देश जब आजाद हुआ तो शिक्षा व्यवस्था में एक ऐसा धड़ा बैठा था जिसने भारत और भारती इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया इसमें कोई सक नही हैं।आज भी इस्लामिक अक्रांताओ को महान बताने से ये पीछे नही हटते है। ये इनके कला और संस्कृति की बात करते है अब जिन्होंने भारत में मारकाट किया हो लाखो लोगो का धर्मांतरण किया हो उनका भला कोई कला संस्कृति भी होगा? इस देश में ये बात जबरदस्ती मनवाई जाती है वर्तमान में तो कोई नही मानने वाला है ये भी कहना गलत होगा मूर्खो की कमी नही है इधर बिना पढ़े दुसरो को सुनकर भी इधर बकवास किया जा सकता है इतिहास पर। मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाने वालों का भला क्या योगदान हो सकता है जिनका महिमंडन तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी और इतिहासकार करते है..!अयोध्या काशी मथुरा ही नही और भी बहुत सारे ऐसे प्राचीन मंदिर है जिसे तोड़कर मस्जिद खड़ी गई है।
आइए जानते है कुछ ऐसे ही मंदिरो के बारे में :
अटाला मस्जिद
उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल क्षेत्र के जौनपुर जिले में स्थित ये अटाला मस्जिद कभी अटाला मंदिर हुआ करता था। इसे देखते ही कोई भी कह सकता है ये मस्जिद नहीं मंदिर है।
इब्राहिम नायीब बारबक ने तुड़वाकर मस्जिद बनाई थी जिसे आज अटाला मस्जिद के नाम से जानते हैं। इसका काम 1377 में शुरू हुआ था और 1408 में इंब्राहिम शाह शर्की के शासन में खतम हुआ है।
कही से भी नही लगता है की ये विदेशी आक्रांताओं द्वारा इसका निर्माण कराया गया होगा। जिले की इतिहास पर लिखी त्रिपुरारि भास्कर की पुस्तक जौनपुर का इतिहास में अटाला मस्जिद के बारे में भी लिखा गया है। जिन्होंने अटाला के नाम के संबंध पर बताया कि "लोगों का विचार है कि यहां पहले अटलदेवी का मंदिर था, क्योंकि अब भी मोहल्ला सिपाह के पास गोमती नदी किनारे अटल देवी का विशाल घाट है। अंत में यह अटाला मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका निर्माण कन्नौज के राजा विजयचंद्र के जरिए हुआ था और इसकी देखरेख जफराबाद के गहरवार लोग किया करते थे। यह कहा जाता है कि इस मंदिर को गिरा देने का हुक्म फिरोज शाह ने दिया था परंतु हिंदुओं ने बहादुरी से इसका विरोध किया, जिसके कारण समझौता होने पर उसे उसी प्रकार रहने दिया गया था। अंत में 1364 ई. में ख्वाजा कमाल खां ने इसे मस्जिद का रूप देना प्रारंभ किया इब्राहिम शाह शर्की ने पूरा किया। इसके विशाल लेखों से पता चलता है कि इसके पत्थर काटने वाले राजगीर हिंदू थे जिन्होंने इस पर हिंदू शैली के नमूने तराशे है। कहीं-कहीं पर कमल का पुष्प उत्कीर्ण है। यह मस्जिद जौनपुर की शिल्पकला का एक अति सुंदर नमूना है। इसके मध्य के कमरे का घेरा करीब 30 फीट है यह एक विशाल गुंबद से घिरी है जिसकी कला, सजावट और बनावट मिश्र शैली के मंदिरों की भांति है।"
बाकी जिले का नाम ही तुगलकी है "जौनपुर" तो समझ सकते है इसके स्थापना के लिए किस तरह इधर तबाही मचाई गई होगी इन इस्लामिक जिहादियों द्वारा। ना जाने सारे मंदिर इधर तोड़े फोड़े गए होंगे जिनके अवशेष तक नहीं मिलते होंगे।
अढ़ाई दिन का झोपड़ा
