Friday, May 28, 2021

कोरोना से लड़ना है तो दवाई नही ईसाई बनो!

  
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क्या हो रहा है देश में आजकल ? किसी से कुछ छिपा नहीं हैं। बड़े ही भोले और ईमानदार समझा जाता है उन्हे। वो पढ़े लिखे होते है ऐसा बोलकर सम्मान दिया जाता है। कहा ये पंडा ,पुजारी और पाखंडी ब्राह्मण लोगो लूटकर सिर्फ अपना झोला भरते है। ऐसा बोलकर हिंदुओ धर्म की बुराई बतियाने वाले लम्पटो से पूछना चाहता हू की कौन सा हिंदू संगठन आपदा को अवसर बनाकर धर्म परिवर्तन करवा रहा है ? धर्मांतरण का नंगा नाच गांव गांव गली गूचो तक चल रहा है। निशाने पर आदिवासी इलाके और दलितों की बस्ती रहती है। ये कम है ईसाई मिशनरियों का प्रचार प्रसार करने में पढ़े लिखे डॉक्टरों का नाम आ रहा है। मध्य प्रदेश में एक महिला डॉक्‍टर पर 'किल कोरोना अभियान' के दौरान ईसाई धर्म के प्रचार का आरोप लगा है। आरोप है कि वह घर-घर जाकर लोगों को दवाओं और भोजन के बारे में समझाने के साथ ईसाई धर्म का प्रचार कर रही थीं।  डाइट प्लान वाले पर्चे के पीछे हाथों से प्रभु यीशू की प्रार्थना लिख कर दे रही थीं। वह लोगों को समझा रही थीं कि ईसा मसीह की प्रार्थना करो तो कोरोना से बचे रहोगे। इस तथाकथित महिला डॉक्टर का नाम संध्या तिवारी हैै। खबरों के मुताबिक सर्वे  टीम  के साथ बाजना में जब स्थानीय लोगों ने इस पर आपत्ति जताई तो डॉ संध्या ने अपनी गलती मानने से इनकार कर दिया। हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं से उन्होंने कहा कि वे कुछ गलत नहीं कर रही हैं। उनके काम से किसी को नुकसान नहीं पहुंच रहा है। शनिवार को मामले की हिंदू संगठनों द्वारा शिकायत के बाद डॉ संध्या से थाने में पूछताछ की गई। तहसीलदार बीएस ठाकुर की जांच के बाद कलेक्टर ने सीएमएचओ को कार्रवाई के निर्देश दिए थे। इसके बाद उन्हें पद से हटा दिया गया है।
नर्स को ईसाई धर्म का प्रचार करते पकड़ा गया जो कोविड-19 ड्यूटी पर है (छवि: ट्विटर/ वायरल वीडियो का स्क्रीनग्रैब)

ये महिला चिकित्सक अकेले थोड़ी है इस काम में IMA प्रमुख डॉ. जॉनराज ऑस्टिन जयलाल खुलेआम ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे है। स्वास्थ मंत्री हर्षवर्धन जी इनपर कार्यवाही नहीं किए पर बाबा रामदेव से माफी मंगवाने पर अड़ गए। जयलल ने 1000 हजार करोड़ का मानहानि का दावा ठोका है। सच में IMA का  फुलफॉर्म अब इंडियन मिशनरी एसोसिएशन कर दिया जाय तो कुछ गलत नही है। आपदा को अवसर बनाना कोई इनसे सीखे। आयुर्वेद से डॉ जयलाल इतना चिढ़ते है की पूछिए मत। सरकार ने कुछ आयुर्वेद वालो को सर्जरी करने के लिए मंजूरी दे दी थी तो ये अनाप-शनाप बकने लगे थे। जबकि आयुर्वेद के ज्ञाता बनारस में जन्मे आचार्य सुश्रुत को शल्य (सर्जरी) चिकित्सा का जनक माना जाता है। काशिराज दिवोदास धन्वंतरि के सात शिष्यों में प्रमुख आचार्य सुश्रुत को 'फादर आफ प्लास्टिक सर्जरी' यानी प्लास्टिक सर्जरी का पितामह भी कहते हैैं। उन्हें 2500 वर्ष पहले भी प्लास्टिक सर्जरी एवं इसमें इस्तेमाल होने वाले यंत्रों की जानकारी थी।

 डॉ.जयलाल ने क्रिश्चियनिटी टुडे के साथ अपने साक्षात्कार में बिल्कुल चौंकाने वाले और विचित्र बयान दिए, जब उन्होंने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को और अधिक ईसाई डॉक्टरों को लगाने की अपनी योजना के बारे में बात की।
इस इंटरव्यू में डॉ. जयलाल द्वारा की गई कुछ चौंकाने वाली टिप्पणियों में शामिल हैं:

‘वास्तविक विज्ञान’ की वकालत करने के लिए एक अभियान चलाने वाले डॉक्टर ने कहा, “यह केवल सर्वशक्तिमान ईश्वर की कृपा है जो हमें संकट से उबरने और सुरक्षित रहने में मदद करती है और यह उनकी कृपा थी जिसने हमारी रक्षा की।”

उन्होंने क्रिश्चियनिटी टुडे को बताया, “मैं देख सकता हूँ, उत्पीड़न के बीच, कठिनाइयों के बीच, यहाँ तक कि सरकार के नियंत्रण के बीच, खुले तौर पर अपने संदेश की घोषणा करने में हमारे सामने आने वाले प्रतिबंधों के बीच भी ईसाई धर्म बढ़ रहा है।” क्रिश्चियनिटी टुडे ने बाद में इस हिस्से को एडिट किया।
जयलाल ने कहा कि सरकार आयुर्वेद में आस्था रखती है क्योंकि उसका सांस्कृतिक मूल्य और हिंदुत्व में पारंपरिक विश्वास है। डॉ. जयलाल ने कहा, “भारत सरकार, हिंदुत्व में अपने सांस्कृतिक मूल्य और पारंपरिक विश्वास के कारण, आयुर्वेद नामक एक प्रणाली में विश्वास करती है। पिछले तीन-चार सालों से उन्होंने आधुनिक चिकित्सा को इससे बदलने की कोशिश की है। अब 2030 से आपको आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी, योग और प्राकृतिक चिकित्सा के साथ इसका अध्ययन करना होगा।”

जयलाल का तर्क है कि संस्कृत भाषा पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करना एक ऐसा तरीका है जिसके माध्यम से सरकार हिंदुत्व की भाषा को लोगों के दिमाग में लाना चाहती है। डॉ. जयलाल ने क्रिश्चियनिटी टुडे को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, “यह (आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी, योग आदि) भी संस्कृत भाषा पर आधारित है, जो हमेशा पारंपरिक रूप से हिंदू सिद्धांतों पर आधारित होती है। यह सरकार के लिए लोगों के मन में संस्कृत की भाषा और हिंदुत्व की भाषा को पेश करने का एक अप्रत्यक्ष तरीका है।”
एक इंटरव्यू में, जब पूछा गया कि ईसाई समुदाय का हिंदू राष्ट्रवादियों के साथ क्या संबंध है, तो डॉ. जयलाल ने सुझाव दिया कि हिंदुओं को यीशु और मुहम्मद को अपने भगवान के रूप में स्वीकार करना चाहिए क्योंकि उनका धर्म बहुदेववाद पर आधारित है। चूँकि हिंदू कई भगवानों में विश्वास करते हैं, इसलिए डॉ. जयलाल का मानना ​​है कि उनके लिए सहिष्णुता प्रदर्शित करना और ईसाई एवं इस्लामी प्रथाओं को आत्मसात करना मुश्किल नहीं है।

