Saturday, July 18, 2020

शहीद कर्तार सिंह सराभा

शहीद कर्तार सिंह सराभा को भगतसिंह अपना प्रेरणास्त्रोत मानते थे। वह उनका चित्र अपने पास रखते थे और कहते थे. "यह मेरा गुरु, साथी व भाई है।" यह लेख सम्भवतः 1928 के शुरू में प्रकाशित हुआ था।
 
रणचण्डी के इस परम भक्त विद्रोही कर्तार सिंह की आयु अभी बीस वर्ष की भी नहीं हुई थी कि जब उन्होंने स्वतन्त्रता-देवी की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे दिया। आँधी की तरह वह अचानक कहीं से आये, अग्नि प्रज्वलित की और सपनों में पड़ी रणचण्डी को जगाने की कोशिश की। विद्रोह का यज्ञ रचा और आखिर वह स्वयं इसमें भस्म हो गये। वे क्या थे, किस दुनिया से अचानक आये और झट कहाँ चले गये? हम कुछ भी न जान सके। 19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाये कि सोचकर हैरानी होती है। इतनी जुर्रत, इतना आत्मविश्वास, इतना आत्महत्या और ऐसी लगन बहुत कम देखने को मिलती है। भारतवर्ष में ऐसे इन्सान बहुत कम पैदा हुए हैं, जिनको सही अर्थों में विद्रोही कहा जा सकता है, परन्तु इन गिने-चुने नेताओं में कार सिंह का नाम सूची में सबसे ऊपर है। उनकी रग-रग में क्रान्ति का जज्बा समाया हुआ था उनकी जिन्दगी का एक ही लक्ष्य, एक ही इच्छा और एक ही आशा, जो भी था क्रान्ति थी, इसीलिए उन्होंने जिन्दगी में पाँव रखा और आखिर इसीलिए इस दुनिया से कूच कर गये। आपका जन्म 1896 में गाँव सराभा, जिला लुधियाना में हुआ था। आप माता-पिता के इकलौते बेटे थे। अभी इनकी आयु बहुत कम थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परन्तु आपके दादा ने बहुत प्रयत्न से आपको पाला। नवीं कक्षा पढ़ने के बाद आप अपने चाचा के यहाँ चले गये वहाँ उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और कॉलेज में पढ़ने लगे। यह 1910-11 के दिन थे। इधर आपको स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम के तंग दायरे से बाहर की बहुत-सी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। यह आन्दोलन का जमाना था। इस वातावरण में रहकर आपकी देशप्रेम की भावना पल्लवित हुई। इसके बाद आपकी अमेरिका जाने की इच्छा हुई। घरवालों ने उसका कोई विरोध नहीं किया। आपको अमेरिका भेज दिया गया सन् 1912 में आप सान फ्रांसिस्को की बन्दरगाह पर पहुँचे। आजाद देश में पहुँचकर कदम-कदम पर आपके कोमल हृदय पर चोट पड़ने लगी। इन गोरों की ज़बान से Damm Hindu (तुच्छ हिन्दू) और Black man (काला आदमी) आदि सुनते ही वे पागल हो उठते थे। उनको कृदम-कदम पर देश की इज्जत व सम्मान खतरे में नजर आने लगे। घर की याद आने पर जंजीरों में जकड़ा हुआ विवश भारत सामने आ जाता। उनका कोमल दिल धीरे-धीरे सख्त होने लगा और देश की आजादी के लिए ज़िन्दगी कुर्बान करने का निश्चय दृढ़ होता गया। उनके दिल पर उस समय क्या गुज़रती थी, यह हम कैसे समझ सकते हैं। यह असम्भव था कि वे चैन से रह पाते। हर समय उनके सामने यह प्रश्न उठने लगा कि यदि शान्ति से काम न चला तो देश आजाद किस तरह होगा? फिर बिना अधिक सोचे उन्होंने भारतीय मजदूरों का संगठन शुरू कर दिया। उनमें आजादी की भावना उभरने लगी। हर मजदूर के पास घण्टों बैठकर वे समझाने लगे कि अपमान से भरी गुलामी की जिन्दगी से तो मौत हज़ार दर्जा अच्छी है काम शुरू होने पर और लोग भी उनसे आ मिले। मई, 1912 में इन लोगों की एक खास बैठक हुई। इसमें कुछ चुनिन्दा हिन्दुस्तानी शामिल हुए सभी ने देश की आज़ादी के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने का प्रण लिया। इन्हीं दिनों पंजाब के जलावतन देशभक्त भगवान सिंह वहाँ पहुँचे। धड़ाधड़ जलसे होने लगे, उपदेश होने लगे। काम से काम चलता गया। मैदान तैयार हो गया। फिर अखबार की जरूरत महसूस होने लगी। गुदर' नामक अखबार निकाला गया। इसका प्रथम अंक नवम्बर 1913 में निकाला गया। इसके सम्पादकीय विभाग में कार सिंह भी थे। आपकी कलम में अथाह जोश था। सम्पादकीय विभाग के लोग अखबार को हैण्ड प्रेस पर छापते थे। कर्तार सिंह क्रान्ति-पसन्द मतवाले नौजवान थे। प्रेस चलाते हुए थक जाने पर वे गीत गाया करते थे

