(प. पू. सरसंघचालक श्री. बालासाहेब देवरस द्वारा 1974 में पूना की ‘वसंत व्याख्यानमाला’ में दिया गया भाषण।)
आपने मुझे वसंत व्याख्यानमाला के इस वर्ष के भाषण-सत्र में आमंत्रित कर जो गौरव प्रदान किया है तथा यहां अपने विचार व्यक्त करने का सुअवसर दिया है, उसके लिये मैं आपका आभारी हूं।
यहां के आयोजकों ने मुझे कुछ विषय सुझाये थे, उनमें से मैंने 'सामाजिक समता और हिन्दु-संगठन'-विषय को चुना। क्योंकि राष्ट्र के भविष्य तथा विशेष रूप से हिन्दु-संगठन की दृष्टि से यह विषय अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्र के कल्याणार्थ हिंदु-संगठन आवश्यक है। अत: उससे संबंधित सभी प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं। किन्तु इनमें भी सामाजिक समता का विषय नाजुक और सामयिक होने के कारण, वह मुझे अधिक महत्त्व का प्रतीत हुआ। इसीलिये मैंने सोचा कि ऐसे विषय पर विचार व्यक्त करने का सुवअसर मुझे नहीं चूकना चाहिये।
हिन्दु कौन है ? हिन्दु शब्द की व्याख्या क्या है ? इस पर अनेक बार काफी विवाद खड़े किये जाते हैं, ऐसा हम सभी का सामान्य अनुभव है। हिन्दु शब्द की अनेक व्याख्यायें हैं, किन्तु कोई भी परिपूर्ण नहीं है। क्योंकि हरेक में अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति का दोष है। किन्तु कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं है, केवल इसीलिये क्या हिन्दु समाज के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकेगा ? मेरी यह मान्यता है कि हिन्दु समाज है और उस नाम के अन्तर्गत कौन आते हैं, इस सम्बन्ध में भी सभी बन्धुओं की एक निश्चित व सामान्य धारणा है, जो अनेक बार अनेक प्रकारों से प्रकट होती है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने 'हिन्दु कोड' बनाया। उसे बनाने में पं. नेहरू तथा डॉ. आम्बेडकर आदि अगुवा थे। यहां के बहुसंख्य समुदाय के लिये यह कोड लागू करने के विचार से अन्ततोगत्वा उन्हें इस कोड को 'हिन्दु कोड' ही कहना पड़ा तथा वह किन लोगों को लागू होगा, यह बताते समय उन्हें यही कहना पड़ा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा यहुदी लोगों को छोड़कर अन्य सभी के लिये-अर्थात् सनातनी, आर्य समाजी, जैन, सिक्ख, बौद्ध-सभी को यह लागू होगा। आगे चलकर तो यहां तक कहा है कि इनके अतिरिक्त और जो भी लोग होंगे, उन्हें भी यह कोड लागू होगा। 'हमें यह लागू नहीं होता' यह सिद्ध करने का दायित्व भी उन्हीं पर होगा।
उन्हें ऐसा विचार क्यों करना पड़ा ? तो उनके ध्यान में यह बात आयी कि ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से इन सभी बन्धुओं के लिये सर्वसमावेशक शब्द हिन्दु ही है। इसीलिये हिन्दु शब्द का उच्चारण करते ही, ये सारे लोग उसमें आते हैं, ऐसा मानकर ही हम इस विषय का विचार करेंगे।
हम सभी हिन्दुओं को संगठित करना चाहते हैं। संगठन याने मोर्चा अथवा सभा नहीं। वहां भी लोग एकत्रित होते हैं और संगठन में भी एकत्र आते हैं। अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि संगठन में उन्हें एकत्रित लाना पड़ता है। एकत्रित होने पर वे एकत्र, साथ-साथ कैसे रहेंगे, उन्हें एक-साथ क्यों रहना चाहिये, इसका भी विचार करना पड़ता है। इस एकता का आधार क्या हो सकता है ?