डॉ. जयलाल ने कहा, “हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हिंदू धर्म या हिंदुत्व, बहुदेववाद के कारण अन्य धर्मों से अलग है। वे विभिन्न देवताओं को स्वीकार करते हैं। उन्हें यह स्वीकार करने या घोषित करने में कोई कठिनाई नहीं है कि यीशु देवताओं में से एक हैं या मुहम्मद देवताओं में से एक हैं। इसलिए अन्य देशों की प्रणालियों के साथ तुलना करने पर धार्मिक प्रतिबंध कम होते हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि भारत में यह उतना मुश्किल नहीं है।”

क्या ऐसे लोगों का पद पर बना रहना कही से भी उचित है। क्या इन जैसो को तत्काल बर्खास्त नही करना चाहिए सरकार को? ये सरकार की नौकरी कर रहे है या इसाई मिशनरी का प्रचार? ये डॉक्टर है या पादरी? इन जैसे का इलाज करना बहुत जरूरी है।
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फंडिंग कहा से होती है?
देखा जाए तो गांव गांव में झोला लेकर घूमने वाले ये मिशनरी वाले पैसा देकर तो कभी इंडिया गेट बासमती चावल का बोड़ीया देकर धर्म परिवर्तन करवा देते है। आंध्र प्रदेश का की स्थिति किसी से छिपी नहीं है की वहा किस तरह धर्मांतरण का नंगा नाच हो रहा हैं। इन सबमे वहा के मुख्यमंत्री जगमोहन रेड्डी जो मिशनरीयो को बढ़ावा दे रहे है। सुनने में तो ये भी आ रहा है की मंदिरों का लूटा हुआ धन ये मिशनरी के मिशन में लगा रहे है। 
चर्च को मिल रहे पैसा कहां से आ रहा है, किस लिए आ रहा है तथा इसका उपयोग कैसे हो रहा है इस बात की पूरी जांच होनी चाहिए। विदेश से जो आर्थिक सहायता दे रहे हैं उनका राजनीतिक उद्देश्य क्या है इस बात की भी जांच होनी चाहिए। इस जांच रिपोर्ट के आधार पर सरकार को चर्च के राष्ट्रविरोधी गतिविधि पर आवश्यकीय रोक लगाने चाहिए। सरकार को यह कार्य जल्द से जल्द करना चाहिए, अन्यथा काफी देर हो सकती है। 

(स्रोत: डूपॉलिटिक्स, आप इंडिया, नवभारत टाइम्स आदि )

Tuesday, May 25, 2021

नेपाल: संसद भंग के बाद किस राह पर सियासत

जनसत्ता संवाद
भारत के लिए राहत: ओली की अपनी पार्टी के ही लोग जिस तरह उनका इस्तीफा चाहते थे, उसे देखते हुए चीन के लिए भी ओली के पक्ष में हस्तक्षेप करना संभव नहीं रह गया था । नेपाल का यह नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम जहां चीन के लिए बड़ा झटका है, वहीं भारत के लिए यह राहत का अवसर है, क्योंकि भारत विरोधी ओली सत्ता से बाहर हो चुके हैं।

नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने वहां की संसद भंग कर दी है और इसी साल नवंबर में चुनाव कराने का फैसला किया है। नेपाली कांग्रेस ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का एलान किया है। इससे पहले राष्ट्रपति कार्यालय ने कहा था कि न तो प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली कार्यवाहक सरकार और न ही विपक्ष यह साबित कर पाया कि सरकार बनाने के लिए उनके पास बहुमत है। राष्ट्रपति ने इसी तरह का कदम पिछले साल दिसंबर में भी उठाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताते हुए रद्द  कर दिया था। भारत के पड़ोसी देश में इस बड़ी सियासी कवायद को लेकर कोई टिप्पणी नहीं आई है,लेकिन 
कूटनीतिज्ञ समूचे घटनाक्रम पर निगाह रख रहे है।
चीन के समर्थन व भारत विरोधी एजंडे के जरिए नेपाल की सत्ता संभालने वाले ओली के तीन साल के प्रधानमंत्री काल का 21 मई को तब अचानक अंत हो गया, जब राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने संसद भंग कर दी। मध्यावधि चुनाव कोविड संकट के बीच होंगे। टीकाकरण न कर पाने के कारण नेपाल में कोरोना की स्थिति पहले ही सरकार के नियंत्रण के बाहर है। संविधान विशेषज्ञों ने राष्ट्रपति के फैसले की आलोचना की है। विपक्ष ने उनके निर्णय को असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, निरंकुश और प्रतिगामी बताया है। 149 विपक्षी सांसदों ने राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला किया है, जो कि 275 सदस्यीय संसद में बहुमत के लिए जरूरी 137 की संख्या से कहीं अधिक है।

विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रपति को तीन दलों वाले विपक्ष यानी नेपाली कांग्रेस, प्रचंड के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाली जनता समाजवादी को सरकार बनाने का अवसर देना चाहिए था। सीपीएन-यूएमएल के माधव नेपाल व झलानाथ खनाल धड़े का भी विपक्ष को समर्थन था । नेपाली कांग्रेस के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में विपक्ष ने राष्ट्रपति के सामने बहुमत के लिए जरूरी सांसदों के दस्तखत के साथ सरकार बनाने का दावा भी पेश किया, लेकिन भंडारी ने उस पर विचार नहीं किया । विपक्ष के दावे को ध्वस्त करने के लिए ओली ने राष्ट्रपति के सामने 153 सांसदों के समर्थन का दावा किया था, इसके बावजूद वह विश्वास मत नहीं जीत पाए। हालांकि राष्ट्रपति का कहना है कि चूंकि ओली और विपक्ष-किसी के भी पास बहुमत नहीं है, इसलिए उन्हें संसद भंग करने का फैसला लेना पड़ा । नेपाल में 2023 में आम चुनाव प्रस्तावित है।

विश्वास मत खोने के बाद ओली खुद संसद भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने की बात कर रहे थे। हिंदू वोट पाने के लिए ओली पहले ही भगवान राम और सीता के जन्मस्थान के बारे में टिप्पणी कर विवाद खड़ा कर चुके हैं। ओली ने अयोध्या के नेपाल में होने का भी दावा किया है, जिसका भारत ने हालांकि तीखा विरोध किया, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान ओली नेपाल के हिंदुओं को अपने पाले में करने के लिए एक बार फिर अपना यह दावा दोहराएंगे। इसके अलावा नेपाल के नए और विवादित नक्शे का प्रचार करते हुए ओली खुद को आक्रामक राष्ट्रवादी के रूप में पेश करते हुए जताएंगे कि भारत विरोधी रुख के लिए ही उन्हें जाना पड़ा।

( स्रोत: प्रस्तुत लेख  जनसत्ता  अखबार  से  साभार)

Friday, May 21, 2021

जीवन का सार है वंदेमातरम!


