Monday, May 10, 2021

10 मई का शुभ का दिन

आजादी की पहली जंग
[अप्रैल, 1928 में 'किरती' के 1857 के गदर सम्बन्धी अंक में '10 मई का शुभ दिन' नाम से लेख छपा। इसके लेखक का नाम तो नहीं दिया गया, लेकिन यह शहीद भगत सिंह के साथियों का ही लेख है। सम्भवतः भगवतीचरण वोहरा का। वे बहुत 'अच्छे लेखक थे और 'किरती' से गहरे रूप में जुड़े हुए थे। मार्च, 1925 से लेकर जुलाई, 1928 तक भगत सिंह ने 'किरती' के सम्पादकीय विभाग में बहुत ही लगन से काम किया था। यह लेख उसी समय छपा था।.]

"ओ दर्दवाले दिल, दर्द हो चाहे हजार
दस मई का दिन भुलाना नहीं,
इसी रोज छिड़ी 'आजादी की जंग'
वक्त खुशी का गमी लाना नही।"

10 मई वह शुभ दिन है जिस दिन कि 'आजादी की जंग' शुरू हुई थी। भारतवासियों का गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए यह प्रथम प्रयास था। यह प्रयास भारत के दुर्भाग्य से सफल नहीं हुआ, इसीलिए हमारे दुश्मन इस 'आज़ादी की जंग' को 'गदर' और बगावत के नाम से याद करते हैं और इस 'आज़ादी की जंग में लड़नेवाले नायकों को कई तरह की गालियाँ देते हैं। विश्व के इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ मिलती हैं, जहाँ आज़ादी की जंग को कोई बुरे शब्दों में याद किया जाता है। कारण यही है कि वह जंग जीती न जा सकी। यदि विजय हासिल होती तो उन जंगों के नायकों को बुरा-भला न कहा जाता, बल्कि वे विश्व के महापुरुषों में माने जाते और संसार उनकी पूजा करता।
आज दुनिया गैरीबाल्डी और वाशिंगटन की क्यों बड़ाई व इज्जत करती है, इसलिए कि उन्होंने आज़ादी की जंग लड़ी और उसमें सफल हुए। यदि वे सफल न होते तो वे भी ''बागी' और 'गदरी' आदि भद्दे शब्दों में याद किए जाते। लेकिन वे सफल हुए, इसलिए वे महापुरुषों में माने जाने लगे। इसी तरह यदि 1857 की आज़ादी की जंग में तात्या टोपे, नाना साहिब, झाँसी की महारानी, कुमार सिंह (कुँवर सिंह) और मौलवी अहमद साहिब आदि वीर जीत हासिल कर लेते तो आज वे हिन्दुस्तान की आज़ादी के देवता माने जाते और सारे हिन्दुस्तान में उनके सम्मान में राष्ट्रीय त्यौहार मनाया जाता।

हिन्दुस्तान के मौजूदा इतिहासों को, जो कि हमारे हाथों में दिए जाते हैं, पढ़कर हिन्दुस्तानियों के दिलों में उन शुर-वीरों के लिए कोई अच्छी भावनाएँ पैदा नहीं होतीं, क्योंकि उन 'आजादी की जंग' के नायकों को कातिल, डाकू, खूनी, धार्मिक जनूनी व अन्य कई बुरे-बुरे शब्दों में याद किया गया है और उनके विरोधियों को राष्ट्रीय नायक बनाया गया है। कारण यह है कि 1857 की "आजादी की जंग" के जितने इतिहास लिखे गए हैं, वे सारे के सारे ही या तो अंग्रेजो ने लिखे हैं जो कि जबरदस्ती तलवार के जोर पर, लोगों की मर्जी के खिलाफ हिंदुस्तान पर कब्जा जमाए बैठे है और या अंग्रेजो के चाटुकारों ने। जहां तक हमे पता है, इस आजादी की जंग का एकमात्र स्वतंत्र इतिहास लिखा गया, जो कि बैरिस्टर सावरकर ने लिखा था और जिसका नाम "1857 की आजादी की जंग"(The history of the Indian war of Independece 1857) था। यह इतिहास बड़े परिश्रम से लिखा गया था और इंडिया ऑफिस  की लायब्रेरी से छान-बिनकर, कई उद्धरण दे देकर सिद्ध किया गया था कि यह राष्ट्रीय संग्राम था और अंग्रेजो के राज से आजाद होने के लिए लड़ा गया था । लेकिन अत्याचारी सरकार ने इसे छपने ही नही दिया और अग्रिम रूप से जब्त कर लिया। इस तरह लोग सच्चे हालात पढ़ने से वंचित रह गए।

