Friday, June 7, 2024

सदमे में संतुष्टि

२०२४ के आम चुनाव की मतगणना की लाइव रिपोर्टिंग देखता, मेट्रो की एसी में भी माहौल की गर्मी महसूस करता हुआ अपने गंतव्य पर जा रहा था।
सभी दलों के उत्साही और नितांत खलिहर कार्यकर्ताओं ने गाजे बाजे और फूलमालाओं के साथ अपनी-अपनी पार्टियों के दफ्तरों में बेटे के विवाह जैसा माहौल बनाया हुआ था। कुछ हुड़दंगी टाइप लठ्ठमार कार्यकर्ताओं ने मतगणना केन्द्रों के बाहर हर परिस्थिति के हिसाब से पूरी तैयारियों के साथ डेरा डाल रखा था।
सुन्दर-सुन्दर समाचार वक्ताओं ने अच्छे रंग-रोगन के साथ मुंह चभोर कर अपने से भी अधिक बने-संवरे विभिन्न दलों के बड़बोले प्रवक्ताओं के साथ जमघट लगाया हुआ था।
सारी तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं, सभी प्रवक्ताओं ने अपनी-अपनी पार्टियों के जीतने की घोषणा कर दी थी। बस मतगणना शुरू होने की देर थी। 
विपक्षियों ने हर बार की तरह ईवीएम वाली बात की चर्चा एकाध दिन पहले से ही शुरू कर दी थी।

और फिर मतगणना शुरू हुई, तमाम बयान पर बयान आने लगे, अलग-अलग सीटों के रुझान आने लगे, न्यूज चैनलों में चीनी मिलों से भी अधिक तीव्रता वाले हूटर बजने लगे।
कभी कोई आगे होता कभी कोई। पहले एक डेढ़ घंटे में ये रुझान आया कि इस बार का परिणाम वैसा नहीं होने वाला जैसी उम्मीद सबने पाल रखी थी। अब तो खैर विपक्षी पलट ही गये हैं जो मुझे उम्मीद भी थी पर कल तक जैसा माहौल था वैसे में उन्होंने भी ऐसी उम्मीद नहीं लगाई होगी।
सत्ता पक्ष के बड़बोलों के चेहरे उतरने लगे थे और विपक्षी बड़बोलों के चेहरे की चमक बढ़ती जा रही थी।
धीरे-धीरे विपक्षी गठबंधन की सीटों की संख्या बढ़ने लगी और सत्ता के बड़बोलों के चेहरे रुआंसे होने लगे। एक चैनल पर तो एक निर्गम मतानुमान बताने वाले महानुभाव रोने लगे थे।

हद्द तो तब हो गई जब सत्ता के नीति नियंता स्वयं कुछ देर के लिए अपनी सीट से पीछे चले गये वो भी तब जब पिछले दो बार में उप-विजेता कभी उनके आसपास भी नहीं फटक पाया था और बाद में पिछ्ले नतीजों के मुकाबले बहुत ही कम अंतर से विजयी हुए।

दोपहर तीन बज चुके थे। मैं गंतव्य पर पहुंच कर कूलर चला आराम से लेटा हुआ था। बहुत से यार दोस्त हर्षोल्लास के साथ और बहुत से रोते हुए फोन कर चुके थे। रोने वालों में कुछ हाईकमान से दुखी थे, कुछ पिछले विजयी सांसदों से, कुछ हाईटीसेल से तो कुछ ने जनता पर ही सारा दोषारोपण कर दिया था।
खुश होने वालों को बधाई और रोने वालों को सांत्वना दे देकर मेरा मन भी थोड़ा उबाऊ हो चुका था। एक अस्पष्ट बहुमत की ओर अग्रसित नतीजे देखकर संभावित कारणों पर भी मन विचरण करने की कोशिश कर रहा था।
थोड़ी देर तक यूं ही पक्ष-विपक्ष की जीत-हार के कारणों पर मंथन करने के पश्चात मैंने सोचा चलो ट्वीटर के धुरंधर ज्ञानियों और ट्वीटरियों की राय पढ़ी जाये शायद वहां से कुछ सार्थक जानकारी मिल सके‌।
यही सब सोचकर मैंने ट्वीटर खोला तो देखा इधर अलग ही खेल चल रहा है। कोई सत्ता की हार का दोष पार्टी के एक अन्य युवा और प्रसिद्ध नेता, जिनको भावी नायक की तरह देखा जाता था, के मत्थे मढ़ने में लगे हैं तो कुछ लोग धार्मिक कट्टरवाद या तृप्तिकरण की बात कर रहे हैं। एकाध लोग पुराने सांसदों के नकारेपन जैसे दुर्लभ कारणों की भी चर्चा करते दिखे। पढ़कर लगा देश बदल रहा है, काम पर वोट दे रहा है। पर तभी कुछ ऐसे क्षेत्रों कै नतीजे दिखे जहां का कायाकल्प होने के बावजूद वहां के प्रत्याशी भारी अंतर से हार गये हैं।

कुछ ऐसे भी ट्वीटरिये दिखे जो मन में तो चार सौ पार ना होने से फूट-फूटकर रो रहे होंगे पर बाहर से सवा दो सौ को ही अपार जनसमर्थन और मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे कि लगातार तीन बार में भी इतनी सीटें लाना चार सौ पार से कम नहीं है।
ये बुद्धिजीवी लोग हाईटीसेल के नकारे पालतुओं को बचाव का आधार दे रहे थे और साथ ही बड़बोलों को खींसें निपोरने का भी जो शाम तक सच ही साबित हुआ।
शाम तक हाईटीसेल इसी बचाव लाइन पर चल रहा था और प्रवक्ताओं ने भी यही धुन बजानी शुरु कर दी थी।
कुछ अतिउत्साहित निकम्मों ने हार का ठीकरा ऐसे ही किसी अनचाहे मौके के लिए खिलाये पिलाये गये अध्यक्ष जी के मत्थे फोड़ उनका ही ढ़ोल बजाना शुरू कर दिया। ये सब देखकर विपक्ष के एक अध्यक्ष जी राहत की सांस ले रहे थे।

