Monday, November 16, 2020

हिन्दू नजरिए से

वरिष्ठ लेखक-शंकर शरण

हिंदू बुद्धिजीवियों द्वारा सेक्यूलर कहलाने के लिए उट-पटांग हरकतें ऐसी हैं, मानो हंस कौवे की चाल चलने के लिए मरा जा रहा हो। ऐसे सेक्युलरिज्म के मूल्यांकन के लिए सीताराम गोयल की पुस्तक 'इंडिया' ज सेक्युलरिज्म: न्यू नेम फॉर नेशनल सब्वर्सन'(वॉयस ऑफ इंडिया,2003) अवश्य पठनीय है। भारत में सनातन धर्म के हजारों वर्ष के इतिहास में कभी धर्म के नाम पर रक्तपात नहीं हुआ किंतु जब से सेक्युलरवाद की धारणा उधार दे गई, तब से हमारी समस्याओं का अंत नहीं। जिन धारणाओं की पृष्ठभूमि नितांत भिन्न है, उनकी अंध-नकल कर हमने अपनी संस्कृति को भ्रष्ट और घायल किया।
इसाईयत की उत्पत्ति के बाद जो विचार- तंत्र यूरोप में रिलीजन नाम से जाना गया,भारत में ऐसी कोई चीज ईसाई या इस्लामी मत आने से पहले ना थी। यहां जी से धर्म कहते है, वैसा कोई विचार ईसाइयत या इस्लामी-मतवाद मैं नहीं है। इसीलिए पश्चिमी भाषाओं में भारत की 'धर्म'अवधारणा के लिए कोई शब्द नहीं, और यूरोपीय 'सेक्युलरिज्म' के लिए भारतीय भाषाओं में कोई शब्द नहीं मिलता। यूरोप में चौथी-आठवीं शताब्दी के बीच ईसाई चर्च और राज्य के बीच गहरा संबंध था। दोनों मिलकर व्यक्ति के इहलोक और परलोक पर तानाशाही नियंत्रण रखते थे। चर्च के कुपित होने पर किसी को जिंदा जलाने तक हर यंत्रणा दी जाती थी। राजा मानते थे कि राज्य चर्च की सेवा के लिए है। इसीलिए वहां राज्य को चर्च का "सेक्यूलर अंग"  कहा जाता था।

चर्चा और राज्य का गठजोड़
जब तक यूरोप में ऐसे लोग बच रहे जिन्हें ईसाइयत में लाना शेष था, तब तक चर्चा और राज्य का यकृत जोर बखूबी चलता रहा। किंतु 15 वी शताब्दी तक पूरा यूरोप ईसाई हो चुका थ। अब चर्च के हस्तक्षेप से राजाओं को कठिनाई होने लगी। फिर, चर्च की मनमानियों के विरुद्ध यूरोप में जगह-जगह विद्रोह भी होने लगे। उसी समय यूरोप के अनेक चिंतक ग्रीस, भारत और चीन जैसी प्राचीन संस्कृतियों के संपर्क में आए। इससे उन्हें मानवीयता और सार्वभौमिकता के नवीन विचार प्राप्त हुए। उस प्रभाव में उन्होंने 
ईसाई मतवाद के विरुद्ध वैचारिक विद्रोह का सूत्रपात किया। "रिफॉर्मेशन और रेनेसा"के आंदोलन वही चीज थे। जल्द ही ईसाई मतवाद को मैदान छोड़ना पड़ा। अंततः 19वीं शताब्दी तक यूरोप राज्य चर्च के दबदबे से मुक्त हो गए।अब राज्य का कार्य यह न रहा कि प्रजा के परलोक का भी जबरदस्ती ध्यान रखें। अब वह व्यक्ति के निजी विश्वास के विषय में बदल गया। इसे भी राज्य का सेक्यूलर बन जाना कहां गया।
इस पृष्ठभूमि में देखिए कि स्वतंत्र भारत में सेक्युलरिज्म का क्या अर्थ हुआ? स्वाधीनता आंदोलन के संपूर्ण काल में हमारे किसी चिंतक, नेता या सामाजिक संगठन के विचारों या प्रस्ताव में सेक्युलरिज्म शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। फिर स्वतंत्र भारत में वही शब्द संविधान के ऊपर भी एक तरह का सुपर- विधान और डिक्टेटर कैसे बन बैठा? यह एक भितरघात था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में इस्लाम और ईसाईयत के नाम से उस विचार-तंत्र के दो रूप अस्तित्व में थे, जिसे यूरोप में रिलीजन कहा जाता था। जिसके जगह से मुक्त होने के लिए वहां सेक्युलरिज्म का पादुर्भाव हुआ। भारत में चर्च ने गोवा जैसे कुछ जगहों में राज्य शक्ति के प्रयोग से लोगों को ईसाइयत के घेरे में लाने की हर तरह के अत्याचार किए थे।इस संदर्भ में ही समझा जा सकता है कि भारत में इस्लाम या ईसाइयत के पहले हिंदू समाज की राज्य सत्ताए स्वभाव से ही 'सेक्यूलर' रही हैं। वैजानती ही नहीं थी कि ऐसा भी राज्य हो सकता है, जो बुद्धि - विवेक से परे जबरदस्ती कोई मत-विश्वास फैलाने का कार्य भी कर सकता है।