इस जंग की असफलता के बाद जो जुल्म और अत्याचार निर्दोष हिंदुस्तानियों पर किया गया, उसे लिखने की ना तो हमारे में हिम्मत है और न ही किसी और में। यह सब कुछ हिंदुस्तान के आजाद होने पर ही लिखा जाएगा। हां, यदि किसी को इस जुल्म, अत्याचार, और अन्याय का थोड़ा सा नमूना देखना हो तो उन्हें मिस्टर एडवर्ड थॉमसन की पुस्तक, "तस्वीर का दूसरा पहलू" ( The other side of the medal) पढ़नी चाहिए, जिसमें सभ्य अरे जो की करतूतों को उधाड़ा है और जिसमें बताया गया है कि किस तरह नील हैवलॉक, हॉट्स,हडसन कूपर और लॉरेंस ने निर्दोष हिंदुस्तानी स्त्री-बच्चों तक पर ऐसे- ऐसे कह रहे थे कि सुनकर रोए खड़े हो जाते हैं और शरीर कांपने लगता है।

इस बात का ख्याल कर के स्वतंत्र व्यक्तियों को शर्म आएगी की यह लोग भी, जिनके बुजुर्ग इस जंग में लड़े थे, जिन्होंने हिंदुस्तान की आजादी की भाजी पर सब कुछ लगा दिया था और जिन्हें इस पर गर्व होना चाहिए था, वे भी, जंग को आजादी की जंग कहने से डरते हैं। कारण्य की अंग्रेजी अत्याचार ने उन्हें इस कद्र दबा दिया था कि यह सर छुपा कर ही दिन काटते थे। इसलिए उन बुजुर्गों की यादगार मनानी जा स्थापित करनी तो दूर, उनका नाम लेना भी गुनाह समझा जाता था।

लेकिन हालात कुछ ऐसे बन गए कि विदेशों में बसे हिंदुस्तानी नौजवान 10 मई के दिन को राष्ट्रीय त्योहार बनाकर मनाने लगे। और कुछ हिनी (हिंदुस्तानी) नौजवान यहां भारत में भी त्योहार मनाने की कुछ कोशिशें करते रहे हैं। सबसे पहले, जहां तक पता चलता है, त्यौहार इंग्लैंड में "अभिनव भारत" बैरिस्टर सावरकर के नेतृत्व में सन 1907 में मनाया। इस त्यौहार को मनाने का खयाल कैसे आया, कथा इस तरह है (गुलामों में खुद तो ऐसे यादगारी दिन मनाने के ख्याल कम ही पैदा होते हैं)-