सेवा देश दी जिन्दड़ी बड़ी औखी, 
गल्ल करना ढेर सुखल्लीयाँ ने। 
जिन्ना देशसेवा विच पैर पाया.
उस्ता लक्खा मुसीबत झल्लियाँ ने। 
(देशसेवा करनी बहुत मुश्किल है जबकि बातें करना खूब आसान है। जिन्होंने देशसेवा के रास्ते पर कदम उठा लिया वे लाख मुसीबतें झेलते हैं।) 
कर्तार सिंह जिस लगन से परिश्रम करते थे उससे सभी की हिम्मत बढ़ जाती थी। भारत को किस तरह आजाद कराया जाये यह किसी और को पता चले या नहीं, और किसी ने इस सवाल पर सोचा हो या नहीं, लेकिन कर्तार सिंह ने इस सवाल पर बहुत कुछ सोच रखा था। इसी दौरान आप न्यूयार्क में विमान कम्पनी में भर्ती हो गये और वहीं दिल लगाकर काम सीखने लगे।

सितम्बर, 1914 में कामागाटामारू जहाज को अत्याचारी गोरे साम्राज्यवादियों को हाथ से अवर्णनीय यातनाएँ झेलने पर वैसे लौटना पड़ा। तब हमारे कर्तार सिंह क्रांति प्रिया गुप्ता और एक अमेरिकी अराजकतावादी जैक को साथ लेकर जापान आये और कोबे में बाबा गुरदित्त सिंह जी से मिलकर सब बातचीत की। युगान्तर आश्रम, सैन फ्रांसिस्को के गदर प्रेस में 'गदर और गुदर की गूँज' और अन्य बहुत-सी पुस्तकें छापकर बाँटी जाती रहीं। दिनोदिन प्रचार बढ़ता गया। जोश बढ़ता गया। फरवरी, 1914 में स्टार के पब्लिक जलसे में आजादी का झण्डा लहराया गया और आजादी और बराबरी के नाम पर कसमें खायी गयीं इस जलसे के मुख्य वक्ताओं में कार सिंह भी थे। सभी ने घोषणा की कि वह अपने खून-पसीने की कमाई एक-एक कर देश की आजादी के संघर्ष में लगा देंगे। इसी तरह दिन गुज़रते रहे। अचानक यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की खुबर आयी। वे खुशी से फूले नहीं समाते थे। एकदम सभी गाने लगे....

 चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,
 यही आखिरी वचन व फ़रमान हो गये। 

कर्तार सिंह ने देश लौटने का जोरों से प्रचार किया। फिर स्वयं जहाज़ पर सवार होकर कोलम्बो (श्रीलंका) पहुँच गये। इन दिनों अमेरिका से पंजाब आने वाले प्रायः डिफेंस ऑफ़ इण्डिया कानून (डी.आई.आर.) की पकड़ में आ जाते थे बहुत कम सही-- सलामत पहुंच पाते थे कर्तार सिंह सही - सलामत आ गये। बड़े जोरों से काम शुरू हुआ। संगठन की कमी थी, लेकिन किसी तरह वह पूरी की गयी। दिसम्बर, 1914 में मराठा नौजवान विष्णु गणेश पिंगले भी आ गये इनकी कोशिश से श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और रासबिहारी पंजाब आये। कर्तार सिंह हर समय हर जगह पहुँचते। आज मोगा में गुप्त मीटिंग है। आप वहाँ भी हैं कल लाहौर के विद्यार्थियों में प्रचार हो रहा है, आप फिर प्रथम पंक्ति में हैं। अगले दिन फिरोजपुर छावनी के सैनिकों से गठजोड़ हो रहा है। फिर हथियारों के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। रुपये की कमी का प्रश्न उठने पर आपने डाका डालने की सलाह दी। डकैती का नाम सुनते ही बहुत-से लोग स्तम्भित रह गये, लेकिन आपने कह दिया कि कोई भय नहीं है। भाई परमानन्द भी डकैती से सहमत हैं। उनसे पुष्टि करवाने की जिम्मेदारी आप पर डाली गयी। अगले दिन बगैर उनसे मिले ही कह दिया, "पूछ आया हूँ, वे सहमत हैं।" वे यह सहन नहीं कर सकते थे कि केवल रुपये की कमी से विद्रोह की तैयारी में देरी हो। एक दिन वे डकैती डालने एक गाँव गये। कार सिंह नेता थे। डकैती चल रही थी। घर में एक बेहद खूबसूरत लड़की भी थी। उसे देखकर एक पापी आत्मा का मन डोल गया। उसने जबरदस्ती लड़की का हाथ पकड़ लिया। लड़की ने घबराकर शोर मचा दिया। कर्तार सिंह एकदम रिवाल्वर तानकर उसके नज़दीक  पहुँच गये और उस आदमी के माथे पर पिस्तौल रखकर उसे निहत्था कर दिया। फिर कड़ककर बोले, "पापी! तेरा अपराध बहुत गम्भीर है। तुम्हें सजा-ए-मौत मिलनी चाहिए, लेकिन हालात की मजबूरी से तुम्हें माफ़ किया जाता है फौरन इस लड़की के पाँवों में गिरकर माफ़ी माँग कि हे बहिन! मुझे माफ़ कर दो। और इसकी माता जी के पैर छूकर कह कि माता जी, में इस पतन के लिए माफी चाहता हूँ। यदि वे तुम्हें माफ़ कर दें तो तुम्हें जिन्दा छोड़ दिया जायेगा वरना गोली से उड़ा दिया जायेगा।" उसने ऐसा ही किया। बात अभी ज़्यादा नहीं बढ़ी थी। यह देखकर माँ-बेटी की आँखें भर आयीं। माँ ने कर्तार सिंह को प्यार भरे लहजे में कहा, "बेटा! ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर आप इस काम में किस तरह शामिल हुए?" कर्तार सिंह का भी दिल भर आया और कहा, "माँ जी! रुपये के लालच में हमने यह काम शुरू नहीं किया। अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर डकैती डालने आये हैं। हथियार खरीदने के लिए रुपये की ज़रूरत है। वह कहाँ से लायें? माँ जी, इसी महान काम के लिए आज इस काम पर मजबूर हुए हैं।" इस समय पर यह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। माँ ने फिर कहा, "इस लड़की की शादी करनी है। इसके लिए कुछ छोड़ जाओ तो अच्छा है।" इसके बाद उन्होंने अपना सारा धन माँ के सामने रख दिया और कहा, "जितना चाहें ले लें।" कुछ पैसा रखकर माँ ने बाकी सारा रुपया कर्तार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया, “जाओ बेटा, तुम्हें सफलता मिले।" डकैती जैसे भयानक काम में शामिल होकर भी कर्तार सिंह का दिल कितना भावनामय, पवित्र व विशाल था, यह इस घटना से जाहिर है। फरवरी, 1915 में विद्रोह की तैयारी थी। पहले सप्ताह आप पिंगले और दूसरे दो-तीन साथियों के साथ आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ व अन्य कई स्थानों पर मत और विद्रोह के लिए उनसे मेल-मिलाप कर आये। आखिर वह दिन करीब आने लगा, जिसका बड़ी देरी से इन्तज़ार हो रहा था 21 फरवरी, 1915 भारत में विद्रोह का दिन नियत हुआ था। इसी के अनुसार तैयारी हो रही थी। लेकिन इसी समय उनकी आशाओं के वृक्ष की जड़ में बैठा एक चूहा उसे कुतर रहा था। चार-पाँच दिन पहले सन्देह हुआ कि किरपाल सिंह की गृद्दारी से सब ध्वस्त हो जायेगा। इसी आशंका से कर्तार सिंह ने रासबिहारी बोस से विद्रोह की तारीख 21 की बजाय 19 फरवरी करने के लिए कहा ऐसा होने पर भी इसकी भनक किरपाल सिंह को मिल गयी। इस क्रान्तिकारी दल में एक गद्दार का होना कितने खतरनाक परिणाम का कारण बना। रासबिहारी और कर्तार सिंह भी कोई उचित प्रबन्ध न होने से अपना भेद छिपा नहीं पाये। इसका कारण भारत के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या हो सकता है?

