Sunday, November 5, 2023

संविधान प्रावधानों के स्त्रोत और योगदान


संविधान कि बेसिक बातों को छोड़कर कुछ अलग जानने कि कोशिश करते हैं। 

आंशिक भ्रांति वाली बातों जैसे कि संविधान मूलतः केवल प्रारूप समिति ने ही तैयार किया, संविधान का आधार मूलतः 1935 का भारत सरकार अधिनियम और संविधान के स्त्रोत केवल विदेशी संविधान ही है जैसे मुद्दों पर थोड़ा ध्यान देते हैं।

सर्वप्रथम तो "प्रारूप समिति" पर वाली बात पर आते हैं, संविधान सभा कि अनेक समितियां थी जिन्होंने अपना काम ईमानदारी व मेहनत से किया। उन्हें में से एक प्रारूप समिति भी थी इसलिए ऐसा नहीं कि उसका योगदान नहीं है। लेकिन अक्सर ऐसा समझा जाता है संविधान का खाका सर्वप्रथम इसी समिति और हल्केपन से कहां जाएं तो बाबा साहेब अंबेडकर ने तैयार किया। लेकिन ऐसा नहीं है, प्रारूप समिति का मुख्य काम ये था कि संविधान सभा कि परामर्श समिति द्वारा तैयार संविधान के प्रारूप का परिक्षण करें। और इस परामर्श समिति ने ही संविधान को प्रथम प्रारूप तैयार किया। इसमें प्रमुख थे संवैधानिक परामर्शदाता 'बेनेगल नरसिंह राव, जो कि एक सिविल सेवक और राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने विश्व के संविधान विशेषज्ञों से बातचीत करके एक प्रतिवेदन भी प्रस्तुत किया। एक और महत्वपूर्ण बात कि ये सब होने से पहले ही संविधान सभा के सचिवालय ने 3 जिल्दों में दुनियाभर के संविधानों के महत्वपूर्ण दृष्टांत इक्ट्ठे पर संविधान सभा के सदस्यों को वितरित कर दिए थे।

अब आते हैं दूसरी बात पर कि एक लोकप्रचलित बात ये भी है कि संविधान का मूल ढांचा 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है और संविधान के लगभग सारे ही प्रावधान विदेशी संविधानों से उठाए गए हैं। लेकिन ये भी पूर्णतः सत्य नहीं है, बहुत से महत्वपूर्ण प्रावधान जो अभी संविधान में है और जो वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था है उनके बीज और छाया आपको 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट और बाद में आए अधिनियमों में दिख जाएंगे। मूलाधार वो ही है।

नोट: ये सत्य है कि ब्रिटिश सरकार ने जो एक्ट और अधिनियम पारित किए वो केवल उसकी ही सहायता के लिए थे। लेकिन उन्हीं को आधार बनाकर आज के मोटे-मोटे प्रावधान बनाए गए हैं वो भी सत्य ही है।

जैसे कि:

1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट में आपको कालांतर में यानि वर्तमान में राष्ट्रपति कि सर्वोच्चता, मंत्रीमंडल, केन्द्रीय सरकार का प्रारूप, केन्द्र और राज्य तथा विदेश नीति, युद्ध जैसे मामलों में केन्द्र के अधिकार, संसद का प्रशासन पर नियन्त्रण, सुप्रीम कोर्ट के लक्षण नजर आने लगते हैं।

1781 के संशोधन अधिनियम में आपको नजर आएगा कि वहां सुप्रीम कोर्ट कि निरंकुशता पर आंशिक रोक लगी, संसद कि सर्वोच्चता का लक्षण दिखता है, कानून बनाने में भारतीय समाज के रीति-रिवाजों यानि कि समाजिक ढांचे के अनुसार व्यवहारिक कानून बनाना, केन्द्र को राज्यों के लिए कानून बनाने का अधिकार विधि निर्माण में संसद कि सर्वोच्चता के लक्षण दिखते हैं।

1784 के पिट्स इंडिया एक्ट में हमें केन्द्रीय मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री तथा राज्यों में राज्य मंत्रिमंडल का शुरूआती रूप देखने को मिलता है।