इसकी तो ऐसी प्रशंसा कर दी जाती है की क्या ही कहना।बहुत कम लोग जानते होंगे की मंदिर के स्थान पर बनाया गया है।
वो मूल रूप से विशालकाय संस्कृत महाविद्यालय (सरस्वती कंठभरन महाविद्यालय) हुआ करता था, जहाँ संस्कृत में ही विषय पढ़ाए जाते थे। यह ज्ञान और बुद्धि की हिंदू देवी माता सरस्वती को समर्पित मंदिर था। इस भवन को महाराजा विग्रहराज चतुर्थ ने अधिकृत किया था। वह शाकंभरी चाहमना या चौहान वंश के राजा थे।
कई दस्तावेजों के अनुसार, मूल इमारत चौकोर आकार की थी। इसके हर कोने पर एक मीनार थी। भवन के पश्चिम दिशा में माता सरस्वती का मंदिर था। 19वीं शताब्दी में, उस स्थान पर एक शिलालेख (स्टोन स्लैब) मिली थी जो 1153 ई. पूर्व की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि शिलालेख के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मूल भवन का निर्माण 1153 के आसपास हुआ था।
कहानी के अनुसार, 1192 ई. में, मुहम्मद गोरी ने महाराजा पृथ्वीराज चौहान को हराकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। उसने अपने गुलाम सेनापति कुतुब-उद-दीन-ऐबक को शहर में मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। ऐसा कहा जाता है कि उसने ऐबक को 60 घंटे के भीतर मंदिर स्थल पर मस्जिद के एक नमाज सेक्शन का निर्माण करने का आदेश दिया था ताकि वह नमाज अदा कर सके। चूँकि, इसका निर्माण ढाई दिन में हुआ था, इसीलिए इसे ‘अढाई दिन का झोंपड़ा’ नाम दिया गया। हालाँकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह सिर्फ एक किंवदंती है। मस्जिद के निर्माण को पूरा करने में कई साल लग गए। उनके अनुसार, इसका नाम ढाई दिन के मेले से पड़ा है, जो हर साल मस्जिद में लगता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम गोयल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू टेंपल: व्हाट हैपन्ड टू देम’ (‘Hindu Temples: What Happened To Them’) में मस्जिद का उल्लेख किया है। उन्होंने लेखक सैयद अहमद खान की पुस्तक ‘असर-उस-सनदीद’ का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अजमेर की मस्जिद, यानी अढाई दिन का झोंपड़ा, हिंदू मंदिरों की सामग्री का उपयोग करके बनाया गया था।
अलेक्जेंडर कनिंघम को 1871 में ASI के महानिदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने ‘चार रिपोर्ट्स मेड ड्यूरिंग द इयर्स, 1862-63-64-65’ में मस्जिद का
विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। कनिंघम ने उल्लेख किया कि स्थल का निरीक्षण करने पर, उन्होंने पाया कि यह कई हिंदू मंदिरों के खंडहरों से बनाया गया था। उन्होंने कहा, “इसका नाम ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ इसके निर्माण की आश्चर्यजनक गति को दिखाता है और यह केवल हिंदू मंदिरों के तैयार मुफ्त सामग्री के इस्तेमाल से ही संभव था।”
कनिंघम ने आगे रिपोर्ट में मस्जिद का दौरा करने वाले ब्रिटिश साम्राज्य के लेफ्टिनेंट-कर्नल जेम्स टॉड का हवाला दिया। टॉड ने कहा था कि पूरी इमारत मूल रूप से एक जैन मंदिर हो सकती है। हालाँकि, उन्होंने उन पर चार-हाथ वाले कई स्तंभ भी पाए जो स्वभाविक रूप से जैन के नहीं हो सकते थे। उन मूर्तियों के अलावा, देवी काली की एक आकृति थी।