"1907 में जब अंग्रेजों ने विचार किया कि 18 57 के गदरियो पर जीत हासिल करने की पचासवीं वर्षगांठ बनानी चाहिए। सो 57 की याद ताजा करने के लिए हिंदुस्तान और इंग्लैंड के प्रसिद्ध अंग्रेजों के अखबारों ने अपने-अपने विशेषांक निकाले, किए गए और लेक्चर दिए और हर तरह के इन कथित ग दरियों को बुरी तरह कोसा गया। यहां तक की जो कुछ भी इनके मन में आया, सब ऊल- जलूल इन्होंने गदरियों के खिलाफ कहा कई कुफ्र किए। इन गालियों और बदनाम करने वाली कार्रवाई के विपरीत सावरकर ने 1857 स्तानी नेताओं-नाना साहिब, महारानी झांसी, तात्या तोपे, कुंवर सिंह, मौलवी अहमद साहिब की याद मनाने के लिए काम शुरू कर दिया, ताकि राष्ट्रीय जंग के सच्चे-सच्चे हालात बताएं जाएं। यह बड़ी बहादुरी का काम था और शुरू भी अंग्रेजी राजधानी में किया गया। आम अंग्रेज नाना साहिब और तान के अक्टूबर को शैतान के वर्ग में समझते थे, इसलिए लगभग सभी हिंदुस्तानी नेताओं ने इस आजादी की जंग को आने वाले दिन में कोई हिस्सा ना लिया। लेकिन मि. सावरकर के साथ सभी नौजवान थे। हिंदुस्तानी घर में एक बड़ी भारी यादगारी मीटिंग बुलाई गई। खवास किए गए और कश्मीर ली गई कि उन बुजुर्गों की याद में एक हफ्ते तक कोई अय्याशी की चीज इस्तेमाल नहीं की जाएगी। छोटे-छोटे पैंफलट 'ओ शहीदों' (Oh! Martyrs) से इंग्लैंड और हिंदुस्तान में बांटे गए। छात्रों ने ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और उच्च कोटि के कॉलेजों में छातियों पर बड़े-बड़े, सुंदर- सुंदर बैज लगाए जिन पर लिखा था, "1857 के शहीदों की इज्जत के लिए!" गलियों -बाजारों में कई जगह झगड़े हो गए। कॉलेज में एक प्रोफेसर आपे से बाहर हो गया और हिंदुस्तानी विद्यार्थियों ने मांग की कि वह माफी मांगे, क्योंकि उसने उन विद्यार्थियों के राष्ट्रीय नेताओं का अपमान किया है और विरोध में सारे के सारे विद्यार्थी कॉलेज से निकल आए। कई की छात्रवृत्तिया मारी गई, कईयों ने उन्हें खुद ही छोड़ दिया। कईयों को उनके मां-बाप ने बुलवा लिया। इंग्लिश तान में राजनीतिक वायुमंडल बड़ा गर्म हो गया और हिंदुस्तानी सरकार बड़ी हैरान हो गई चैन हो गई।"
    (बैरिस्टर सावरकर का जीवन पृष्ठ 45-46, चित्रगुप्त रचित)
इन हालात की खबर जहाँ भी पहुँची, विदेशों में वहाँ-वहाँ दस मई का दिन बड़ी सज-धज से मनाया गया और लोगों में बड़ा जोश आ गया कि अंग्रेज किस प्रकार हमारे राष्ट्रीय वीरों को बदनाम करते हैं। उन्होंने रोष के रूप में मीटिंगें कीं और उनकी याद में 10 मई का दिन हर वर्ष मनाना शुरू कर दिया। काफी समय बाद अभिनव भारत सोसायटी टूट गई और इंग्लैंड में यह दिन मनाना बन्द हो गया, लेकिन कुछ समय बाद अमेरिका में हिन्दुस्तान गदर पार्टी स्थापित हो गई और उसने उसे हर बरस मनाना शुरू कर दिया गदर पार्टी के स्थापित होने के दिन से लेकर अब तक अमेरिका में यह दिन सज-धज से मनाया जाता है। बड़ी भारी मीटिंग होती है, जिसमें सब हिन्दुस्तानी एकत्र होते हैं। उसमें इन 1857 के शूर-वीरों के जीवन और कारनामे बताए जाते हैं। इस तरह इन शहीदों की याद साल-दर-साल ताजा की जाती है और ऐसी कविताएँ-

'ओ दर्द-मन्द दिल, दर्द दे चाहे हजार 
दस मई का दिन भुलाना नहीं।
इस रोज छिड़ी जंग आज़ादी की
बात खुशी की गमी लाना नहीं।'

आदि पढ़ी जाती हैं। विशेषतः 1914-15 में यह पंक्तियां प्रत्येक पुरुष की जीभ पर चढ़ी हुई थी, क्योंकि उस समय भी एक और आजादी की जंग लड़कर हिंदुस्तान को आजाद करवाना चाहते थे। लेकिन यह प्रयास भी असफल हुआ, जिसमें हजारों नौजवानों ने भारत माता फौजी स्वार्थी है लेकिन हमारी गुलामी को न काटा जा सका।
10 मई का दिन क्यों मनाया जाता है? इसका कारण क्या है कि 10 मई के दिन ही अपनी जंग शुरू हुई थी। 10 मई को मेरठ छावनी के 85 वीरों ने चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया था। उनका कोर्ट मार्शल किया गया और प्रत्येक जवान को 10 साल सख्त कैद की सजा दी गई। बाद में 11 सिपाहियों की कैद पर कर 5 साल कर दी गई थी। लेकिन यह सारी कार्रवाई थी इस तरीके से की गई थी कि जिसमें हिंदुस्तानी सिपाहियों के गर्व और मान को भारी चोट पहुंचती थी, वह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। देखने वालों की आंखों से टप टप आंसू गिरते थे। सारे के सारे भूत बने हुए थे। वे 85 जो उनके भाई थे, सभी दुखों-सुखों में शरीक थे, उनके पैरों मैं बेड़ियां डाली हुई थी उनका अपमान सहज करना मुश्किल था, लेकिन कुछ बन नहीं सकता था।
अगले दिन "घुड़सवार और पैदल सेना ने जाकर जेल तोड़ दी, अपने साथियों को छुड़ा लिया, करो के घरों को फूंक डाला। वी जिस यूरोपीय को पकड़ सके, उसे मार डाला और दिल्ली की ओर चढ़ाई कर दी। ग़दर का आरंभ हुई इसी दिन हुआ और 10 मई से ही खेला जाता है।"