कर्तार सिंह पिछले फैसले के अनुसार पचास-साठ साथियों के साथ फ़िरोज़पुर जा पहुँचे। अपने साथी सैनिक हवलदार से मिले और विद्रोह की बात की। लेकिन किरपाल सिंह ने तो पहले से ही सारा मामला विगाड़ दिया था। हिन्दुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिये गये। धड़ाधड़ गिरफ्तारियाँ होने लगीं। हवलदार ने सहायता करने से इन्कार कर दिया। कार सिंह की कोशिश असफल रही। निराश हो लाहौर आये। पंजाबी में गिरफ्तारियों का चक्कर तेज हो गया अब साथी भी टूटने लगे। ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे हुए थे। कर्तार सिंह भी वहीं आकर एक चारपाई पर दूसरी और मुँह फेर लेट गये। परस्पर कोई बात नहीं की, लेकिन चुपचाप ही एक-दूसरे के दिल की हालत समझ गये। इनकी हालत का अनुमान हम क्या लगा सकते हैं !

दरं-तदबीर पर सर फोड़ना शेव रहा अपना, 
वसीले हाथ ही ना आये किस्मत आज़माई के
 (हमारा काम भाग्य के दर पर सर फोड़ना ही रहा, लेकिन भाग्य आज़माने के साधन ही हाथ नहीं आये।)