उन्होंने आगे कहा, “कुल मिलाकर, 344 स्तंभ थे, लेकिन इनमें से दो ही मूल स्तंभ थे। हिंदू स्तंभों की वास्तविक संख्या 700 से कम नहीं हो सकती थी, जो 20 से 30 मंदिरों के खंडहर के बराबर है।
‘भोजशाला’ ज्ञान और बुद्धि की देवी माता सरस्वती को समर्पित एक अनूठा और ऐतिहासिक मंदिर है। इसकी स्थापना राजा भोज ने की थी। राजा भोज (1000-1055 ई.) परमार राजवंश के सबसे बड़े शासक थे। वे शिक्षा एवं साहित्य के अनन्य उपासक भी थे। उन्होंने ही धार में इस महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिसे बाद में भोजशाला के रूप में जाना जाने लगा। यहाँ दूर-दूर से छात्र पढ़ाई करने के लिए आते थे।
देवी सरस्वती का यह मंदिर मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित है, जो उस समय राजा भोज की राजधानी थी। संगीत, संस्कृत, खगोल विज्ञान, योग, आयुर्वेद और दर्शनशास्त्र सीखने के लिए यहाँ काफी छात्र आया करते थे। भोजशाला एक विशाल शैक्षिक प्रतिष्ठान था।
मुस्लिम जिसे ‘कमाल मौलाना मस्जिद’ कहते हैं, उसे मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़कर बनवाया है। अभी भी इसमें भोजशाला के अवशेष स्पष्ट दिखते हैं। मस्जिद में उपयोग किए गए नक्काशीदार खंभे वही हैं, जो भोजशाला में उपयोग किए गए थे। मस्जिद की दीवारों से चिपके उत्कीर्ण पत्थर के स्लैब में अभी भी मूल्यवान नक्काशी किए हुए हैं। इसमें प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हुए हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृति व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है। इसमें प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हुए हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृति व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है। इसके अलावा, कुछ अभिलेख राजा भोज के उत्तराधिकारी उदयादित्य और नरवर्मन की प्रशंसा की गई है। शास्त्रीय संस्कृत में एक नाटकीय रचना है। यह अर्जुनवर्मा देव (1299-10 से 1215-18 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान अंकित किया गया था। यह नाटक प्रसिद्ध जैन विद्वान आषाधार के शिष्य और राजकीय शिक्षक मदन द्वारा रचा गया था। नाटक को कर्पुरमंजरी कहा जाता है और यह धार में वसंत उत्सव के लिए था।
मंदिर, महलों, मंदिरों, महाविद्यालयों, नाट्यशालाओं और उद्यानों के नगर- धारानगरी के 84 चौराहों का आकर्षण का केंद्र माना जाता था। देवी सरस्वती की प्रतिमा वर्तमान में लंदन के संग्रहालय में है। प्रसिद्ध कवि मदन ने अपनी कविताओं में भी माता सरस्वती मंदिर का उल्लेख किया है।
साल 1305, 1401 और 1514 ई. में मुस्लिम आक्रांताओं ने भोजशाला के इस मंदिर और शिक्षा केंद्र को बार-बार तबाह किया। 1305 ई. में क्रूर और बर्बर मुस्लिम अत्याचारी अलाउद्दीन खिलजी ने पहली बार भोजशाला को नष्ट किया। हालाँकि, इस्लामी आक्रमण की प्रक्रिया 36 साल पहले 1269 ई. में ही शुरू हो गई थी, जब कमाल मौलाना नाम का एक मुस्लिम फकीर मालवा पहुँचा। कमाल मौलाना ने कई हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए छल-कपट का सहारा लिया। उसने 36 सालों तक मालवा क्षेत्र के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा की और उसे अलाउद्दीन खिलजी को दे दी। युद्ध में मालवा के राजा महाकाल देव के वीरगति प्राप्त करने के बाद खिलजी ने कहर शुरू हो गया। खिलजी ने भोजशला के छात्रों और शिक्षकों को बंदी बना लिया और इस्लाम में धर्मांतरित होने से इनकार करने पर 1200 हिंदू छात्रों और शिक्षकों की हत्या कर दी। उसने मंदिर परिसर को भी ध्वस्त कर दिया। मौजूदा मस्जिद उसी कमाल मौलाना के नाम पर है।