शायद अपने छोटे से जीवनकाल में पहली बार देख रहा था कि दोनों ओर से ही नैतिक विजय की ढपली बजा बड़बोलों की जमात नाच रही थी। आत्मावलोकन की सुध किसी को नहीं थी। सत्ता पक्ष में सबको सदमा लगा था पर शायद बचाव के नये नये तरीकों में उन्होंने खुद को संतुष्ट कर लिया था।
सबने पार्टी के मुखिया जी की एक फेमस लाइन "आपदा में अवसर" की राह पर चलकर "सदमे में संतुष्टि" ढूंढ ली थी।

Saturday, May 4, 2024

ईकोसिस्टम का ओवरटाइम

किसी भी व्यक्ति को अपनी पूरी बात रखने का अधिकार होता है इसका मतलब ये नही कि वो कुछ भी अनाप-शनाप बकता जाय। सरकार का विरोध करना है करिए, कोई व्यक्ति विषेश आपको पसंद नही है कोई बात नही या फिर फिर किसी राजनीतिक दल के घोर विरोधी बने रहे लेकिन इन सबके विरोध में देश विरोधी बाते करना कहा तक सही है ? इसे अभिव्यक्ति की आजादी नहीं लुच्चई ही कहा जायेगा। वैसे आज के समय में चरित्र हनन करना हो या मुख से किसी के लिए अपशब्द निकालना बहुत ही आसान काम हो चला है।  राजनीति में सबकुछ जायज है इसका मतलब ये नही की जेल में बंद होने के बाद भी अपने पद से इस्तीफा न दे, जब नैतिकता मर जाती है तो यही होता है। राजनितिक घाघो की फेहरिस्त लंबी है एक से बढ़कर एक घाघ पड़े हुए है। इन आत्ममुग्ध बौनो को लगता है जो ये कह रहे है वही सही है ,बाकी सब गलत है। हर बात स्क्रीन काली कर देने वाला लोकतंत्र की हत्या रोज करवाता है तो कोई बल्लीमारान में पकौड़े तलकर लोकतंत्र की रक्षा कर रहा है। प्रधानमंत्री ने बोला ही था रोजगार नहीं है तो पकौड़ा तलो,बल्लीमारान वाला वहा पकौड़ा तल खूब कमा रहा है। काला कौवा कांव-कांव करते नही थकता है उसे पता है की उसे सिर्फ श्राद्ध पक्ष में सम्मान मिलेगा लेकिन वो नही मानता है उसे रोज कांव- कांव कर गाली सुनना हैं क्योंकि गाली सुनने पर उसे अलग तरीके का ऊर्जा प्राप्त होता और एक तरह से संतुष्टि मिलती है।

विश्वविद्यालय में गंध मचाने वाला विचाराधारा की बात करता था अपने क्षेत्र में पीटे जाने के बाद यकायक उसकी विचारधारा को लकवा मार गया लाल सलाम करने वाला अब कहता है "डरो मत". अरे इतने बड़े क्रांतिकारी है, विचारों में परिवर्तन तो आना ही था। हास्यपद तो ये रहा की इसकी तुलना भगत सिंह से करने लग गए थे सब, स्तर इतना गिर गया है राजनीति  में की क्या ही बोला जाय? कुछ तथाकथित छात्र संगठनो का कहना था की ये देश का अगला प्रधानमंत्री होगा , सिंगरेट फूंकते कुछ छात्र इसे अपना हीरो बना लिए थे...वैसे भी आजकल सोशल मीडिया का जमाना है हर कोई चमका जा रहा है या चमकाया जा रहा है। तथाकथित पत्रकार महोदय लोग इसीलिए रखे गए हैं। संघर्षों की ऐसी कहानी सुनाएंगे और लिखेंगे की उसे देखकर इनके मालिक को भी लगता है ये मैने कब किया? एक जर्मन शेफर्ड है वो रह रहकर भोंकता रहता है और खुद की तुलना उसने नेताजी सुभाषचंद्र बोस से कर दी थी वो भी जर्मनी रहकर फांसीवादी सरकार का विरोध काट रहा है ... अरे बुड़बक वो नेताजी ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिए थे,ये देश की जनता की चुनी हुई सरकार है... यार कितना भौंकता है ये जर्मन शेफर्ड  इसे देखकर रास्ते में लगा बोर्ड पर लिखा "शराबी कुत्तों से सावधान" याद आ जाता है..!