अपनी यह मातृभूमि है, हम उसके पुत्र हैं, और हजारों वर्षों से हम यहां एक साथ रहते आये हैं। इस दीर्घ कालखण्ड में हमने भूतकाल का उज्ज्वल इतिहास निर्माण किया है, यह भावनात्मक अधार तो होगा ही, किन्तु क्या यही पर्याप्त है ? क्या इस भावना के साथ ही कोई व्यावहारिक पक्ष होना आवश्यक नहीं ? सब लोगों को 'हम सभी एक हैं' का भावनात्मक बोध होना जैसा आवश्यक है, वैसा ही प्रत्यक्ष व्यवहार में भी इस एकता का अनुभव सदा सहज रूप से होना चाहिये। अपने दैनंदिन व्यवहार में जब तक हम सभी को अपनी इस 'एकता' की अनुभूति नहीं होती, तब तक एकता की नींव मजबूत और चिरस्थायी नहीं हो सकती। यदि आप ऐसा समझते हैं, और मुझे विश्वास है कि आप भी ऐसा ही सोचते हैं, तो फिर इस दृष्टि से हममें क्या कमी है, इसका विचार करना भी आवश्यक हो जाता है।
विगत अनेक शताब्दियों के इतिहास में मुट्ठीभर मुसलमानों तथा अंग्रजों ने इस देश पर राज किया, हमारे अनेक बांधवों का धर्मांतरण किया तथा हम लोगों के बीच ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण, सवर्ण-अस्पृश्य आदि भेद पैदा किये। इस सम्बन्ध में केवल उन लोगों को दोष देकर हम अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते। परकीयों से सम्बन्ध आने, उनके द्वारा बुध्दि-भेद किया जाने से ही यह सब हुआ, ऐसा कहने मात्र से क्या होगा ? अन्य समाज और संस्कृति के साथ आज नहीं तो कल सम्बन्ध तो आनेवाला ही था। बर्लिन में जिस भांति दीवार खड़ी की गयी, वैसा होना तो संभव ही नहीं था। दीवार तो वे खड़ी करते हैं, जिन्हें दूसरों के दर्शन और विचारों से भय लगता है। दोनों पध्दतियां एक साथ चलने में ही उनकी श्रेष्ठता प्रस्थापित होती है। जो पध्दति भय के कारण अपने चारों ओर दीवार खड़ी करती है, वह तो स्वयं ही अपनी हीनता स्वीकार कर लेती है। अत: अन्य लोगों पर दोषारोपण करने की अपेक्षा अन्तर्मुख होकर हमारे किन दोषों का उन्होंने लाभ उठाया, इसका भी हमें विचार करना होगा। इसके लिये सामाजिक विषमता भी कारणीभूत रही है, ऐसा हमें स्वीकार करना होगा। वर्ण-भेद, जाति भेद, अस्पृश्यता ये सभी सामाजिक विषमता के ही आविष्कार हैं। आज भी समाज में विचरण करते समय इन प्रश्नों की ठोकर हमें लगती है, यह हम सभी का अनुभव है।
अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही संस्कृति के हम अभिमानी हैं। सम्पूर्ण हिन्दु समाज को अपनी संस्कृति का अभिमान रखना चाहिये, यह हमारी अपेक्षा है। हम समझते हैं कि हिन्दु को यदि सच्चे अर्थ में हिन्दु के रूप में जीवित रहना है, तो उसे अपनी संस्कृति के शाश्वत-जीवन मूल्यों को, जो प्रदीर्घ काल के आघातों और ऐतिहासिक तथा राजनीति की उथल-पुथल के बावजूद टिके रहे, बने रहे, उनकी विरासत को नहीं छोड़ना चाहिये। ऐसा सोचना उचित ही है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि 'जो पुराना है वह सोना है', वह अपरिवर्तनीय और शास्त्रशुद्ध है।
'पुराणमित्येव न साधु सर्वम्' अर्थात् पुराना है इसीलिये अच्छा है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं। यह भी सोचने का तरीका उचित नहीं कि पुरानी बातों से अब तक हमारा गुजारा होता रहा, अत: आज ही नये ढंग से सोचने की क्या आवश्यकता है ? 