कुतुबुद्दीन ऐबक का कुतुब मीनार दिखाकर कला संस्कृति की अनोखी पहचान और उत्कृष्ट प्रदर्शन बताने वाले तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी इतिहासकार कुछ ज्यादा ही मग्न होते है। इस क्रूर आक्रांता ने भी कम कहर नहीं ढाए है हिंदुओ पर।
कुव्वत-उल इस्लाम मस्जिद कुतुब मीनार के उत्तर पूर्व में स्थित है। कुव्वत-उल-इस्लाम को मामलुक वंश के संस्थापक कुतुब-उद-दीन ऐबक ने बनवाया था। इसे 27 हिंदू और जैन मंदिरों के खंडहरों का उपयोग करके बनाया गया था। यह भारत पर मुस्लिम विजय का जश्न मनाते हुए विजय की मीनार के लिए जाना जाता है। कुछ इतिहासकार कहते है की ये सन 1195 में शुरू हुआ था बनना और 1199 खतम हुआ। देखने से विष्णु मंदिर नजर आता है साफ साफ। अब इसे इधर लोग ऐसे बताते है मानो कितने बड़े विद्वान थे ये मलेक्ष।
जफर खान गाज़ी का मकबरा और मस्जिद
कहा जाता है ये पहले विष्णु मंदिर था या कृष्ण भगवान का मंदिर है इसे खंडित करके मकबरा और मस्जिद में तब्दील कर कर दिया गया था। दीवारे झूठ नहीं बोलते है कभी बस इतना समझ लीजिए। आखिर कहा तक इन आक्रांताओं के वजूद को लेकर ढोएंगे भारत के हिंदू और ये भारत देश अपने आराध्य प्रभु श्री कृष्ण की दुर्दशा कबतक बर्दाश्त करता रहेगा?
आप इन प्रस्तुत तस्वीरों में देख सकते है आखिर किस तरह से हमारे अस्तित्व को समाप्त करने की कोशिश की गई है।
कोई माने या माने ये तस्वीरे सबकुछ बयां कर रही है। लोग खुद भी जाकर इन जगहों में जांच पड़ताल कर सकते है। बाकी तस्वीरों में इतिहास बाकी सब बकवास। भारत के कुछ मंदिरों की दिवारे ऐसे ही अपना दर्द रोती है। चीखती पुकारती हैं , आओ मुझे मलेक्षो से स्वतंत्र करो, मुझे पवित्र करो। हमारा अस्तित्व को मिटाने की कोशिश करने वालो का इतना सम्मान आखिर क्यों हो रहा है ? क्या हमें अपनी खोई हुई विरासत को सहेजने का हक नहीं है? हम अपने ही देश में अपने मंदिर को पुनः स्थापित नही कर सकते है .. मंदिरों के देश ऐसे ही न जाने कितने मंदिर न्याय मांग रहे है... एक दिन आएगा उनका वीर धर्मपुत्र इनको मुक्ति दिलाएगा। बाकी कहा तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी वर्ग लंबे चौड़े भाषण देकर लेख लिखकर भषड़ मचाता हैं इसपर कुछ नही बोलेंगे ये लोग इनकी बोलती बंद हो जाएगी या ये मनगढ़ंत कहानी प्रस्तुत कर देंगे...!
देश में आपसी भाईचारे, गंगा जमुनी तहजीब की बात होती है तो क्या मंदिर तोड़ कर बने मस्जिद में नमाज़ पढ़ना गंगा जमुनी तहजीब का उदाहरण है या इस्लामी आक्रांताओं के गुणगान करने का? क्या मुस्लिमों को स्वेच्छा से इन स्थानों को इनके असली हकदार को नहीं दे देनी चाहिए?
( स्रोत~ हिस्ट्री ऑफ मेडिवल इंडिया-वीडी महाजन , मध्यकालीन भारत के इतिहास पर तमाम पुस्तके , कुछ तस्वीरें इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त )