बाप के नाम पर मुख्यमंत्री बनने वाले को लगता है की वो बहुत बड़े जमीनी नेता हैं और उनके आगे कोई है ही नहीं। खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले आत्मुग्धता में डूबे हुए हैं। बाप को जिन्होंने लाठी लाठी पिटवाया था उनके साथ जुड़ जाए इतना ही नही बाप जिसको मेहरारू बनाने पर तुले हुए थे उसको बुआ बना लिए बस यही राजनीति है। भले विदेश में जाकर इंजीनियरिंग पढ़ा हो इन्होंने लेकिन सोशल इंजीनियरिंग में पूरे फेल  दिखे है। कहा क्या कब बोलना चाहिए शहुर नही सीखे फुल पप्पू को टक्कर दे रहे है..! ऐसा समाजवाद हावी है इनके ऊपर की ये आतंकियों और माफियाओं के कब्र पर फातिहा पढ़ने निकले जाते है हद तब हो जाती है जब "अज्ञात हमलवार" द्वारा मारे जा रहे भारत विरोधी तत्वों पर सवाल उठाने लग जाते है ... ये हर जगह हर मुद्दे पर बोलने लग जाते है बाते ऐसा करेंगे जैसे उनकी पार्टी क्षेत्रीय नही बल्कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टी है। जमीन से उखड़ते जा रहे है उखड़ चुके है बल्कि ये लेकिन कोई सुधार नहीं आया है इनमे जस के तस  अहंकार में डूबे हुए है।
यही हाल नौवीं फेल का है। इस नौवीं फेल को लगता है कि इसका आईक्यू लेवल भारत के पढ़े लिखे लोगो से ज्यादा है। बाप चारा खाकर जेल चल गया और ये गरीब गुरबा बनते है। मूस मारने वाला कहानी तो सबने सुना ही होगा  आजकल तो गरीब गुरबा मटन मुर्गा मारकर खाता है , हवाई यात्रा करते हुए आकाश में जल का फल निगलता है वो भी नवरात्रि के दिन वीडियो डालता है, सावन में तथाकथित दत्तात्रेय ब्राह्मण के साथ मटन वाली तस्वीरें सब देखे ही होंगे, अब जनता का खून नही पी पा रहे है तो यही सही। बाकी लालटेन में मिट्टी का तेल हो तो अपने पृष्ट भाग में डालकर जो कीड़ी है उसे मार सकते है बड़ी राहत मिलेगी।


एक वर्ग ऐसा है जिसे बात- बात पर विरोध प्रदर्शन करना होता है। होता इनसे कुछ नही है सिवाय बकइती के लेकिन ज्ञान दुनिया भर का देंगे। बोलेंगे ऐसे मानिए सरकार ने सबसे बड़ा अन्याय इन्ही के साथ किया है क्योंकि ये फलाने जाति से ताल्लुक रखते है। खुद को राजवंश और बड़े घराने का खून बताने वाले ये तथाकथित लोगो का अलग ही रोना है। अरे यार अगर सर्वश्रेष्ठ बनने का दंभ भरते हो तो बना लो पार्टी और कूद पड़ो राजनीति में कौन रोक रखा है तुम्हें..? उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय तथाकथित ब्राह्मणों पर  अत्याचार हो रहा था और लोकसभा में इन तथाकथित राजपूतों पर होने लगा है... हद है लालू मुलायम जैसे भी थे अपनी पार्टी बनाकर बड़े नेता बने न.. आप भी बन जाओ ये लोकतंत्र है, चलने चलाने का हुनर होना चाहिए। पैदा होते ही कोई सत्ता नही पा जाता है । विरोध करने की भी एक सीमा होती है , मजहबी लोगो को अपना बाप बनाएंगे तो गाली ही सुनेंगे । वो विदेशी कोख से जन्मा बोलता  है कि "राजाओं-महाराजाओं का राज रहा। जो भी वो चाहते, कर देते थे। किसी की जमीन चाहिए तो उसे हड़प लेते थे। कांग्रेस पार्टी और हमारे कार्यकर्ताओं ने देश की जनता के साथ मिलकर आजादी प्राप्त की, लोकतंत्र लेकर आए और संविधान दिलवाया। फिर चाय वाले ने प्रतिक्रिया व्यक्त की तो धुआं धुआं हो गया  "शहजादे ने तो राजा-महाराजा को बुरा-भला कह दिया। लेकिन भारत के इतिहास में जो अत्याचार नवाबों ने किए, सुल्तानों ने किए.. उनकी बात पर तो शहजादे के मुंह पर ताला लग जाता है।"

वैसे  कांग्रेस बनी कैसे थी ? कांग्रेस की स्थापना ही क्यों हुई थी? मुझे नही पता पर एक जगह पढ़ा था की "ऐ लन ऑक्टेवियन ह्यूम इटावा के ब्रिटिश कलेक्टर थे और १८५७ में भारतीय क्रांतिकारियों से बचने के लिए मंदिर में छिपे थे और फिर वहाँ से साड़ी पहन के भागे थे। इन्होंने एक संगठन की स्थापना की ताकि १८५७ जैसी ब्रिटिश विरोधी स्थिति पुनः ना उत्पन्न हो और ब्रिटिश सरकार के वफ़ादार नेताओं का एक संगठन बनाया। उस संगठन का नाम कांग्रेस था। क्या ही बोला जाय ये दूसरो पर लांछन लगाते है जिनका खुद का इतिहास ही काला और गंध से भरा हुआ है। तमिल नाडू में अपने बाप के हत्यारों के साथ मिलकर सरकार बना लेना ही तो राजनीति है।