अतएव ,ऐसे हिंदू समाज को सेक्युलरिज्म का  उपदेश- निर्देश देना मानो सूरज को दीपक दिखाना था। वस्तुतः स्वतंत्र भारत में सेक्युलरिज्म एक ही अर्थ हो सकता था, यह कि उन धर्मांतरण- विस्तारवादी मतवादों केअंधविश्वासी मंसूबों पर रोक लगाकर जनता को पूर्ण सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्रदान की जाती।किसी उलेमा या चर्च के नियंत्रण से मुक्त कर अपनी सहज चेतना से जीवन जीने की स्वतंत्रता मिलती किंतु दुर्भाग्य से नितांत विपरीत घटित हुआ। उलेमा और मिशनरी वर्ग,जिन्होंने सदैव भारतीय धर्म संस्कृति के प्रति और शत्रुता प्रदर्शन किया था, ने दुष्प्रचार आरंभ कर दिया कि स्वतंत्र भारत में ईसाई और इस्लामी समुदाय को बहुसंख्यक हिंदुओं से खतरा है।इसलिए राज्य को उनकी रक्षा के उपाय अर्थात विशेष सुविधाएं देनी चाहिए।

उल्टा चोर कोतवाल को डांटे
यह उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसी बात थी। जिन उलेमा और मिशनरियों ने सदियों से हिंदू जनता पर राज्य- बल से हर तरह के अत्याचार किए, जिसका रिकॉर्ड उनके अपने गौरव-गाथा साहित्य में उपलब्ध हैं, वही अपने को पीड़ित बता रहा था। अपने भोलेपन में स्वतंत्र भारत के नौसीखिए सत्ताधीश सदियों से कूटनीति में पगे मुल्ला  और मिशनरियों की बात मान बैठे। इस्लामिक तबलीगियो और ईसाई मिशनरियों को अपने साम्राज्यवादी विचार-तंत्र का प्रचार करने की छूट और विशेष सुविधाएं दी गई। ऊपर से नेहरू जी ने अपने कम्युनिस्ट अंधविश्वास में हिंदू धर्म से वितृष्णा को राजकीय नीति बना डाला। इसी को सेक्युलरिज्म का नाम दे दिया गया।
होना तो यह चाहिए था कि उन स्व-घोषितधर्मांतरणकारी विचार तंत्रों से हिंदू समाज को अब सुरक्षा दी जाती जो शताब्दियों बाद जाकर मुक्त हुआ था किंतु उल्टे एक बार फिर भारत में सनातन धर्म को ही शिकारी मतवादों के समक्ष असहाय छोड़ दिया गया। यह कितनी बड़ी विडंबना हुई, इसे समझा तक नहीं गया है। कश्मीर से हिंदुओं का नाश उसी नीति आक्रामक विचार तंत्रों के समक्ष हिंदुओं को असहाय छोड़ देने की नीति का ही एक दुष्परिणाम हुआ।भारत में प्रचलित सेक्युलरिज्म हिंदू धर्म- संस्कृति के प्रति अस्थाई शत्रुता भाव से भरे आक्रमक मत वादों को प्रोत्साहन देने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रहा है। ऐसे सेक्यूलरवाद से पूर्णतः छुटकारा पाना हिंदू समाज का सर्वप्रथम कर्तव्य होना चाहिए।

(यह लेख राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 16 जून 2018 को छपा था)

5 comments:

  1. भारत में सनातन धर्म के हजारों वर्ष के इतिहास में कभी धर्म के नाम पर रक्तपात नहीं हुआ किंतु जब से सेक्युलरवाद की धारणा उधार दे गई, तब से हमारी समस्याओं का अंत नहीं। जिन धारणाओं की पृष्ठभूमि नितांत भिन्न है, उनकी अंध-नकल कर हमने अपनी संस्कृति को भ्रष्ट और घायल किया..सत्य कथन ।

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  2. सटीक एवं सार्थक। सेक्युलरिज्म के नाम पर इस्लामिक जिहाद और मिशनरियों को खुलेआम समर्थन मिला है..।वर्तमान में विपक्ष की राजनीति को देखा जाए तो ये अभी तुष्टिकरण की राजनीति से बाज़ नहीं आए है। कम्युनिस्टों के लिए धर्म अफीम का नशा है हिन्दू धर्म की आलोचना और वेद पुराणों की गलत व्याख्या करते हुए दिख जाते है। पर इस्लाम और ईसाई मिशनरियों का जोर शोर से समर्थन करते हैं।

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  3. स्वाधीनता आंदोलन के संपूर्ण काल में हमारे किसी चिंतक, नेता या सामाजिक संगठन के विचारों या प्रस्ताव में सेक्युलरिज्म शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। फिर स्वतंत्र भारत में वही शब्द संविधान के ऊपर भी एक तरह का सुपर- विधान और डिक्टेटर कैसे बन बैठा? यह एक भितरघात था।

    सहमत

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