                 (1)  
 मातृभूमि पर मेरा सबकुछ अर्पण 
इससे ही होगा मेरे पूर्वजों का तर्पण
निश्चल प्रेम छिपा है राष्ट्र की माटी में
लहराएगा भगवा तिब्बत की आज़ादी में
लाहौर कराची में परचम फहरा देंगे
सिंधु की प्यास रक्त से बुझा देंगे।।
गिलगिट से गारो पर्वत तक सिर्फ
भारत माता की जय के नारे होंगे...
खंडित भारत माता,स्वतंत्रता अधूरी है
महादेव का रुद्र अवतार जरूरी है।।

                (2)
हिंदू हु राजनीति का केंद्रबिंदु हु...
सदियों से लहूलुहान मेरे मां का आंचल..
क्या उत्तरांचल क्या हिमाचल...
खूनी संघर्षों से जूझता हिमालय
क्या मंदिर क्या देवालय...
काकोरम से कन्याकुमारी!
किसने पूछी हालत हमारी...
वो देखो रोती रक्त के 
आंसू माता हमारी...

          (3)
 हम कोई वक्त नहीं जो बदल जाएंगे
हे भारत माता तेरे ही गीत गाएंगे।
रक्त की एक-एक बूंद है वंदेमातरम
जीवन का सार है वन्देमातरम।।

Tuesday, May 18, 2021

तथाकथित एजेंडो का पिटारा "टूलकिट"

आज बहुत बढ़िया बारिश हुई मानो बहुत दिनों बाद सुकून मिला हो। तीन चार दिन से उमस भरी गर्मी ने हाल बेहाल कर दिया था। इस लॉकडाउन में घर से बाहर निकलना खतरे से खाली नही। सबकुछ रुक सा गया है। पढ़ाई लिखाई तो एक तरह से बर्बाद ही हो चुकी है। इस वुहान वायरस ने झकझोर कर रख दिया है। कुछ तथाकथित न्यूज मीडिया वाले भी कम नही है इसको "इंडियन वेरिएंट" नाम से प्रचारित कर रहे है। बताइए भला जिसकी उत्पत्ति चीन में हुई हो उसे इंडियन वेरिएंट कहना कहा तक ठीक है? बात यही तक नही रह जाती कोई इस कोरोना वायरस को वुहान वायरस कह देता है तो उल्टा उसपर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं।
लाशों की तलाश में निकले पत्रकार आजकल चमक रहे है। सोशल मीडिया के माध्यम से उलूल-जुलूल तथ्यों को लोगो के सामने परोस रहे है। दूसरी लहर ने इनके सूखे जीवन में बरखा कर दी और फिर से जीवन हरा-भरा हो गया है। कुछ मिल भी नही रहा था एजेंडा चलाने के लिए कुछ नही तो यही सही। अब श्मशान घाट के मुर्दे तो बोलेंगे नही कोई तो चाहिए न जो इनकी आवाज बने। पिछले साल करोड़ों भारत में लोग मर रहे थे इनके अनुसार इस बार कुछ नही तो बीस-पच्चीस लाख तो ये मार ही दिए होंगे अपने जादुई आंकड़े का हवाला देकर। देखिए क्या क्या करते है ये लोग इनको ऐसे ही थोड़ी न विदेशियों द्वारा "कोरोना पत्रकार" के टाइटल से नवाजा जा रहा है। 

अफवाह फैलाया जा रहा है की सरकार वुहान वायरस से मरने वालों के आंकड़ों को छिपा रही है। अगर सरकार को छिपाना होता चार हजार से ज्यादा लोगो की मृत्यु हो रही इसे ही न छिपा देती। लाशों को समुद्र या सागर में फेंक दिया जाता जल जीवो का आहार बनने के लिए किसी को खबर ही नहीं लगती। लाशों का तमाशा करके रोजी रोटी चलाया जा रहा है इसके विरोध में बोल दो तो "डर का माहौल है" अब कोई आजाद देश में  पत्रकारिता भी नही कर सकता क्या? पत्रकारों की आजादी छीनी जा रही है!  नकारात्मक खबर दिखाकर वाहा-वाही लूटी जा रही है दुनिया भर से कि "अरे देखो कितना बेहतरीन पत्रकार है सत्य को दिखा रहा है!" 
अफवाह क्या सरासर झूठ बोला जा रहा है इन तथाकथित पत्रकारों द्वारा। गांव समाज से  जुड़ा हुआ  व्यक्ति देखेगा इसको टेलीविजन या सोशल मीडिया पर वो यहीं मानेगा न की इतने बड़े पत्रकार है झूठ थोड़ी बोलेंगे। कुछ नही सब वामपंथी, तथाकथित लिबरलो का एजेंडा है।

कांग्रेसियों का तो टूलकिट वायरल हो रहा है सोशल मीडिया पर जैसे किसान आंदोलन में विदेशी लड़की ग्रेटा थर्नबर्ग का हुआ था। टूलकिट एक माध्यम बन गया है भारत विरोधी एजेंडा चलाने का। भाजपा नेताओं का कहना है कि ये वो दस्तावेज है, जिसके माध्यम से कॉन्ग्रेस ने अपने नेताओं को कोरोना काल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कुम्भ मेला को बदनाम करने के तरीके समझाए हैं। ये टूलकिट दिखाता है कि कॉन्ग्रेस पार्टी किस तरह एक महामारी के वक़्त भी राजनीति का घिनौना खेल खेलने से बाज़ नहीं आती है।इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करने और देश की संस्कृति को निशाना बनाने के निर्देश दिए गए हैं। ईद की भीड़ पर चुप रहने के विशेष निर्देश भी दिए गए हैं। कॉन्ग्रेस के ‘माननियों’ द्वारा इसमें अपने आईटी सेल को ईद और कुम्भ की तुलना करने से बचने की भी सलाह दी गई है।
टूलकिट में कार्यकर्ताओं से आस-पास के अंतिम संस्कार स्थलों से ‘शवों और अंत्येष्टि की तस्वीरों का नाटकीय रूप से उपयोग’ करने के लिए भी कहा गया है। इसके अलावा, स्थानीय कॉन्ग्रेस नेताओं को अस्पतालों में बेड ‘रोकने’ के सुझाव दिए गए हैं, जिसे कॉन्ग्रेस के इशारे पर ही मरीजों को दिया जाएगा। टूलकिट में गुजरात को कोविड के खिलाफ लड़ाई में असफल राज्य बताने के साथ ही कॉन्ग्रेस नेताओं को PM CARES पर भी सवाल उठाने का निर्देश दिए गए हैं। इतना ही नही कुछ भारतीय मीडिया संस्थानों के ‘मित्र पत्रकारों’ से कोरोना के नए स्ट्रेन को ‘इंडियन स्ट्रेन’ लिखवाने के निर्देश दिए गए है ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि खराब हो और इसका नतीजा मोदी को चुनाव में उठाना पड़े।
इन सब से एक बात समझ में तो आही गई होगी की कौन कितना बड़ा दूध का धुला हुआ है। खैर गिद्धों का काम ही क्या है? 