वामपंथियों को कितना भी गरियाया जाय नही सुधरने वाले है। पहले तो इनका अस्तित्व ही नही बचा है ले देकर केरल में ही सिमट चुके है वो भी न जाने कब चला जाए हाथ से..! इनको कभी प्रश्न नही देखा हू पिछले कई सालों से राड़ की तरह छाती पीट रहे है। कॉमरेड गांजा फूंकने के बाद विश्वविद्यालय में फिलिस्तीन बचाओ की राजनीति करते हैं। इस समय तो छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का ताबड़तोड़ ठुकाई हो रहा है उसे लेकर इनके दिल में जो दर्द करारा उठ रहा है देखने लायक है.. ये प्रजाति ही ऐसी है जिसे जबतक पीटा जाय शांत नही रहते है कुछ न कुछ खुरपात करते ही रहते है.. पप्पू भी लगता है इन्ही लोगो से अपना मेनिफेस्टों इन्ही लोगो से लिखवाया होगा। लेफ्ट लिबरल की विचधारा रखने वाले कहते है "धर्म अफीम का नशा है" लेकिन जब बात इस्लाम की आती है तो तथाकथित सेकुलर लिबरल मुस्लिम लेखक बुद्धिजीवी पत्रकार आदि मजहबी कट्टरपंथ वाला रंग अपना दिखाने लग जाते है। देश के संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला हक है कहने वाले  पूर्व प्रधामंत्री मनमोहन सिंह हंस के वेश में बगुला हैं, मोदी जी कहे थे न एक बार "डॉ साहब रैन कोट पहनकर नहाते थे"। एकबार फिर से यही बात बोलकर पूरे विपक्षी में खेमे में भूचाल ला दिया है और विपक्ष पूरा मौका देने से चूक नही रहा है। हिंदू शरणार्थियों के लिए संसद में रोकर भागने वॉक आउट करने वाली हिडिंबा का  क्या ही कहना? रंग बदलने में गिरगिट से भी आगे निकली। आने वाले समय में इसका और इसके पार्टी का हाल  वामपंथियों से भी बुरा होगा तब तक कर ले हम्मा हम्मा रंभा बंबा..!

चुनावी  विश्लेषण वाले तथाकथित पत्रकार 4 जून को मातम मानते हुए नजर आएंगे फिलहाल प्रेशर कुकर की सीटी वाला काम रहे है वरना कुकर तो फट ही जाएगा..! मन की शांति के लिए विरोधी इन्हें पढ़ते है और इनके यूट्यूब चैनल पर जाकर देखते हैं। यकीन मानिए दो जून की रोटी तक नही पचेगी इन खलिहर खैरातियो से  कर ले बकइती जितना करना आखिर में यही सब करने का तो खैरात मिलता है। बाकी कोई नही टक्कर में चाय वाला फिर से आ रहा है पूर्ण बहुमत में .. चाय वाला चौकीदार बना था पिछले चुनाव में इस साल परिवार बन चुका है सबका और  देश जिसका परिवार बन के खड़ा हो गया हो उसे कौन रोक सकता है ..!

Sunday, March 10, 2024

छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है

कहते है जो पढ़ लिख लिया वो आगे बढ़ गया। बात सही भी है आजकल के आधुनिक दुनिया में बिना पढ़े लिखे गुजारा भी नही हैं किसी का। लाखों छात्र छात्राएं घर से दूर सुदूर निकल पड़ते हैं पढ़ने लिखने के लिए। कोई बनारस तो कोई दिल्ली तो कोई प्रयाग जाता है कलेक्टर बनने। अपना जी जान लगा देते है ये होनहार फिर भी सफलता के आड़े शासन- प्रशासन की नाकामियां आ जाती है। बार-बार पेपर लीक होना इन तमाम छात्रों का हौसला तोड़ देती है। एक पेपर को क्लियर करने में जब सरकार को चार साल लग जा रहे है तो क्या ही कहना... भुगतना तो छात्रों को पड़ता है जो सरकारी नौकरी के तैयारी  के लिए अपना सबकुछ झोंक चुके होते है।  जो लोग लगातार मेहनत कर रहे हैं भूख प्यास दुनिया जहान भूलकर लगे हुए थे तैयारी में उनका क्या ही कहना ,ऐसी अनियमिताओं से व्यथित होकर कोई आत्महत्या कर लेता है।
हर कोई इतना संपन्न परिवार से नही होता है कि लांखो रुपया लगाकर धंधा पानी खोल ले एक सरकारी नौकरी ही है जो उसकी जीवन की नैया पार लगा सकती है। कोई ऐसा पेपर नही जो साफ सुथरा ढंग से हुआ हो हर बार का वही हाल बनाया जा चुका है। पेपर लीक करके उसे रद्द कराना ही मास्टरस्ट्रोक बनकर रह गया है।

रेलवे से लेकर राज्य सरकारों की तमाम नौकरियों में लेट सबेर हो रहा है । नकल माफियाओं का दबदबा कायम है ये कोई भी पेपर होता है लीक करा देते है और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। एक कल्याण सिंह का समय था जब दसवीं और बारहवीं तक में नकल नही होता था और आज का समय है पीसीएस लेवल का परीक्षा तक सक दायरे में रहता है लीक हुआ है और हर बार होता है बार-बार होता है। मजाक बनकर रह गया है छात्रों का भविष्य। कोई ठुल्लुआ आकर कहता है की सरकारी नौकरी सबको नही मिल सकती है भीड़ ज्यादा हैं लोगो को दूसरे सेक्टर की तरफ ध्यान देना चाहिए लेकिन जितनी है उतनी किसी को मिल रही है की नही इसपर नही बोलेंगे। बाकी आईआईटी ,एनआईटी , आईआईएम, एमबीबीएस वाले आईएएस बने घूम रहे है वो देश सेवा का भाव है नागरिकशास्त्र , समाजशास्त्र आदि पढ़के स्नातक करने वाला सरकारी नौकरी की तरफ न देखे क्योंकि प्राइवेट सेक्टर में बहुत पैसा है...!
 हद दर्जे के लोग आ जाते है शासन-प्रशासन के नकारेपन पर सवाल खड़ा करने पर देशद्रोही घोषित कर देंगे 
अब तो हद हो गई है। मतलब अब  तो हद हो गई है की लेखपाल की परीक्षा पास करना भी बड़ी बात हो चली है अखबारो में लोगो की तस्वीरें छप रही है।
 सरकारी नौकरी पर ज्ञान देने वाली चुगद बिरादरी आजकल खामोश कैसे बैठी हुई है. नौकरी मिले न मिले इनके माईबाप नौकरियां देने की घोषणाएं तो भरपूर कर रहे हैं....बुरा तो लग रहा होगा, सुलग भी रही होंगी.. अपने माईबाप का विरोध नहीं करेगी ये बिरादरी?
खैर रोजगार का मतलब सिर्फ सरकारी नौकरी या कोई और पक्का रोजगार ही थोड़े होता है..कोई ३०० रूपये की दिहाड़ी पर महीना भर काम कर ले तो वो भी रोजगार ही होता है...!
कई सालो पहले मैने कुछ लिखा था वो आज भी सटीक बैठता है
अब है ही क्या समझाने और बताने को? 
गांव हो या शहर जिंदगी हो गई है खंडहर! 
घर- गांव छोड़ के खेती- बारी 
बड़का शहर में होत ह चौकीदारी! 
नौकरी ना मिलल सरकारी 
अब बेचत हई ठेला पर तरकारी ! 
क्या करे साहब शिक्षा हुई बेकार
 हम हुए अंग्रेजी के आगे लाचार ! 
फिर घर से हुए दूर बने मजदूर 
ना ढंग से पैसा ना भरा पेट भरपूर 
सारा सपना हुआ चकनाचूर! 
अब है ही क्या समझाने और बताने को? 
गांव हो या शहर जिंदगी हो गई है खंडहर!
 यही कहानी हर युवा गाता है 
अपने को यूपी-बिहार से बताता है!

