केजरीवाल किरण बेदी और विपक्ष के तमाम लोग अन्ना हजारे समर्थन में खड़े दिखे। लोगों में आक्रोश था कांग्रेस को लेकर जो 2014 के लोकसभा में कांग्रेस के लिए काल बन के आया अब सत्ता भाजपा के हाथ में आ गई । इससे पहले अन्ना के चेले अरविंद केजरीवाल उसी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई जिसके विरोध इन्होंने जंग छिड़ी थी हालांकि यह सरकार 49 दिनों में ही गिर गई। इससे पहले 2013-14 विधानसभा के चुनाव में केजरीवाल ई आम आदमी पार्टी को 28 सीट कांग्रेस को आठ और भाजपा को 24 सीट मिली थी। कांग्रेस की 15 साल से शीला दीक्षित सरकार को बहुत बड़ा झटका लगा। केजरीवाल ने हर वह काम किया है जो उन्होंने चुनाव से पहले वादा किया था कि नहीं करेंगे। यह उनका राजनीतिक चाल था इसके बाद अन्ना हजारे का महत्व खत्म हो गया सब जान गए थे किन का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है यह भी कोई दूध के धुले नहीं। यह सब के सब बरसाती मेंढक हैं और कुछ नहीं। ऐसी तमाम प्रतिक्रियाएं हर तरफ से आ रही थी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद इनका जन लोकपाल बिल वाला आंदोलन शांत सा हो गया। कुछ कांग्रेसियों का कहना था सब एक बहाना था कांग्रेस को पूरी तरह से खत्म करने के लिए। जिसमें यह सफल में हुए नतीजा 2014 लोकसभा चुनाव। ऐसी तमाम आलोचनाओं का सामना करना पड़ा अन्ना को। केजरीवाल आज के दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हुए पूर्ण बहुमत के साथ और अन्ना तो मानो जैसे गुमनामी में जी रहे हैं।