Friday, May 14, 2021

लाशों पर पत्रकारिता

आजकल बड़ा सुर्खिया बटोर रही है अनगिनत अनजान लाशे। कुछ तो माइक और लेकर बैठ जा रहे है श्मशान घाट पर फिर होता लाइव कवरेज जलती हुई लाशों का। देश विकट परिस्थितियों से जूझ रहा और ये मनहूसियत फैला रहे है अपने खूनी खबरों से। कुछ लोग कह रहे है सत्य दिखाना गलत है क्या? नही सत्य दिखाना गलत नही है पर किसी अनजान व्यक्ति के लाश को दिखाना कितना सही है? क्या ये अपमान नही है? श्मशान घाट पर रोज लाश जलती है लोग विभिन्न कारणों से अपने प्राण गवा देते है। जितना जीवन सत्य है उतना मृत्यु भी इस बात कोई झुठला नहीं सकता है। लेकिन असल मुद्दा तो ये है कि आजकल लोग वुहान वायरस से मर रहे है। सरकार को बदनाम करने के लिए लाशों को फुटेज मिल रहा है भले ही देश का नाम खराब हो इन तथाकथित लोगो कि पत्रकारिता चलनी चाहिए।

देखा जाए तो विदेशो में भारत से ज्यादा लोगो की मृत्यु हुई है इस वुहान वायरस से। अमेरिका को ही ले लीजिए उसकी स्थिति देखिए आपको खुद पता चल जायेगा कितनी भयावह स्थिति हो गई है पर वहा की मीडिया क्या अपने आम जनता की लाशों कवरेज दे रही है? अमेरिका छोड़िए यूरोप का ही उदारहरण ले लीजिए। एक तरह से अपना एजेंडा ही चला रहे है ये लोग इनका काम सिर्फ और सिर्फ भारत की छवि बिगाड़नी है। मोदी घृणा में ये कुछ भी करने को तैयार है।विपक्षी दलों नेता वैक्सीन न लगवाने का अपील कर रहे थे कुछ दिन पहिले तक। कुछ नेता तो वैक्सीन लगवाने से नपुंसक हो रहे थे। अब क्या हो रहा है ? अब लाशों का  ढिढोरा पीटा जा रहा है की सरकार गलत कदमों की वजह से मौतें हो रही है। वैक्सीन का उत्पादन क्यों नही हो रहा है? ऑक्सीजन को लेकर भी लोग बवाल खड़ा किए थे।

अब तो गंगा में लाशों के प्रवाह कि खबरे आना शुरू हो गई है। मानो ये घटना लिबरल मीडिया के लिए वरदान साबित हुई है। अब भारत की छवि और धूमिल करेंगे ये तथाकथित पत्रकार। निश्चिंत ही ये सरकारों की जवाबदेही है की आखिर लोग लाश को जल में प्रवाहित क्यों कर रहे है? क्या मामला है की दाह संस्कार करने वाले जगहों पर जल प्रवाह किया जा रहा है? कोरोना संक्रमित लाशो के लोग नजदीक नही चाहते है कही संक्रमण फैल ना जाय पर इसका मतलब ये भी नही की उस मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार भी ढंग से ना हो। किसी का भी परिवार हो चाहे निर्धन असहाय ही क्यों ना हो वो अपने जिगर के टुकड़े का शव क्षत- विक्षत तो नही होने देगा। कुंठित मानसिकता वालो का कुछ कहा नहीं जा सकता उनके लिए अपने जान और माल से बढ़कर कुछ भी नही हैं भले उनका पुत्र उनके सामने क्यों ना दम तोड़ दे। कोई तो पिता की लाश ही नही लेने जा रहा है मजबूरी में अस्पलताल वाले लाश को सामाजिक संस्थाओं के हवाले कर दे रहे है। गंगा में शव बहाना कोई आज की परंपरा नहीं है बहुत पुरानी है पर जल प्रदूषण के रोकथाम के लिए इसपर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया गया है। जो श्मशान में बैठकर लाइव कवरेज दे सकता है मानो पिकनिक मन रहा हो उनके लिए तो ये बहती गंगा में लाशे किसी अमृत से कम थोड़ी है !

Thursday, May 13, 2021

युद्ध कहा तक टाला जाय

क्या मोनू इतना शोर क्यों मच रहा है? कुछ नही भैया सब मातम मना रहे है! आय कैसा मातम यार? कवनो कोरोना से मर गया क्या ? नही , इजराइल ने गाजा पट्टी फिलिस्तीन पर हमला कर दिया। वाह! गजब के लोग पड़े हुए है भारत में जो इजराइल भारत के साथ खड़ा रहता है उसका विरोध चल रहा है। क्या किया जाय ये ये जिहादी मजहबी किसी के नही होते है। फिलिस्तीन पर हमला क्या हुआ मानो इनकी अम्मा मर गई हो। पर इजराइल में रह रही भारतीय महिला सौम्य संतोष की इसी फिलिस्तीन हमास के आतंकी हमले में मृत्यु हो गई इसपर कोई नही बोला। बोलेंगे कैसे? शांतिप्रिय समुदाय वाले जो ठहरे!
शुरुआत में हमास ने दागे थे 130 रॉकेट, जवाबी कार्रवाई में इजराइल ने कर दिया 50 से  ज्यादा आतंकियों का सफाया।इजराइल का साफ संदेश हैं जब तक शत्रुओं का सफाया नही हो जाता शांत नही बैठेंगे, जंग जारी रहेगी। भारत में दो कौंड़ी के लोग इजराइल की विरोध बात करते है जो हमारा मदद कर रहा है इस कोरोना काल में। इस्लामी कट्टरपंथियो का भड़काऊ भाषण देख सकते है इन्हे अपने देश प्यार नही है। ये जिस देश में रहते हैं वहा बस इस्लामिक राज कायम करना चाहतें है। इन्हे बस अपना मजहब दिखता है और कुछ नही। वरना भारत में रहने वाले मुस्लिमो से क्या मतलब की इजराइल फिलिस्तीन में क्या कर रहा है?

पिछले साल ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड का कमांडर सुलेमानी को अमेरिकी सेना ने मार गिराया था इसको भी लेकर भारत के करगिल में  जुलूस निकाला जाता है, अमेरिका के खिलाफ नारेबाजी होती है। इसका क्या अर्थ निकाला जाय ? अगर कल को किसी मुस्लिम राष्ट्र से भारत का युद्ध हो गया तो तो भारत में रह रहे  तथाकथित मुसलमान क्या भारत के साथ  रहेंगे? गजवा ए हिंद का खतरनाक इरादा लेकर चलते है ये तथकथित घृणित मानसिकता वाले पंचर पुत्र जिनका सफाया होना बहुत जरूरी है। बाकी भारत और इजराइल एक दूसरे का समर्थन करते है और करते रहेंगे।

Monday, May 10, 2021

10 मई का शुभ का दिन

आजादी की पहली जंग
[अप्रैल, 1928 में 'किरती' के 1857 के गदर सम्बन्धी अंक में '10 मई का शुभ दिन' नाम से लेख छपा। इसके लेखक का नाम तो नहीं दिया गया, लेकिन यह शहीद भगत सिंह के साथियों का ही लेख है। सम्भवतः भगवतीचरण वोहरा का। वे बहुत 'अच्छे लेखक थे और 'किरती' से गहरे रूप में जुड़े हुए थे। मार्च, 1925 से लेकर जुलाई, 1928 तक भगत सिंह ने 'किरती' के सम्पादकीय विभाग में बहुत ही लगन से काम किया था। यह लेख उसी समय छपा था।.]