'तातस्य कूपोऽ यमिति ब्रुवाणा: क्षारं जलम् कापुरुषा: पिबन्ति' अर्थात् यह कुआं मेरे पिताजी का है, उसका जल खारा हुआ तो क्या हुआ ? उन्होंने इसका जल पीया है, उनका कुछ नहीं बिगड़ा। अत: हम भी उसी जल को पीयेंगे। इस प्रकार का दुराग्रह करना ठीक नहीं होगा। किन्तु समाज में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं। एक वर्ग किसी भी नयी बात को स्वीकार करने को तैयार रहता है। अन्य प्रकार के लोगों में पुरानी बातों से चिपके रहने की वृत्ति होती है। 'परीक्षान्यतरत् भजन्ते'- ऐसा विचार कर अर्थात् कसौटी पर कस कर, सदसद्विवेक बुध्दि से किसी वस्तु का त्याग अथवा स्वीकार करना ही अधिक उचित होगा। अधिकाधिक लोग इसी पद्धति से विचार और आचार करने हेतु प्रवृत्त हों, ऐसा हमें प्रयास करना चाहिये।
मुझे यह जानकारी मिली है कि यहूदी लोगों ने विशिष्ट कालखण्डों के बाद बार-बार अपने धर्मग्रन्थों और धार्मिक आचारों की जांच की है, पुनर्मूल्यांकन किया है। धर्मग्रंथ के शब्द तो बदलना संभव नहीं था। किन्तु उन्होंने नयी व्याख्यायें (Interpretations) तैयार कीं। प्राचीन काल में अपने देश में भी इसी प्रकार का धर्मचिंतन, धर्ममंथन किया ही गया होगा। उन्होंने इस बात का भी विचार किया होगा कि अपने धर्म की शाश्वत बातें कौन सी हैं और परिवर्तनीय कौन सी ? अन्यथा इतनी स्मृतियां तैयार नहीं हो पातीं। अपने देवताओं में परिवर्तन हुआ है। ऋग्वेद के इन्द्र, वरुण, अग्नि प्रभृति देवताओं के बजाय विष्णु और शिव की उपासना चल रही है। शैव और वैष्णवों के बीच शत्रुता का व्यवहार था, किन्तु आद्य शंकराचार्यजी ने समन्वय स्थापित कर पंचायतन पूजा प्रचलित की। अब तो घर-घर में शिवरात्रि के साथ ही, शयनी व प्रबोधिनी एकादशी का व्रत रखा जाता है।
प्राचीन ग्रन्थों में, पुराणों में जो कथायें बतायी गयी हैं, उन्हें हम ज्यों-की-त्यों सही मानने के लिये तैयार नहीं। अपने पुराणों में चन्द्र-ग्रहण की कथा है। राहु चन्द्रमा को लीलता है, इसीलिये चन्द्र को ग्रहण लगता है। अत: शालाओं में बच्चों को चन्द्र-ग्रहण क्यों लगता है यह पढ़ाते समय, क्या इस कथा को भी पुस्तक में शामिल किया जायेगा ? ऐसी बात नहीं कि रुढ़िवादिता अथवा धर्मग्रंथ के हर शब्द पर अक्षरश: विश्वास और आस्था रखना कोई अपने ही देश में है। सन् 1925 में अमेरिका में एक बड़ा रोचक मामला चला (रीडर्स डाइजेस्ट जुलाई 1962)। वहां एक राज्य में किसी शिक्षक पर मामला चलाया गया। उस पर आरोप लगाया गया कि बाइबिल में सृष्टि और मनुष्य की उत्पत्ति की जो कहानी है, उसके विरुद्ध वह 'ईव्होल्यूशन' की 'थ्योरी' बताता है। उसे दण्ड भी दिया गया। किन्तु आज तो सभी ईसाई बाइबिल में वर्धित सृष्टि व मनुष्य की उत्पत्ति की कहानी को अमान्य करते हैं। फिर भी बाइबिल को वे अमान्य नहीं करते। यह बात ध्यान में रखने योग्य है।
अनेक बातें ईश्वर ने निर्माण की हैं, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। वे अपरिवर्तनीय हैं, यही समझाने का उनका उद्देश्य रहता है। किन्तु ईश्वर ने ही स्वयं कहा है कि 'धर्म-संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे'। धर्मग्लानि के बाद धर्म-संस्थापना का यह अर्थ तो नहीं कि पुरानी बातों को ही फिर से लाया जायेगा, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा। अंतिम पैगम्बर की भांति, 'मैं अंतिम अवतार हूं,' ऐसा तो किसी ने नहीं कहा। प्राण-तत्त्व तो पुराने ही होंगे, क्योंकि वे शाश्वत एवं सनातन हैं। किन्तु उनका आविष्कार और अभिव्यक्ति में परिवर्तन होगा। इस परिवर्तन का हमें स्वागत करना चाहिये।