Sunday, December 31, 2023

वो तथाकथित मस्जिदे जिनकी दिवारे चीखकर कहती है "हम मंदिर है"

देश जब आजाद हुआ तो शिक्षा व्यवस्था में एक ऐसा धड़ा बैठा था जिसने भारत और भारती इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया इसमें कोई सक नही हैं।आज भी इस्लामिक अक्रांताओ को महान बताने से ये पीछे नही हटते है। ये इनके कला और संस्कृति की बात करते है अब जिन्होंने भारत में मारकाट किया हो लाखो लोगो का धर्मांतरण किया हो उनका भला कोई कला संस्कृति भी होगा? इस देश में ये बात जबरदस्ती मनवाई जाती है वर्तमान में तो कोई नही मानने वाला है ये भी कहना गलत होगा मूर्खो की कमी नही है इधर बिना पढ़े दुसरो को सुनकर भी इधर बकवास किया जा सकता है इतिहास पर। मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाने वालों का भला क्या योगदान हो सकता है जिनका महिमंडन तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी और इतिहासकार करते है..!अयोध्या काशी मथुरा ही नही और भी बहुत सारे ऐसे प्राचीन मंदिर है जिसे तोड़कर मस्जिद खड़ी गई है।

 आइए जानते है कुछ ऐसे ही मंदिरो के बारे में :

अटाला मस्जिद 

उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल क्षेत्र के जौनपुर जिले में स्थित ये अटाला मस्जिद कभी अटाला मंदिर हुआ करता था। इसे देखते ही कोई भी कह सकता है ये मस्जिद नहीं मंदिर है। 
 इब्राहिम नायीब बारबक ने तुड़वाकर मस्जिद बनाई थी जिसे आज अटाला मस्जिद के नाम से जानते हैं। इसका काम 1377 में शुरू हुआ था और 1408 में इंब्राहिम शाह शर्की के शासन में खतम हुआ है।
कही से भी नही लगता है की ये विदेशी आक्रांताओं द्वारा इसका निर्माण कराया गया होगा। जिले की इतिहास पर लिखी त्रिपुरारि भास्कर की पुस्तक जौनपुर का इतिहास में अटाला मस्जिद के बारे में भी लिखा गया है। जिन्होंने अटाला के नाम के संबंध पर बताया कि "लोगों का विचार है कि यहां पहले अटलदेवी का मंदिर था, क्योंकि अब भी मोहल्ला सिपाह के पास गोमती नदी किनारे अटल देवी का विशाल घाट है। अंत में यह अटाला मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका निर्माण कन्नौज के राजा विजयचंद्र के जरिए हुआ था और इसकी देखरेख जफराबाद के गहरवार लोग किया करते थे। यह कहा जाता है कि इस मंदिर को गिरा देने का हुक्म फिरोज शाह ने दिया था परंतु हिंदुओं ने बहादुरी से इसका विरोध किया, जिसके कारण समझौता होने पर उसे उसी प्रकार रहने दिया गया था। अंत में 1364 ई. में ख्वाजा कमाल खां ने  इसे मस्जिद का रूप देना प्रारंभ किया इब्राहिम शाह शर्की ने पूरा किया। इसके विशाल लेखों से पता चलता है कि इसके पत्थर काटने वाले राजगीर हिंदू थे जिन्होंने इस पर हिंदू शैली के नमूने तराशे है। कहीं-कहीं पर कमल का पुष्प उत्कीर्ण है। यह मस्जिद जौनपुर की शिल्पकला का एक अति सुंदर नमूना है। इसके मध्य के कमरे का घेरा करीब 30 फीट है यह एक विशाल गुंबद से घिरी है जिसकी कला, सजावट और बनावट मिश्र शैली के मंदिरों की भांति है।"
बाकी जिले का नाम ही तुगलकी है "जौनपुर" तो समझ सकते है इसके स्थापना के लिए किस तरह इधर तबाही मचाई गई होगी इन इस्लामिक जिहादियों द्वारा। ना जाने सारे मंदिर इधर तोड़े फोड़े गए होंगे जिनके अवशेष तक नहीं मिलते होंगे।