"ओ दर्दवाले दिल, दर्द हो चाहे हजार
दस मई का दिन भुलाना नहीं,
इसी रोज छिड़ी 'आजादी की जंग'
वक्त खुशी का गमी लाना नही।"

10 मई वह शुभ दिन है जिस दिन कि 'आजादी की जंग' शुरू हुई थी। भारतवासियों का गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए यह प्रथम प्रयास था। यह प्रयास भारत के दुर्भाग्य से सफल नहीं हुआ, इसीलिए हमारे दुश्मन इस 'आज़ादी की जंग' को 'गदर' और बगावत के नाम से याद करते हैं और इस 'आज़ादी की जंग में लड़नेवाले नायकों को कई तरह की गालियाँ देते हैं। विश्व के इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ मिलती हैं, जहाँ आज़ादी की जंग को कोई बुरे शब्दों में याद किया जाता है। कारण यही है कि वह जंग जीती न जा सकी। यदि विजय हासिल होती तो उन जंगों के नायकों को बुरा-भला न कहा जाता, बल्कि वे विश्व के महापुरुषों में माने जाते और संसार उनकी पूजा करता।
आज दुनिया गैरीबाल्डी और वाशिंगटन की क्यों बड़ाई व इज्जत करती है, इसलिए कि उन्होंने आज़ादी की जंग लड़ी और उसमें सफल हुए। यदि वे सफल न होते तो वे भी ''बागी' और 'गदरी' आदि भद्दे शब्दों में याद किए जाते। लेकिन वे सफल हुए, इसलिए वे महापुरुषों में माने जाने लगे। इसी तरह यदि 1857 की आज़ादी की जंग में तात्या टोपे, नाना साहिब, झाँसी की महारानी, कुमार सिंह (कुँवर सिंह) और मौलवी अहमद साहिब आदि वीर जीत हासिल कर लेते तो आज वे हिन्दुस्तान की आज़ादी के देवता माने जाते और सारे हिन्दुस्तान में उनके सम्मान में राष्ट्रीय त्यौहार मनाया जाता।

हिन्दुस्तान के मौजूदा इतिहासों को, जो कि हमारे हाथों में दिए जाते हैं, पढ़कर हिन्दुस्तानियों के दिलों में उन शुर-वीरों के लिए कोई अच्छी भावनाएँ पैदा नहीं होतीं, क्योंकि उन 'आजादी की जंग' के नायकों को कातिल, डाकू, खूनी, धार्मिक जनूनी व अन्य कई बुरे-बुरे शब्दों में याद किया गया है और उनके विरोधियों को राष्ट्रीय नायक बनाया गया है। कारण यह है कि 1857 की "आजादी की जंग" के जितने इतिहास लिखे गए हैं, वे सारे के सारे ही या तो अंग्रेजो ने लिखे हैं जो कि जबरदस्ती तलवार के जोर पर, लोगों की मर्जी के खिलाफ हिंदुस्तान पर कब्जा जमाए बैठे है और या अंग्रेजो के चाटुकारों ने। जहां तक हमे पता है, इस आजादी की जंग का एकमात्र स्वतंत्र इतिहास लिखा गया, जो कि बैरिस्टर सावरकर ने लिखा था और जिसका नाम "1857 की आजादी की जंग"(The history of the Indian war of Independece 1857) था। यह इतिहास बड़े परिश्रम से लिखा गया था और इंडिया ऑफिस  की लायब्रेरी से छान-बिनकर, कई उद्धरण दे देकर सिद्ध किया गया था कि यह राष्ट्रीय संग्राम था और अंग्रेजो के राज से आजाद होने के लिए लड़ा गया था । लेकिन अत्याचारी सरकार ने इसे छपने ही नही दिया और अग्रिम रूप से जब्त कर लिया। इस तरह लोग सच्चे हालात पढ़ने से वंचित रह गए।

इस जंग की असफलता के बाद जो जुल्म और अत्याचार निर्दोष हिंदुस्तानियों पर किया गया, उसे लिखने की ना तो हमारे में हिम्मत है और न ही किसी और में। यह सब कुछ हिंदुस्तान के आजाद होने पर ही लिखा जाएगा। हां, यदि किसी को इस जुल्म, अत्याचार, और अन्याय का थोड़ा सा नमूना देखना हो तो उन्हें मिस्टर एडवर्ड थॉमसन की पुस्तक, "तस्वीर का दूसरा पहलू" ( The other side of the medal) पढ़नी चाहिए, जिसमें सभ्य अरे जो की करतूतों को उधाड़ा है और जिसमें बताया गया है कि किस तरह नील हैवलॉक, हॉट्स,हडसन कूपर और लॉरेंस ने निर्दोष हिंदुस्तानी स्त्री-बच्चों तक पर ऐसे- ऐसे कह रहे थे कि सुनकर रोए खड़े हो जाते हैं और शरीर कांपने लगता है।

इस बात का ख्याल कर के स्वतंत्र व्यक्तियों को शर्म आएगी की यह लोग भी, जिनके बुजुर्ग इस जंग में लड़े थे, जिन्होंने हिंदुस्तान की आजादी की भाजी पर सब कुछ लगा दिया था और जिन्हें इस पर गर्व होना चाहिए था, वे भी, जंग को आजादी की जंग कहने से डरते हैं। कारण्य की अंग्रेजी अत्याचार ने उन्हें इस कद्र दबा दिया था कि यह सर छुपा कर ही दिन काटते थे। इसलिए उन बुजुर्गों की यादगार मनानी जा स्थापित करनी तो दूर, उनका नाम लेना भी गुनाह समझा जाता था।

लेकिन हालात कुछ ऐसे बन गए कि विदेशों में बसे हिंदुस्तानी नौजवान 10 मई के दिन को राष्ट्रीय त्योहार बनाकर मनाने लगे। और कुछ हिनी (हिंदुस्तानी) नौजवान यहां भारत में भी त्योहार मनाने की कुछ कोशिशें करते रहे हैं। सबसे पहले, जहां तक पता चलता है, त्यौहार इंग्लैंड में "अभिनव भारत" बैरिस्टर सावरकर के नेतृत्व में सन 1907 में मनाया। इस त्यौहार को मनाने का खयाल कैसे आया, कथा इस तरह है (गुलामों में खुद तो ऐसे यादगारी दिन मनाने के ख्याल कम ही पैदा होते हैं)-

