Saturday, May 1, 2021

क्यों लाशनऊ तो हो सकता हैं, मगर मृत्युगढ़', 'मौत-राष्ट्र' और 'श्मशानस्थान' नहीं?


लेखक:- गौरव राजमोहन नारायण सिंह (हृतिक सिंह)


जब कोई व्यक्ति कुंठा में किसी की मृत्यु पर अपने बंद पड़े छापखाने को चलाने के निम्नस्तरीय प्रयासों में संवेदनशीलता की सारी सीमा पार कर दें, तब हम जैसे परेशान मगर स्वाभिमानी, ऐसे पुरस्कृत बकैताधिश्रेष्ठ को उन्हीं के स्तर पर उतर कर जवाब देने आना पड़ता हैं। सम्मानाधिपति, प्रत्रकार-श्रेष्ठ बकैत, जिन्होंने अपने दैवीय कधों पर राष्ट्रीय चिंतन व चेतना का सम्पूर्ण भार वहन करने का कष्ट लिया हैं, उनके लिए किसी भी शहर की अस्मिता को अपने शब्दकोशिय-ज्ञान के भंडार से चुनें, किसी निम्नस्तरीय व वीभत्सकारी शब्द से अलंकृत करना, कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। महामारी के इस विनाशकारी प्रकोप से दूर, घर की चारदीवारी से बाहर न निकलनेवाले, अपनी गिद्ध-दृष्टि से किसी शहर के लाचार व्यक्ति की कहानी पर राजनीतिक घृणा व विष्ठा का मरहम लगाते है, तो हर उस व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के स्नातक को इस सागर-सी समावेशी भावना में संकीर्णता दिखाई देती हैं। 

अपनी संकुचित विचारधारा के मद में चूर बकैत-राज नें, लखनऊ का नाम बदल कर 'लाशनऊ' कर दिया। तर्क में बकैत-पुरुष, शुरुआत में एक बुज़ुर्ग पत्रकार की लाचारियों भारी मृत्यु से करते हैं, जिसका शोक हमें भी हैं, मगर उसमें बकैत-राज अपना प्रपंच ना जोड़े, ऐसा संभव कहाँ। पूरे देश में महामारी के इसी कठिन अवसर पर अपनी अवसादग्रस्त वैचारिक विपन्नता का प्रदर्शन, किसी की लाश से करना, क्या कोई भी सभ्य समाज में सोच सकता हैं! मगर जहाँ के पत्रकारिता जगत में स्वयंभू-श्रेष्ठाधिपति श्री बकैत-राज, अपनी दैवीय आभा से पूरे जगत को अलंकृत कर रहे हों, वहाँ न सिर्फ इसकी उम्मीद की जा सकती हैं, बल्कि इसे समाज में एक विशेष वर्ग की स्वीकारिता भी प्राप्त हो जाती हैं।

हमें मालूम हैं की कुछ चरमपंथी, नामपंथी, वामी-दंगाइयों के मसीहा पर एक व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वाला इतना कुछ लिख दें, तो ज़ाहिर हैं, मसिहा-प्रेमियों की कुंठा कितनी होगी, राम ही जाने ! एक आम व्यक्ति अपने भावों के शब्द तभी देता है, जब किसी भी चीज़ की अति होती हैं। मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं को बेचकर अपने हित साधना बिकुल भी सही नहीं हैं। आख़िर महामारी पूरे देश में फ़ैली है, तो फ़िर सिर्फ लखनऊ, भोपाल और अहमदाबाद ही क्यों? सिर्फ़ इनका ही नामकरण क्यों किया हैं, क्यों नहीं मुंबई का 'मुर्दाबई' नहीं हो सकता, मगर लखनऊ का 'लाशनऊ' हो सकता हैं !