उनकी तो यही ख्वाहिश थी कि कहीं लड़ाई हो और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण दे दें। फिर सरगोधा के नजदीक चक्क नम्बर पाँच में आ गये। फिर विद्रोह का चर्चा छेड़ दिया। वहीं पकड़े गये। जंजीरों में जकड़े गये। निर्भीक विद्रोही कर्तार सिंह को लाहौर स्टेशन पर लाया गया। पुलिस कप्तान से कहा,
"मिस्टर टामकिन, कुछ खाना तो लाइये।" वह कितना मस्त-मौला था। इस आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर दोस्त व दुश्मन सब खुश हो जाते थे गिरफ्तारी के समय वे बहुत खुश थे। प्रायः कहा करते थे, "वीरता और हिम्मत से मरने पर मुझे विद्रोही की उपाधि देना। कोई याद करे तो विद्रोही कर्तार सिंह कहकर याद करे।" मुकदमा चला। उस समय कर्तार सिंह की आयु कुल साढ़े अठारह वर्ष थी। सबसे कम आयु के अपराधी आप ही थे, लेकिन जज ने इनके सम्बन्ध में यह लिखा वह इन अपराधियों में, सबसे खतरनाक अपराधियों में एक है। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड्यन्त्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभायी हो।"
एक दिन आपके बयान देने की बारी आयी। आपने सबकुछ मान लिया। आप क्रान्तिकारी बयान देते रहे। जज कृुलम दाँतों के नीचे दबाये देखता रहा। एक शब्द न लिखा। बाद में इतना कहा, "कर्तार सिंह, अभी आपका बयान लिखा नहीं गया। आप सोच-समझकर बयान दें। आप जानते हैं कि आपके बयान का क्या परिणाम हो सकता है?" देखने वाले कहते हैं कि जज के इन शब्दों को कर्तार सिंह ने बड़ी मस्तानी अदा से केवल इतना कहा, "फाँसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।" इस दिन अदालत की कार्रवाई समाप्त हो गयो। अगले दिन फिर कार सिंह का अदालत में बयान शुरू हुआ। पहले दिन जजों का कुछ ऐसा विचार था कि कर्तार सिंह भाई परमानन्द के इशारे पर ऐसा बयान दे रहे हैं, लेकिन वह विद्रोही कार सिंह के दिल की गहराइयों में नहीं उतर सकते थे। कार सिंह का बयान अधिक जोरदार, अधिक जोशीला और पहले दिन की तरह ही इक्बालिया था। 44 आखिर में आपने कहा, "अपराध के लिए मुझे उम्रकैद की सजा मिलेगी या फाँसी। लेकिन मैं फाँसी को प्राथमिकता दूँगा, ताकि फिर जन्म लेकर -" जब तक हिन्दुस्तान आज़ाद नहीं हो, तब तक मैं बार-बार जन्म लेकर - फाँसी पर लटकता रहूँगा। यही मेरी अन्तिम इच्छा है..."
आपकी वीरता से जज बहुत प्रभावित हुए, लेकिन उन्होंने विशाल दिलवाले दुश्मन की तरह आपकी वीरता को वीरता न कहकर बेशर्मी के शब्दों में याद किया। कर्तार सिंह को सिर्फ गालियाँ ही नहीं, मौत की सजा भी मिली। आपने मुस्कुराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। कर्तार सिंह फाँसी की कोठरी में कैद थे। आपके दादा ने आकर कहा, "कर्तार सिंह, जिनके लिए मर रहे हो, वे तुम्हें गालियाँ देते हैं। तुम्हारे मरने से देश को कुछ लाभ होगा, ऐसा भी दिखायी नहीं देता।" कर्तार सिंह ने बहुतधीमे से पूछा _.
"दादा जी, फलाँ रिश्तेदार कहाँ है?"
"प्लेग में मर गया।"
"फलाँ कहाँ है?"
"हैजे से मर गया।"
"तो क्या आप चाहते हैं कि कर्तार सिंह महीनों बिस्तर पर पड़ा रहे और पीड़ा से दुखी किसी रोग से मरे! क्या उस मौत से यह मौत हज़ार गुना अच्छी नहीं?"
दादा चुप हो गये। आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।
आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।

  चमन जाने मुहब्बत में, उसी ने बागवानी की, 
जिसने मिहनत को ही मिहनत का समर जाना। 
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फैज़ शबनम का, 
अँधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में। 

डेढ़ साल तक मुकदमा चला। 16 नवम्बर, 1915 का दिन था, जब उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। उस दिन भी हमेशा की तरह खुश थे। इनका वजन दस पौण्ड बढ़ गया था। 'भारत माता की जय' कहते हुए वे फाँसी के तख्ते पर झूल गये।




2 comments:

  1. चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,
    यही आखिरी वचन व फ़रमान हो गये।
    Jai Hind🇮🇳

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