"1907 में जब अंग्रेजों ने विचार किया कि 18 57 के गदरियो पर जीत हासिल करने की पचासवीं वर्षगांठ बनानी चाहिए। सो 57 की याद ताजा करने के लिए हिंदुस्तान और इंग्लैंड के प्रसिद्ध अंग्रेजों के अखबारों ने अपने-अपने विशेषांक निकाले, किए गए और लेक्चर दिए और हर तरह के इन कथित ग दरियों को बुरी तरह कोसा गया। यहां तक की जो कुछ भी इनके मन में आया, सब ऊल- जलूल इन्होंने गदरियों के खिलाफ कहा कई कुफ्र किए। इन गालियों और बदनाम करने वाली कार्रवाई के विपरीत सावरकर ने 1857 स्तानी नेताओं-नाना साहिब, महारानी झांसी, तात्या तोपे, कुंवर सिंह, मौलवी अहमद साहिब की याद मनाने के लिए काम शुरू कर दिया, ताकि राष्ट्रीय जंग के सच्चे-सच्चे हालात बताएं जाएं। यह बड़ी बहादुरी का काम था और शुरू भी अंग्रेजी राजधानी में किया गया। आम अंग्रेज नाना साहिब और तान के अक्टूबर को शैतान के वर्ग में समझते थे, इसलिए लगभग सभी हिंदुस्तानी नेताओं ने इस आजादी की जंग को आने वाले दिन में कोई हिस्सा ना लिया। लेकिन मि. सावरकर के साथ सभी नौजवान थे। हिंदुस्तानी घर में एक बड़ी भारी यादगारी मीटिंग बुलाई गई। खवास किए गए और कश्मीर ली गई कि उन बुजुर्गों की याद में एक हफ्ते तक कोई अय्याशी की चीज इस्तेमाल नहीं की जाएगी। छोटे-छोटे पैंफलट 'ओ शहीदों' (Oh! Martyrs) से इंग्लैंड और हिंदुस्तान में बांटे गए। छात्रों ने ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और उच्च कोटि के कॉलेजों में छातियों पर बड़े-बड़े, सुंदर- सुंदर बैज लगाए जिन पर लिखा था, "1857 के शहीदों की इज्जत के लिए!" गलियों -बाजारों में कई जगह झगड़े हो गए। कॉलेज में एक प्रोफेसर आपे से बाहर हो गया और हिंदुस्तानी विद्यार्थियों ने मांग की कि वह माफी मांगे, क्योंकि उसने उन विद्यार्थियों के राष्ट्रीय नेताओं का अपमान किया है और विरोध में सारे के सारे विद्यार्थी कॉलेज से निकल आए। कई की छात्रवृत्तिया मारी गई, कईयों ने उन्हें खुद ही छोड़ दिया। कईयों को उनके मां-बाप ने बुलवा लिया। इंग्लिश तान में राजनीतिक वायुमंडल बड़ा गर्म हो गया और हिंदुस्तानी सरकार बड़ी हैरान हो गई चैन हो गई।"
    (बैरिस्टर सावरकर का जीवन पृष्ठ 45-46, चित्रगुप्त रचित)
इन हालात की खबर जहाँ भी पहुँची, विदेशों में वहाँ-वहाँ दस मई का दिन बड़ी सज-धज से मनाया गया और लोगों में बड़ा जोश आ गया कि अंग्रेज किस प्रकार हमारे राष्ट्रीय वीरों को बदनाम करते हैं। उन्होंने रोष के रूप में मीटिंगें कीं और उनकी याद में 10 मई का दिन हर वर्ष मनाना शुरू कर दिया। काफी समय बाद अभिनव भारत सोसायटी टूट गई और इंग्लैंड में यह दिन मनाना बन्द हो गया, लेकिन कुछ समय बाद अमेरिका में हिन्दुस्तान गदर पार्टी स्थापित हो गई और उसने उसे हर बरस मनाना शुरू कर दिया गदर पार्टी के स्थापित होने के दिन से लेकर अब तक अमेरिका में यह दिन सज-धज से मनाया जाता है। बड़ी भारी मीटिंग होती है, जिसमें सब हिन्दुस्तानी एकत्र होते हैं। उसमें इन 1857 के शूर-वीरों के जीवन और कारनामे बताए जाते हैं। इस तरह इन शहीदों की याद साल-दर-साल ताजा की जाती है और ऐसी कविताएँ-

'ओ दर्द-मन्द दिल, दर्द दे चाहे हजार 
दस मई का दिन भुलाना नहीं।
इस रोज छिड़ी जंग आज़ादी की
बात खुशी की गमी लाना नहीं।'

आदि पढ़ी जाती हैं। विशेषतः 1914-15 में यह पंक्तियां प्रत्येक पुरुष की जीभ पर चढ़ी हुई थी, क्योंकि उस समय भी एक और आजादी की जंग लड़कर हिंदुस्तान को आजाद करवाना चाहते थे। लेकिन यह प्रयास भी असफल हुआ, जिसमें हजारों नौजवानों ने भारत माता फौजी स्वार्थी है लेकिन हमारी गुलामी को न काटा जा सका।
10 मई का दिन क्यों मनाया जाता है? इसका कारण क्या है कि 10 मई के दिन ही अपनी जंग शुरू हुई थी। 10 मई को मेरठ छावनी के 85 वीरों ने चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया था। उनका कोर्ट मार्शल किया गया और प्रत्येक जवान को 10 साल सख्त कैद की सजा दी गई। बाद में 11 सिपाहियों की कैद पर कर 5 साल कर दी गई थी। लेकिन यह सारी कार्रवाई थी इस तरीके से की गई थी कि जिसमें हिंदुस्तानी सिपाहियों के गर्व और मान को भारी चोट पहुंचती थी, वह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। देखने वालों की आंखों से टप टप आंसू गिरते थे। सारे के सारे भूत बने हुए थे। वे 85 जो उनके भाई थे, सभी दुखों-सुखों में शरीक थे, उनके पैरों मैं बेड़ियां डाली हुई थी उनका अपमान सहज करना मुश्किल था, लेकिन कुछ बन नहीं सकता था।
अगले दिन "घुड़सवार और पैदल सेना ने जाकर जेल तोड़ दी, अपने साथियों को छुड़ा लिया, करो के घरों को फूंक डाला। वी जिस यूरोपीय को पकड़ सके, उसे मार डाला और दिल्ली की ओर चढ़ाई कर दी। ग़दर का आरंभ हुई इसी दिन हुआ और 10 मई से ही खेला जाता है।"

गदर आंदोलन को जानने के लिए यहां क्लिक करे-

सो पाठकों ने ऊपर लिखी घटनाओं से देख लिया है कि दस मई का दिन क्यों और कब से मनाना शुरू किया गया। पाठक यह सब हाल पढ़कर देख सकते हैं कि उनका क्या फर्ज है। क्या उन्होंने उस आज़ादी के लिए, जिसलिए कि हजारों-लाखों हिन्दुस्तानियों ने लगा दिए थे और हजारों लगाने के लिए तैयार बैठे थे, आज तक कुछ किया है या नहीं? यदि आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया तो वे कौन-सा मुहूर्त देख रहे हैं? आज़ादी की जंग में शामिल होने के लिए तो साल के 365 दिनों में से 365 ही पवित्र हैं। हर पल भारत माता तुम्हारा इन्तजार कर रही है कि तुम उसकी जंजीरें तोड़ने के लिए अपना फर्ज़ पूरा हो या नहीं। क्या इनसान बनकर आज़ादी हासिल करोगे? इसी सवाल के जवाब से भारत का भविष्य निर्भर करता है।

(इस लेख को "भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज" नामक पुस्तक में छपा है । जिसे ब्लॉग पर  पाठको के लिए प्रकाशित के प्रकाशित किया गया है।)


Tuesday, May 4, 2021

बंगाल "बांग्लादेश" बन गया है

       (तस्वीर का स्रोत :- डूपॉलिटिक्स )