हमें याद है वो दिन जब इस देश में पहली महामारी की लहर आयी थी तब देश के तथाकथित 'बेस्ट सीएम' वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों व उनकी तथाकथित रणनीति की बकैत तारीफ़ करते नहीं थकते थे। रोज़ अपने बिगहा-भर लेख और रात की पंचायत में प्रपंच ! आंकड़े हो या फ़िर आखों-देखा हाल, कौन इस बात को झुठला सकता हैं की संक्रमण महानगरों से ही फैला चाहें धारावी हो या आनंद विहार, तस्वीरें तो झूठ नहीं बोलती। हम कैसे वो दिन भूल सकते हैं, जब इन्हीं महानगरों के सर्वेसर्वाओं के 'सु-राज' में भूखे-प्यासे मज़दूर मिलों का सफ़र पैदल तय करने पर मजबूर हुए थे। उस फेक न्यूज़ को कौन भूल सकता हैं जब बकैताधिराज ने सूरत से सीवान की रेल गाड़ी को नौ दिन में पहुँचा दिया था। आज जो संक्रमण तेज़ी से फैल रहा है उसकी ज़िम्मेदारी क्या इनकी नहीं थी, सवाल तो होना ही चाहिए। आज देश में संक्रमण से सबसे ज़्यादा मृत्यु दर जिन राज्यों की हैं, वहाँ संक्रमित व्यक्ति की पुकार और समस्या पर लाशनाऊ जैसे शब्द क्यों नहीं गढ़े जाते। क्यों उन प्रभावित राज्यों की मार्मिक चर्चा नहीं होती जहां 68,000 और 16,000 से ज़्यादा मृत्यु सिर्फ सिस्टम के फ़ेल होने के कारण चली गई। हॉस्पिटल में आग लगने और हादसों पर क्यों बकैत-राज की चर्चा और दृष्टि सिर्फ कुछ राज्यों पर ही पढ़ती है। इन गैर-मामूली सवालों का उत्तर सिर्फ इतना हैं की, क्योंकि बकैत-राज को भी तो किसी की गोदी में इठलाना हैं। आख़िर इसीलिए तो 'मृत्युगढ़', 'मौत-राष्ट्र' और 'श्मशानस्थान' जैसे अलंकरण नहीं इस्तेमाल किए गए जाते। 

धूर्त और कपटी होने की एक सीमा होती है। मग़र उसकी भी सीमा लांघ चुके बकैत-राज को इस विकट परिस्थितियों में 3,693 करोड़ रुपये 43 मुनिसिपल करपोर्टरों के बंगले पर ख़र्च करनेवाली सरकार से सवाल करने से परहेज़ क्यों होता हैं। क्यों वो विज्ञापन वाली सरकार से ये नहीं पूछते की 3 दिन में ऐसा क्या हुआ की ऑक्सिजन और बेड खत्म हो गए, क्यों आखिर 8 की जगह सिर्फ 1 ही पीएसए ऑक्सीजन प्लांट लगा, क्यों पिछले 6 साल से 30,000 बेड बढ़ानेवाले, एक भी बेड न बढ़ा सकें? क्या ये आंकड़े और तथ्य नहीं? अगर आज ये महानगरों के 'बेस्ट सीएम' जो फ़िर से अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए तालाबंदी कर रहे हैं, क्या उससे जो पुनः पलायन की स्थिति हो रही है, क्या वो संक्रमण नहीं फैला रहा हैं? इसका जिम्मेदार कौन हैं? 

जिस 'लहसुन बाघ' की सोच से कुंभ और भाजपा की रैलियों पर सवाल खड़े करते हैं, क्यों नहीं यही सवाल डकैत और उनके झुंड से पूछे जाते है की संक्रमण-काल में दिल्ली बॉर्डर पर क्यों बैठे हों, वहां दो गज़ की दूरी नहीं दिखती? क्यों दीदी की रैलियों की भीड़ में कोरोना नहीं होता? आख़िर मुनाफ़क़त क्यों बकैताधिश्रेष्ठ? 