अढ़ाई दिन का झोपड़ा

इसकी तो ऐसी प्रशंसा कर दी जाती है की क्या ही कहना।बहुत कम लोग जानते होंगे की मंदिर के स्थान पर बनाया गया है।
वो मूल रूप से विशालकाय संस्कृत महाविद्यालय (सरस्वती कंठभरन महाविद्यालय) हुआ करता था, जहाँ संस्कृत में ही विषय पढ़ाए जाते थे। यह ज्ञान और बुद्धि की हिंदू देवी माता सरस्वती को समर्पित मंदिर था। इस भवन को महाराजा विग्रहराज चतुर्थ ने अधिकृत किया था। वह शाकंभरी चाहमना या चौहान वंश के राजा थे।

कई दस्तावेजों के अनुसार, मूल इमारत चौकोर आकार की थी। इसके हर कोने पर एक मीनार थी। भवन के पश्चिम दिशा में माता सरस्वती का मंदिर था। 19वीं शताब्दी में, उस स्थान पर एक शिलालेख (स्टोन स्लैब) मिली थी जो 1153 ई. पूर्व की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि शिलालेख के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मूल भवन का निर्माण 1153 के आसपास हुआ था।

कहानी के अनुसार, 1192 ई. में, मुहम्मद गोरी ने महाराजा पृथ्वीराज चौहान को हराकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। उसने अपने गुलाम सेनापति कुतुब-उद-दीन-ऐबक को शहर में मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। ऐसा कहा जाता है कि उसने ऐबक को 60 घंटे के भीतर मंदिर स्थल पर मस्जिद के एक नमाज सेक्शन का निर्माण करने का आदेश दिया था ताकि वह नमाज अदा कर सके। चूँकि, इसका निर्माण ढाई दिन में हुआ था, इसीलिए इसे ‘अढाई दिन का झोंपड़ा’ नाम दिया गया। हालाँकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह सिर्फ एक किंवदंती है। मस्जिद के निर्माण को पूरा करने में कई साल लग गए। उनके अनुसार, इसका नाम ढाई दिन के मेले से पड़ा है, जो हर साल मस्जिद में लगता है।


प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम गोयल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू टेंपल: व्हाट हैपन्ड टू देम’ (‘Hindu Temples: What Happened To Them’) में मस्जिद का उल्लेख किया है। उन्होंने लेखक सैयद अहमद खान की पुस्तक ‘असर-उस-सनदीद’ का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अजमेर की मस्जिद, यानी अढाई दिन का झोंपड़ा, हिंदू मंदिरों की सामग्री का उपयोग करके बनाया गया था।

अलेक्जेंडर कनिंघम को 1871 में ASI के महानिदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने ‘चार रिपोर्ट्स मेड ड्यूरिंग द इयर्स, 1862-63-64-65’ में मस्जिद का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। कनिंघम ने उल्लेख किया कि स्थल का निरीक्षण करने पर, उन्होंने पाया कि यह कई हिंदू मंदिरों के खंडहरों से बनाया गया था। उन्होंने कहा, “इसका नाम ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ इसके निर्माण की आश्चर्यजनक गति को दिखाता है और यह केवल हिंदू मंदिरों के तैयार मुफ्त सामग्री के इस्तेमाल से ही संभव था।”

कनिंघम ने आगे रिपोर्ट में मस्जिद का दौरा करने वाले ब्रिटिश साम्राज्य के लेफ्टिनेंट-कर्नल जेम्स टॉड का हवाला दिया। टॉड ने कहा था कि पूरी इमारत मूल रूप से एक जैन मंदिर हो सकती है। हालाँकि, उन्होंने उन पर चार-हाथ वाले कई स्तंभ भी पाए जो स्वभाविक रूप से जैन के नहीं हो सकते थे। उन मूर्तियों के अलावा, देवी काली की एक आकृति थी।
उन्होंने आगे कहा, “कुल मिलाकर, 344 स्तंभ थे, लेकिन इनमें से दो ही मूल स्तंभ थे। हिंदू स्तंभों की वास्तविक संख्या 700 से कम नहीं हो सकती थी, जो 20 से 30 मंदिरों के खंडहर के बराबर है।

भोजशाला

‘भोजशाला’ ज्ञान और बुद्धि की देवी माता सरस्वती को समर्पित एक अनूठा और ऐतिहासिक मंदिर है। इसकी स्थापना राजा भोज ने की थी। राजा भोज (1000-1055 ई.) परमार राजवंश के सबसे बड़े शासक थे। वे शिक्षा एवं साहित्य के अनन्य उपासक भी थे। उन्होंने ही धार में इस महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिसे बाद में भोजशाला के रूप में जाना जाने लगा। यहाँ दूर-दूर से छात्र पढ़ाई करने के लिए आते थे।
देवी सरस्वती का यह मंदिर मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित है, जो उस समय राजा भोज की राजधानी थी। संगीत, संस्कृत, खगोल विज्ञान, योग, आयुर्वेद और दर्शनशास्त्र सीखने के लिए यहाँ काफी छात्र आया करते थे। भोजशाला एक विशाल शैक्षिक प्रतिष्ठान था।
मुस्लिम जिसे ‘कमाल मौलाना मस्जिद’ कहते हैं, उसे मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़कर बनवाया है। अभी भी इसमें भोजशाला के अवशेष स्पष्ट दिखते हैं। मस्जिद में उपयोग किए गए नक्काशीदार खंभे वही हैं, जो भोजशाला में उपयोग किए गए थे। मस्जिद की दीवारों से चिपके उत्कीर्ण पत्थर के स्लैब में अभी भी मूल्यवान नक्काशी किए हुए हैं। इसमें प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हुए हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृति व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है।  इसमें प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हुए हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृति व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है। इसके अलावा, कुछ अभिलेख राजा भोज के उत्तराधिकारी उदयादित्य और नरवर्मन की प्रशंसा की गई है। शास्त्रीय संस्कृत में एक नाटकीय रचना है। यह अर्जुनवर्मा देव (1299-10 से 1215-18 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान अंकित किया गया था। यह नाटक प्रसिद्ध जैन विद्वान आषाधार के शिष्य और राजकीय शिक्षक मदन द्वारा रचा गया था। नाटक को कर्पुरमंजरी कहा जाता है और यह धार में वसंत उत्सव के लिए था।