अभी अभी बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम घोषित हुआ है। ईवीएम हैक की शिकायत करने वाली तृणमूल कांग्रेस दल 200 से ज्यादा सीटों के साथ भारी बहुमत के  साथ सत्ता में आई है। पर इतना जोश और उत्साह के साथ उल्लास मनाया जा रहा है इनके कार्यकर्ताओं द्वारा की पूछिए ही मत। लोगो का घर फूंक दिया गया, बीजेपी कार्यालाओ पर तोड़ फोड़ आगजनी देखने को मिली है। भाजपा के समर्थको की हत्या, महिलाओं के रेप की खबरे आ रही है, इतना ही नही बूढ़ी औरतों को घसीट के मार जा रहा है टीएमसी के गुंडों द्वारा और बंगाल प्रशासन मौन पड़ी हुई है। हिंसा की तस्वीरे ऐसी की झकझोर कर रख दे। मानव अधिकार संस्थाएं और तथकथित गांधीवादी, लिबरल समाज के लोग नजर नही आ रहे है। कभी-कभी तो लगता हैं की आतंकियों को फांसी पर लटकाना और जिहादियों का कश्मीर में सेना द्वारा एनकाउंटर ही लोकतंत्र की हत्या है! क्रांतिकारी पत्रकार ऐसे शोर मचाकर रोते है की आतंकी का बाप पूछ बैठता है बेगम लौंडा मेरा मरा है या इनका?
कहा गए जीत की बधाई देने वाले वो तथकतिथ राजनेता जो बड़ा खुश हो रहे थे की भाजपा हार गई। भाजपा की हार जश्न मनाने वाले ममता  से क्या सवाल करेंगे हिंसा को लेकर? जिनका अस्तित्व ही नहीं बचा है वो भी भाजपा के हारने पर हंस रहे थे पर हिंसा पर चुप्पी साध ली है इन लोगो ने मानो कुछ हुआ ही नहीं है। इन मूर्खो को पता होना चाहिए कि भाजपा की सरकार भले ना बनी हो पर एक मजबूत विपक्ष बनकर खड़ा हुआ है! कही ममता नंदीग्राम से हार गई है उसका बदला तो नही उतारा जा रहा है सोचने वाली बात है ये महिला कहा तक गिरेगी।

पश्चिम बंगाल में बीजेपी के नेता दिलीप घोष ने दावा किया कि इलेक्शन के बाद 24 घंटे में बंगाल में 9 बीजेपी कार्यकर्ताओं की जान गई है। वहीं, एक अन्य दावे में 6 बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या की गई है। इन बीजेपी कार्यकर्ताओं के नाम भी सार्वजनिक किए गए हैं। इनमें जगद्दल से शोवा रानी मंडल, राणाघाट से उत्तम घोष, बेलाघाट से अभिजीत सरकार, सोनारपुर दक्षिण से होरोम अधिकारी, सीतलकुची से मोमिक मोइत्रा और बोलपुर से गौरब सरकार शामिल हैं।
 मौन कब तक साधा जाए ? चुप आखिरकार कब तक रहा जाए? घरों में घुसकर महिला इज्जत उतारी जा रही है और बूढ़े लोगों को लात मारी जा रही है। क्या नया बांग्लादेश बनाने की बारी है? हाय रे ! हिंदुओ की कैसी लाचारी है अपने ही घर में अपने ही लोगों के मौत का तमाशा जारी है।
कई जगहों पर मंदिरो को तोड़ा गया है और हिंदुओ को निशाना बनाया जा रहा है।  हिंदू पलायन करने को मजबूर  हो गया है।बंगाल में चुनाव नतीजों के आते ही राजनीतिक गुंडों का आतंक चारों ओर नजर आ रहा है। ये राजनीतिक गुंडे सिर्फ भाजपा कार्यालय और कार्यकर्ताओं के घरों को ही राख नहीं कर रहे, बल्कि हिन्दू मंदिरों, उनकी दुकानों और महिलाओं को भी हिंसा का शिकार बना रहे हैं। देखा जाय तो हत्या का नंगा नाच हो रहा है।

 यकीन मानिए अब बंगाल राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनो तरह से कंगाल हो चुका है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की धरती अब जिन्ना के नाजायज औलादों के भेंट चढ़ गई है। पहले वामपंथियों ने बंगाल को लहूलुहान किया फिर ममता बनर्जी आ आई उसने तो रक्त की नदी ही बहा दी है। देखने वाली बात हैं की केंद्र में भाजपा की सरकार है प्रधामंत्री मोदी जी और  गृहमंत्री अमित शाह इसपर क्या एक्शन लेते है?  अब शांति - वांति से लोगो का पेट भर गया है! घर में घुसकर खुलेआम हत्या करने वालो का सफाया करना जरूरी हो गया है।  अभी जिन्हे मासूम जनता पर अत्याचार नही दिख रहा है तो वो चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाय ! बंगाल पुलिस मौन खड़ी ये सब देख रही है तो हिंदू संगठनों को एक होकर मोर्चा अपने हाथ में लेना  ही होगा।

Saturday, May 1, 2021

क्यों लाशनऊ तो हो सकता हैं, मगर मृत्युगढ़', 'मौत-राष्ट्र' और 'श्मशानस्थान' नहीं?


लेखक:- गौरव राजमोहन नारायण सिंह (हृतिक सिंह)


जब कोई व्यक्ति कुंठा में किसी की मृत्यु पर अपने बंद पड़े छापखाने को चलाने के निम्नस्तरीय प्रयासों में संवेदनशीलता की सारी सीमा पार कर दें, तब हम जैसे परेशान मगर स्वाभिमानी, ऐसे पुरस्कृत बकैताधिश्रेष्ठ को उन्हीं के स्तर पर उतर कर जवाब देने आना पड़ता हैं। सम्मानाधिपति, प्रत्रकार-श्रेष्ठ बकैत, जिन्होंने अपने दैवीय कधों पर राष्ट्रीय चिंतन व चेतना का सम्पूर्ण भार वहन करने का कष्ट लिया हैं, उनके लिए किसी भी शहर की अस्मिता को अपने शब्दकोशिय-ज्ञान के भंडार से चुनें, किसी निम्नस्तरीय व वीभत्सकारी शब्द से अलंकृत करना, कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। महामारी के इस विनाशकारी प्रकोप से दूर, घर की चारदीवारी से बाहर न निकलनेवाले, अपनी गिद्ध-दृष्टि से किसी शहर के लाचार व्यक्ति की कहानी पर राजनीतिक घृणा व विष्ठा का मरहम लगाते है, तो हर उस व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के स्नातक को इस सागर-सी समावेशी भावना में संकीर्णता दिखाई देती हैं। 

अपनी संकुचित विचारधारा के मद में चूर बकैत-राज नें, लखनऊ का नाम बदल कर 'लाशनऊ' कर दिया। तर्क में बकैत-पुरुष, शुरुआत में एक बुज़ुर्ग पत्रकार की लाचारियों भारी मृत्यु से करते हैं, जिसका शोक हमें भी हैं, मगर उसमें बकैत-राज अपना प्रपंच ना जोड़े, ऐसा संभव कहाँ। पूरे देश में महामारी के इसी कठिन अवसर पर अपनी अवसादग्रस्त वैचारिक विपन्नता का प्रदर्शन, किसी की लाश से करना, क्या कोई भी सभ्य समाज में सोच सकता हैं! मगर जहाँ के पत्रकारिता जगत में स्वयंभू-श्रेष्ठाधिपति श्री बकैत-राज, अपनी दैवीय आभा से पूरे जगत को अलंकृत कर रहे हों, वहाँ न सिर्फ इसकी उम्मीद की जा सकती हैं, बल्कि इसे समाज में एक विशेष वर्ग की स्वीकारिता भी प्राप्त हो जाती हैं।

हमें मालूम हैं की कुछ चरमपंथी, नामपंथी, वामी-दंगाइयों के मसीहा पर एक व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वाला इतना कुछ लिख दें, तो ज़ाहिर हैं, मसिहा-प्रेमियों की कुंठा कितनी होगी, राम ही जाने ! एक आम व्यक्ति अपने भावों के शब्द तभी देता है, जब किसी भी चीज़ की अति होती हैं। मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं को बेचकर अपने हित साधना बिकुल भी सही नहीं हैं। आख़िर महामारी पूरे देश में फ़ैली है, तो फ़िर सिर्फ लखनऊ, भोपाल और अहमदाबाद ही क्यों? सिर्फ़ इनका ही नामकरण क्यों किया हैं, क्यों नहीं मुंबई का 'मुर्दाबई' नहीं हो सकता, मगर लखनऊ का 'लाशनऊ' हो सकता हैं !