गदर आंदोलन को जानने के लिए यहां क्लिक करे-

सो पाठकों ने ऊपर लिखी घटनाओं से देख लिया है कि दस मई का दिन क्यों और कब से मनाना शुरू किया गया। पाठक यह सब हाल पढ़कर देख सकते हैं कि उनका क्या फर्ज है। क्या उन्होंने उस आज़ादी के लिए, जिसलिए कि हजारों-लाखों हिन्दुस्तानियों ने लगा दिए थे और हजारों लगाने के लिए तैयार बैठे थे, आज तक कुछ किया है या नहीं? यदि आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया तो वे कौन-सा मुहूर्त देख रहे हैं? आज़ादी की जंग में शामिल होने के लिए तो साल के 365 दिनों में से 365 ही पवित्र हैं। हर पल भारत माता तुम्हारा इन्तजार कर रही है कि तुम उसकी जंजीरें तोड़ने के लिए अपना फर्ज़ पूरा हो या नहीं। क्या इनसान बनकर आज़ादी हासिल करोगे? इसी सवाल के जवाब से भारत का भविष्य निर्भर करता है।

(इस लेख को "भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज" नामक पुस्तक में छपा है । जिसे ब्लॉग पर  पाठको के लिए प्रकाशित के प्रकाशित किया गया है।)


11 comments:

  1. सुन्दर सृजन ।

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  2. आपका लेख बहुत ही उपयोगी है पाण्डेय जी। हम कुछ भी करके उन वीर बलिदानियों का ऋण नहीं उतार सकते। हमें उन्हें स्मरण भी करना चाहिए तथा उनके जैसी उदात्त भावनाएं भी अपने भीतर जगानी चाहिए। मैंने भगत सिंह और उनके साथियों के बारे में बहुत-सी प्रामाणिक सामग्री पढ़ी है। 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ा है। आपने गदर आंदोलन के लिए जो लिंक दिए हैं, मैं उन पर जाकर उस महान आंदोलन की भी विस्तृत जानकारी प्राप्त करूंगा।

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    1. आपका बहुत धन्यवाद एवं आभार जितेंद्र जी महत्वपूर्ण टिप्पणी के लिए। बिलकुल सही कहा आपने "हम कुछ भी करके उन वीर बलिदानियों का ऋण नही उतार सकते"। ब्लॉग पर लगभग भगत सिंह और साथियों से जुड़े सारे लेख मौजूद है जैसे "करतार सिंह सराभा और मदन लाल ढींगरा को लेकर" ..!

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  3. बहुत व‍िस्तृत और शानदार लेख श‍िवम जी...वाह । बहुत अच्छी लगी ये पंक्त‍ियां...'ओ दर्द-मन्द दिल, दर्द दे चाहे हजार
    दस मई का दिन भुलाना नहीं।
    इस रोज छिड़ी जंग आज़ादी की
    बात खुशी की गमी लाना नहीं।'..वाह

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    1. अलकनंदा जी।
      स्वागत है आपका राष्ट्रचिंतक ब्लॉग पर।🌻

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  4. बहुत बहुत सुन्दर लेख ।

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    1. आपका बहुत बहुत शुक्रिया आलोक जी।🌻

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  5. नमन है देश के सभी अनाम वीरों को ... जिनकी गाथा ही रह जाती अगर वीर सावरकर न होते ... बहुत अच्छा आलेख है ...

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    1. आपका बहुत आभार दिगंबर जी। बिल्कुल सही कहा आपने।
      नमन।🌻

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