मंदिर, महलों, मंदिरों, महाविद्यालयों, नाट्यशालाओं और उद्यानों के नगर- धारानगरी के 84 चौराहों का आकर्षण का केंद्र माना जाता था। देवी सरस्वती की प्रतिमा वर्तमान में लंदन के संग्रहालय में है। प्रसिद्ध कवि मदन ने अपनी कविताओं में भी माता सरस्वती मंदिर का उल्लेख किया है।
साल 1305, 1401 और 1514 ई. में मुस्लिम आक्रांताओं ने भोजशाला के इस मंदिर और शिक्षा केंद्र को बार-बार तबाह किया। 1305 ई. में क्रूर और बर्बर मुस्लिम अत्याचारी अलाउद्दीन खिलजी ने पहली बार भोजशाला को नष्ट किया। हालाँकि, इस्लामी आक्रमण की प्रक्रिया 36 साल पहले 1269 ई. में ही शुरू हो गई थी, जब कमाल मौलाना नाम का एक मुस्लिम फकीर मालवा पहुँचा। कमाल मौलाना ने कई हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए छल-कपट का सहारा लिया। उसने 36 सालों तक मालवा क्षेत्र के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा की और उसे अलाउद्दीन खिलजी को दे दी। युद्ध में मालवा के राजा महाकाल देव के वीरगति प्राप्त करने के बाद खिलजी ने कहर शुरू हो गया। खिलजी ने भोजशला के छात्रों और शिक्षकों को बंदी बना लिया और इस्लाम में धर्मांतरित होने से इनकार करने पर 1200 हिंदू छात्रों और शिक्षकों की हत्या कर दी। उसने मंदिर परिसर को भी ध्वस्त कर दिया। मौजूदा मस्जिद उसी कमाल मौलाना के नाम पर है।


कुव्वत-उल-इस्लाम 
कुतुबुद्दीन ऐबक का कुतुब मीनार दिखाकर कला संस्कृति की अनोखी पहचान और उत्कृष्ट प्रदर्शन बताने वाले तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी इतिहासकार कुछ ज्यादा ही मग्न होते है। इस क्रूर आक्रांता ने भी कम कहर नहीं ढाए है हिंदुओ पर।
कुव्वत-उल इस्लाम मस्जिद कुतुब मीनार के उत्तर पूर्व में स्थित है। कुव्वत-उल-इस्लाम को मामलुक वंश के संस्थापक कुतुब-उद-दीन ऐबक ने बनवाया था। इसे 27 हिंदू और जैन मंदिरों के खंडहरों का उपयोग करके बनाया गया था। यह भारत पर मुस्लिम विजय का जश्न मनाते हुए विजय की मीनार के लिए जाना जाता है। कुछ इतिहासकार कहते है की ये सन 1195 में शुरू हुआ था बनना और 1199 खतम हुआ। देखने से विष्णु मंदिर नजर आता है साफ साफ। अब इसे इधर लोग ऐसे बताते है मानो कितने बड़े विद्वान थे ये मलेक्ष।

जफर खान गाज़ी का मकबरा और मस्जिद
कहा जाता है ये पहले विष्णु मंदिर था या कृष्ण भगवान का मंदिर है इसे खंडित करके मकबरा और मस्जिद में तब्दील कर कर दिया गया था। दीवारे झूठ नहीं बोलते है कभी बस इतना समझ लीजिए। आखिर कहा तक इन आक्रांताओं के वजूद को लेकर ढोएंगे भारत के हिंदू और ये भारत देश अपने आराध्य प्रभु श्री कृष्ण की दुर्दशा कबतक बर्दाश्त करता रहेगा?
आप इन प्रस्तुत तस्वीरों में देख सकते है आखिर किस तरह से हमारे अस्तित्व को समाप्त करने की कोशिश की गई है।
कोई माने या माने ये तस्वीरे सबकुछ बयां कर रही है। लोग खुद भी जाकर इन जगहों में जांच पड़ताल कर सकते है। बाकी तस्वीरों में इतिहास बाकी सब बकवास। भारत के कुछ मंदिरों की दिवारे ऐसे ही अपना दर्द रोती है। चीखती पुकारती हैं , आओ मुझे मलेक्षो से स्वतंत्र करो, मुझे पवित्र करो। हमारा अस्तित्व को मिटाने की कोशिश करने वालो का इतना सम्मान आखिर क्यों हो रहा है ? क्या हमें अपनी खोई हुई विरासत को सहेजने का हक नहीं है? हम अपने ही देश में अपने मंदिर को पुनः स्थापित नही कर सकते है .. मंदिरों के देश ऐसे ही न जाने कितने मंदिर न्याय मांग रहे है... एक दिन आएगा उनका वीर धर्मपुत्र इनको मुक्ति दिलाएगा। बाकी कहा तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवी वर्ग लंबे चौड़े भाषण देकर लेख लिखकर भषड़ मचाता हैं इसपर कुछ नही बोलेंगे ये लोग इनकी बोलती बंद हो जाएगी या ये मनगढ़ंत कहानी प्रस्तुत कर देंगे...!
देश में आपसी भाईचारे, गंगा जमुनी तहजीब की बात होती है तो क्या मंदिर तोड़ कर बने मस्जिद में नमाज़ पढ़ना गंगा जमुनी तहजीब का उदाहरण है या इस्लामी आक्रांताओं के गुणगान करने का? क्या मुस्लिमों को स्वेच्छा से इन स्थानों को इनके असली हकदार को नहीं दे देनी चाहिए?