लेकिन हमें लगता हैं की इसमें बकैत-श्रेष्ठ की गलती नहीं, क्योंकि जिसकी दिलचस्पी एक राज्य के चुनावों में भी केंद्र की एन्टी-इनकम्बेंसी को ढूढ़ने की हो, उसकी पत्रकारिता भी तो 'सु-सु दर्ज़े' की ही होगी। ऐसा बौद्धिक स्तर भगवान इसी गिरोह के प्रतिपादकों और उनके शुभचिन्तकों को ही दे। सवालों से बचकर अपने मफ़ाद की खबरों चलाकर पत्रकारिता का निष्पक्ष स्तंभ बताने का ढोंग बंद करो बकैताधिराज। किसी की मृत्यु पर अपना एजेंडा ठेलने से अपना ही चहरा मलीन करते हुए कब तक अपनी निम्न पत्रकारिता करोगें। हम इस बात से कभी इनकार नहीं करते कि परेशानी में हम सभी हैं, बहुत विकट परिस्थितियों से पूरा देश परेशान हैं। मग़र इस परिस्थिति में अपनी बंद पड़ी दुकान के लिए अवसर तलाश करना ये बिल्कुल भी सही नहीं है। आज ये जो स्तिथि बानी है इसका जिम्मेदार हर कोई हैं, खुले बाज़ार में नीचे होते मास्क और भीड़-भाड़, रैलियों में जाने वाले लोगो और उनको कवर करनेवाले पत्रकार, सभी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। ज़िम्मेदार तो वो भी है जिनके ऊपर ज़िम्मेदारी थी की न सिर्फ दूसरों को उनकी जिम्मेदारी बताए बल्कि उसके लिए कुछ कठोर क़दम भी उठाए, मगर जब उनकी प्राथमिकता ही आंदोलनों के अधिकार और दूसरी अन्य गैर-जरूरी मसलों पर हो, तो आज जागने से कोई फायदा नहीं। 

आज परिस्थितियों ऐसी नहीं है जिसपर सियासत की जा सके और ना ही किसी आम आदमी के पास इतना समय हैं की वो इन सवालों से वार-पलटवार कर ऐसे बकैतो को सारे बाज़र शर्मशार करे। मगर जब सभ्य समाज में मानवीय मूल्यों की संवेदनशीलता पर 'लाशनऊ' जैसा तंज, राजनैतिक द्वेष से किया जाए, तब इसको ना तो बर्दाशत किया जा सकता हैं और ना ही भुलाया जा सकता हैं। इसलिए समाज के ऐसे धूर्त व कपटी शकुनियों की बकैती का जवाब देना आवश्यक हैं, क्योंकि खुद महात्मा गांधी जी भी इस बात पर विश्वास करते थे की शिक्षा ही मानव के सर्वांगीण विकास व अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। इसीलिए हम जैसे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के स्नातकों पर ये ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती हैं ।

नोट:-  व्यंग्य शैली में लिखे इस लेख में किसी भी व्यक्ति, समाज या समूह का अपमान का आशय नहीं हैं। यह एक भाव-अभिव्यक्ति अतः आप इसे उसी परिपेक्ष्य में लें।

(लेखक  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक और हिंदी पत्रकारिता में डिप्लोमा  है।)

8 comments:

  1. बेहतरीन समसामयिक, आँखें खोल देनेवाली आलेख।

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    1. धन्यवाद पुरूषोत्तम जी। स्वागत है आपका राष्ट्रचिंतक ब्लॉग पर।🌻

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  2. यथार्थवादी समसामयिक लेख ।

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    1. आपका बहुत धन्यवाद जिज्ञासा जी🌻

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  3. पूर्णतः सहमत हूँ आपसे ... बहुत सी बाते होती रहती हैं जिनका दुःख हर किसी को होता है ... फिर ये महामारी है पर इसका इस्तेमाल सिर्फ गिद्ध ही करते हैं अपने भले के लिए ... जो कर रहे हैं वामी, कामी, ....

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    1. धन्यवाद सर आपका महत्वपूर्ण टिप्पणी के लिए। वही न इनका काम ही क्या है जनता का खून बहाकर किरांती करना..

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  4. अत्यंत धारदार लेखन ।

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