1786 के संशोधन अधिनियम में राष्ट्रपति के बिल पर रोक और अध्यादेश पारित करने कि शक्ति का आंशिक रूप देखते हैं।

1793 के चार्टर एक्ट में, हम एक लिखित संविधान और संविधान के प्रावधानों कि व्याख्या सुप्रीम कोर्ट के द्वारा किए जाने, लोकप्रतिनिधि के भारतीय नागरिक होने का अनिवार्यता व उनका वेतन जैसी बातों का आरंभिक रूप दिखता है।

1813 के चार्टर एक्ट में हम समानता का एक रूप देखते हैं (भले ही वो उस समय कंपनी के अलावा बाकी ब्रिटिश व्यापारियों के लिए हो), शिक्षा बजट इत्यादि कि एक रूप देखते हैं।

1833 के चार्टर एक्ट से हमें फिर राष्ट्रपति कि सर्वोच्चता और केन्द्र के पास अधिक अधिकार होने के लक्षण दिखते हैं। पद पर नियुक्ति के लिए समानता, कानून मंत्री और विधि मंत्रालय कि उद्गम का रूप दिखता है।

1853 के चार्टर एक्ट में राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना, राज्यों में राज्यपाल नियुक्ति, शक्ति पृथक्करण, प्रतियोगी परीक्षाओं व राज्यों को भी अपने अधिकार क्षेत्र के कानून बनाने का अधिकार के शुरूआती रूप दिखते हैं।

1858 के भारत सरकार अधिनियम में, हम सरकारों कि वैधानिकता, संसद से पारित कानूनों पर राष्ट्रपति कि स्वीकृति, संसद में बजट पेश करना, लोक सेवाओं में समानता, जनता कि एकसमान अधिकार, सरकार के लोककल्याणकारी कार्यों जैसे अनेक प्रावधानों कि कच्ची रूपरेखा देखने को मिलती है।

1861 के भारत परिषद अधिनियम में हम संसद व विधानसभाओं में सदस्यों कि संख्या का निर्धारण, संसद के द्वारा नए राज्य व केंद्र शासित प्रदेश बनाना, राष्ट्रपति व राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार, संसद द्वारा देश के नागरिकों हेतु कानून बनाना, जैसे प्रावधानों व शक्तियों का और अधिक स्पष्ट रूप नजर आने लगता है।

1892 के भारतीय परिषद अधिनियम में निर्वाचन द्वारा विधानसभा व लोकसभा के सदस्य चुने जाना, संसद व विधानसभा कि शक्तियों में वृद्धि, कार्यपालिक पर नियंत्रण जैसी चीजों का शुरूआती रूप दिखने लगता है।

1909 के भारतीय परिषद अधिनियम (मार्ले-मंटो सुधार) में हम आरक्षित सीटों के कंसेप्ट, सरकार कि संसद में जवाबदेही जैसे महत्वपूर्ण प्रावधानों को पनपता देख सकते हैं।

1919 का भारत सरकार अधिनियम (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) में द्विसदनीय व्यवस्था, राज्यसभा में मनोनीत सदस्य, निर्वाचन क्षेत्र, मताधिकार, राज्यों में भी द्वैध शासन, केंद्र व राज्यों में विषयों का बंटवारा जैसे सिद्धांतों को और परिपक्व होते देखते हैं।

बाकी 1935 और 1947 का भारत सरकार अधिनियम तो है ही । उनके बारे में लिखकर पोस्ट को क्यूं ही बिना बात लंबा करना, जबकि ये पहले ही हो चुकीं हैं।

खैर, इतना लिखने का उद्देश्य बस ये था कि ऐसा नहीं है कि सबकुछ अचानक हो जाता है और एक ही इन्सान सबकुछ कर डालता है। विशेषकर बात जब एक सामूहिक योगदान से बने किसी प्रोजेक्ट कि हो, और यहां वो प्रोजेक्ट संविधान था। सबका योगदान था, सबका खून-पसीना शामिल था। ना किसी एक व्यक्ति और ना किसी एक राजनीतिक पार्टी ने तैयार किया।

लेखक: पुष्पराज आर्य

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