( स्रोत~  हिस्ट्री ऑफ मेडिवल इंडिया-वीडी महाजन , मध्यकालीन भारत के इतिहास पर तमाम पुस्तके , कुछ तस्वीरें इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त

Friday, December 22, 2023

राजनीतिक हलचल आजकल

बहुत दिनों से मेरा मोबाइल खराब हो रखा है तो कोई खबर नहीं मिलती है। आजकल के अखबारों में भी वो अब बात नही रही बस चारो तरफ गंध फैला हुआ है। राजनीति तो राजनीति अब खेलों में भी अलग धंधा चालू हो चुका है। मतलब क्या ही बोला जाय आजकल के खेल पत्रकारो का वो किसी खिलाड़ी विशेष के दलाल बने हुए दिख जाते है अपने लेख और खबरों के माध्यम से। बनिए फैन किसी बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी का लेकिन इतना गिरिए की किसी और बेहतरी खिलाड़ी को नीचा गिराने लग जाए खुलेआम। खैर छोड़िए भी मुड़कर आते हैं राजनीति में शुरू से लेकर अंत तक छत्तीसगढ़ में जो माहौल मीडिया में भूपेश बघेल जी ने बनाया था क्या ही कहना ऐसा लग रहा था इस बार भी यही मुख्यमंत्री बनेंगे और फिर कांग्रेस की सरकार बनेगी...!  जब नतीजे आए तो सब धरा का धरा रह गया। वो बिकाऊ मीडिया भी गायब हो गई जो इन्हे एक महान नेता की तरह प्रस्तुत कर रही थी। 
यही हाल राजस्थान और मध्यप्रदेश का रहा। राजस्थान का तो फिर भी समझ में आता है की हर पांच साल में सरकार बदल ही जाती है और जनता भी त्रस्त थी गहलोत सरकार से लेकिन जो घटिया माहौल शिवराज या भाजपा सरकार के खिलाफ बनाया गया था मीडिया, सोसल मीडिया द्वारा उसको जोरदार तमाचा लगा है। हा मुख्यमंत्री बेसक मोहन यादव जी को बनाया गया है लेकिन इससे शिवराज जी की लोकप्रियता खत्म नही हो जाती है। समय की मांग थी बदलाव जरूरी था और हुआ है। अब जैसे राजस्थान में  भजन लाल शर्मा जी को मुख्यमंत्री का पद मिला है ठीक वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ में विष्णु देव साय जी को मिला है। बात साफ भाजपा ने बड़ा खेल खेल लिया है इन तीनो जमीनी नेताओ को मुख्यमंत्री का पद देकर। सवर्ण ,सामान्य, पिछड़ा या अनुसूचित जाति, आदिवासी वर्ग के लोगो  लेकर गजब की राजनीति चल रही है जिसमे भाजपा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है और विपक्ष से बहुत आगे निकल चुकी है जिसका परिणाम आने वाले लोकसभा चुनाव में भी दिखेगा। 
अब मोदी जी को पनौती बोला गया था मोदी जी ने उसे आड़े हाथों लिया इस मुद्दे को। कुछ लोग अपनी जबान बंद करके भी अपने पार्टी की मदद कर सकते है लेकिन इनसे ये भी नही होगा। चलिए ठीक है अभी हाल ही में संसद में कुछ तथाकथित लोग घुस गए जोकि एक राष्ट्रीय सुरक्षा में चूक का मामला है अगर यही बंदूक धारी होते और इनके पास विस्फोटक होता तो बड़ा हादसा हो सकता है। विपक्ष के पास बेहतरीन मौका था की सरकार को इस मुद्दे को लेकर घेरे लेकिन नही इन्हे उन तथकतिथ घुसपैठियों का समर्थन करना था। समर्थन करते हुए कहते है सब की बेरोजगारी की वजह से ये सब हुआ है। एक अलग ही स्तर की राजनीति चल रही विपक्ष वालो की इनका बनाया इंडी गठबंधन भी किसी काम का सब ढोकोसला था। शायद पहली बार ऐसा हुआ है की राज्यसभा से इतने सांसद निलंबित हुए है। विरोध प्रदर्शन में एक टीएमसी के नेता कल्याण बनर्जी ओछी हरकत करते हुए नजर  आए देश के उपराष्ट्रपति की नकल कर रहे थे और मजाक उड़ा रहे थे वही पर कांग्रेस के युवराज वीडियो बना रहे थे। एक लगभग 80 साल के शिष्ट और सुसंस्कृत व्यक्तित्व का मजाक उड़ाया गया जो संवैधानिक तौर पर भारत के शायद तीसरे सबसे महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन हैं। राहुल गांधी कभी भी एक गंभीर राजनेता नहीं बन सकते। राहुल गांधी वीडियो बनाने की जगह उस सांसद को रोकते तो एक गंभीर राजनेता की छवि बन सकती थी ये छोटी छोटी चीज ही इंसान को बड़ा बनाती है
बाकी सब मौजूद सांसदों की नीचता का स्तर भी दिख गया।