हमें याद है वो दिन जब इस देश में पहली महामारी की लहर आयी थी तब देश के तथाकथित 'बेस्ट सीएम' वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों व उनकी तथाकथित रणनीति की बकैत तारीफ़ करते नहीं थकते थे। रोज़ अपने बिगहा-भर लेख और रात की पंचायत में प्रपंच ! आंकड़े हो या फ़िर आखों-देखा हाल, कौन इस बात को झुठला सकता हैं की संक्रमण महानगरों से ही फैला चाहें धारावी हो या आनंद विहार, तस्वीरें तो झूठ नहीं बोलती। हम कैसे वो दिन भूल सकते हैं, जब इन्हीं महानगरों के सर्वेसर्वाओं के 'सु-राज' में भूखे-प्यासे मज़दूर मिलों का सफ़र पैदल तय करने पर मजबूर हुए थे। उस फेक न्यूज़ को कौन भूल सकता हैं जब बकैताधिराज ने सूरत से सीवान की रेल गाड़ी को नौ दिन में पहुँचा दिया था। आज जो संक्रमण तेज़ी से फैल रहा है उसकी ज़िम्मेदारी क्या इनकी नहीं थी, सवाल तो होना ही चाहिए। आज देश में संक्रमण से सबसे ज़्यादा मृत्यु दर जिन राज्यों की हैं, वहाँ संक्रमित व्यक्ति की पुकार और समस्या पर लाशनाऊ जैसे शब्द क्यों नहीं गढ़े जाते। क्यों उन प्रभावित राज्यों की मार्मिक चर्चा नहीं होती जहां 68,000 और 16,000 से ज़्यादा मृत्यु सिर्फ सिस्टम के फ़ेल होने के कारण चली गई। हॉस्पिटल में आग लगने और हादसों पर क्यों बकैत-राज की चर्चा और दृष्टि सिर्फ कुछ राज्यों पर ही पढ़ती है। इन गैर-मामूली सवालों का उत्तर सिर्फ इतना हैं की, क्योंकि बकैत-राज को भी तो किसी की गोदी में इठलाना हैं। आख़िर इसीलिए तो 'मृत्युगढ़', 'मौत-राष्ट्र' और 'श्मशानस्थान' जैसे अलंकरण नहीं इस्तेमाल किए गए जाते। 

धूर्त और कपटी होने की एक सीमा होती है। मग़र उसकी भी सीमा लांघ चुके बकैत-राज को इस विकट परिस्थितियों में 3,693 करोड़ रुपये 43 मुनिसिपल करपोर्टरों के बंगले पर ख़र्च करनेवाली सरकार से सवाल करने से परहेज़ क्यों होता हैं। क्यों वो विज्ञापन वाली सरकार से ये नहीं पूछते की 3 दिन में ऐसा क्या हुआ की ऑक्सिजन और बेड खत्म हो गए, क्यों आखिर 8 की जगह सिर्फ 1 ही पीएसए ऑक्सीजन प्लांट लगा, क्यों पिछले 6 साल से 30,000 बेड बढ़ानेवाले, एक भी बेड न बढ़ा सकें? क्या ये आंकड़े और तथ्य नहीं? अगर आज ये महानगरों के 'बेस्ट सीएम' जो फ़िर से अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए तालाबंदी कर रहे हैं, क्या उससे जो पुनः पलायन की स्थिति हो रही है, क्या वो संक्रमण नहीं फैला रहा हैं? इसका जिम्मेदार कौन हैं? 

जिस 'लहसुन बाघ' की सोच से कुंभ और भाजपा की रैलियों पर सवाल खड़े करते हैं, क्यों नहीं यही सवाल डकैत और उनके झुंड से पूछे जाते है की संक्रमण-काल में दिल्ली बॉर्डर पर क्यों बैठे हों, वहां दो गज़ की दूरी नहीं दिखती? क्यों दीदी की रैलियों की भीड़ में कोरोना नहीं होता? आख़िर मुनाफ़क़त क्यों बकैताधिश्रेष्ठ? 

लेकिन हमें लगता हैं की इसमें बकैत-श्रेष्ठ की गलती नहीं, क्योंकि जिसकी दिलचस्पी एक राज्य के चुनावों में भी केंद्र की एन्टी-इनकम्बेंसी को ढूढ़ने की हो, उसकी पत्रकारिता भी तो 'सु-सु दर्ज़े' की ही होगी। ऐसा बौद्धिक स्तर भगवान इसी गिरोह के प्रतिपादकों और उनके शुभचिन्तकों को ही दे। सवालों से बचकर अपने मफ़ाद की खबरों चलाकर पत्रकारिता का निष्पक्ष स्तंभ बताने का ढोंग बंद करो बकैताधिराज। किसी की मृत्यु पर अपना एजेंडा ठेलने से अपना ही चहरा मलीन करते हुए कब तक अपनी निम्न पत्रकारिता करोगें। हम इस बात से कभी इनकार नहीं करते कि परेशानी में हम सभी हैं, बहुत विकट परिस्थितियों से पूरा देश परेशान हैं। मग़र इस परिस्थिति में अपनी बंद पड़ी दुकान के लिए अवसर तलाश करना ये बिल्कुल भी सही नहीं है। आज ये जो स्तिथि बानी है इसका जिम्मेदार हर कोई हैं, खुले बाज़ार में नीचे होते मास्क और भीड़-भाड़, रैलियों में जाने वाले लोगो और उनको कवर करनेवाले पत्रकार, सभी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। ज़िम्मेदार तो वो भी है जिनके ऊपर ज़िम्मेदारी थी की न सिर्फ दूसरों को उनकी जिम्मेदारी बताए बल्कि उसके लिए कुछ कठोर क़दम भी उठाए, मगर जब उनकी प्राथमिकता ही आंदोलनों के अधिकार और दूसरी अन्य गैर-जरूरी मसलों पर हो, तो आज जागने से कोई फायदा नहीं। 

आज परिस्थितियों ऐसी नहीं है जिसपर सियासत की जा सके और ना ही किसी आम आदमी के पास इतना समय हैं की वो इन सवालों से वार-पलटवार कर ऐसे बकैतो को सारे बाज़र शर्मशार करे। मगर जब सभ्य समाज में मानवीय मूल्यों की संवेदनशीलता पर 'लाशनऊ' जैसा तंज, राजनैतिक द्वेष से किया जाए, तब इसको ना तो बर्दाशत किया जा सकता हैं और ना ही भुलाया जा सकता हैं। इसलिए समाज के ऐसे धूर्त व कपटी शकुनियों की बकैती का जवाब देना आवश्यक हैं, क्योंकि खुद महात्मा गांधी जी भी इस बात पर विश्वास करते थे की शिक्षा ही मानव के सर्वांगीण विकास व अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। इसीलिए हम जैसे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के स्नातकों पर ये ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती हैं ।

नोट:-  व्यंग्य शैली में लिखे इस लेख में किसी भी व्यक्ति, समाज या समूह का अपमान का आशय नहीं हैं। यह एक भाव-अभिव्यक्ति अतः आप इसे उसी परिपेक्ष्य में लें।

(लेखक  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक और हिंदी पत्रकारिता में डिप्लोमा  है।)