प्राचीन काल में जो व्यवस्थायें निर्माण हुईं वे उस उस काल की आवश्यकता के अनुरूप तैयार की गयीं, ऐसा मुझे लगता है। आज यदि उनकी आवश्यकता न हो, उनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी हो, तो हमें उनका त्याग करना चाहिये। अपनी वर्ण-व्यवस्था का ही विचार करे तो हमारे ध्यान में आयेगा कि समाज में चार प्रकार के कार्य समाज-धारणा के लिये अच्छे ढंग से होना आवश्यक है, ऐसा मानकर, तथा समाज के विविध व्यक्तियों तथा व्यक्तिसमूहों की स्वाभाविक क्षमता और प्रवृत्ति को देखते हुए ही इस प्रकार की व्यवस्था निर्माण हुई। व्यवस्था में वर्गीकरण का होना अपरिहार्य है। (System entails Classification) किन्तु उस व्यवस्था में भेदों की कल्पना कदापि नहीं थी। कुछ विद्वानों के मतानुसार प्रारंभ में यह जन्मानुसार नहीं थी। किन्तु आगे चलकर इस विशाल देश में तथा जनसमूह में गुणों याने 'Aptitude' को कैसे पहचाना जाये, यह प्रश्न विचारशील लोगों के मन में उठा होगा। किसी भी विशिष्ट परीक्षा-पध्दति (System of tests) के अभाव में उन्होंने शायद जन्म से ही वर्ण का बोध स्वीकार किया होगा, ऐसा मैं समझता हूं। किन्तु उसमें ऊंच-नीच का भाव नहीं था। बल्कि, सहस्त्रशीर्ष, सहस्त्राक्ष, सहस्त्रपाद ऐसे विराट समाज के ये सभी महत्त्वपूर्ण अवयव हैं यही भव्योदात्त कल्पना इसके पीछे रही है। अत: यह स्पष्ट है कि इसमें, पैरों से जंघायें श्रेष्ठ और जंघाओं से हाथ अथवा हाथों से सिर श्रेष्ठ है, इस प्रकार की विपरीत अथवा हास्यापद भावना कदापि नहीं थी। इसी कारण एक जमाने में यह व्यवस्था सर्वमान्य थी और कुछ काल तक सुचारू रूप से चली थी। इसके लिये कुछ Checks and balances की व्यवस्था थी। ज्ञान-शक्ति को पृथक् किया गया। उसे सम्मान तो दिया, पर साथ में दारिद्रय भी दिया। दंड शक्ति को पृथक् किया और उसे धन-शक्ति से दूर रखा। धन-शक्ति को दंड-शक्ति से नहीं मिलने दिया। इस प्रकार जब तक यह Checks and balances ठीक तरह से काम करते रहे तब तक यह व्यवस्था भी सुचारू रूप से चली। किन्तु बाद में इस ओर दुर्लक्ष होने से तथा अन्य कारणों से यह व्यवस्था टूट गयी।
जन्म से अर्थात् आनुवंशिकता से गुण-संपदा आती है, इस प्रकार का विचार पूर्वजों ने किया, किन्तु उस काल में भी उन्होंने जन्मत: आने वाले गुणों की मर्यादा को समझा था। इसीलिये, 'शूद्रोपि शील-सम्पन्नो गुणवान् ब्राह्मणों भवेत्। ब्राह्मणोपि क्रियाहीन: शूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्' ऐसा कहा अथवा 'जातिर्ब्राह्मण इति चेत् न'-जन्म से ब्राह्मण होता है, ऐसा कहना उचित नहीं यह बताते हुए ऋष्यशृंग, वसिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्ति आदि अन्य जातियों में जन्में लोग भी धर्माचरण के कारण ब्राह्मण ही हुए, यह स्पष्ट किया है।
पुराणों में ऐसी कथा है कि शूद्र स्त्री का पुत्र महीदास अपने गुणों के कारण द्विज बना तथा उसने 'ऐतरेय' ब्राह्मणों की रचना की। जिसके पिता का पता नहीं, ऐसे जाबाल का उपनयन संस्कार कर, उसके गुरु ने उसे द्विज बनाया - उपनिषद की यह कथा भी प्रसिध्द है। प्राचीन पध्दति में आवश्यक लचीलापन होने के कारण ही यह संभव हुआ होगा।
किन्तु आज तो अनेक कारणों से परिस्थिति पूर्णतया बदल गयी है। इस कारण नये युग, नये काल के अनुरूप विचार करना ही उचित होगा। छपाई-कला के कारण पुस्तकों द्वारा शिक्षा संस्थाओं में ज्ञानार्जन शुरू हुआ, यंत्र-युग के कारण घर-घर में होने वाले काम कारखानों में होने लगे। नये आविष्कार हुए। नया विज्ञान आया। इस कारण आनुवंशिकता के साथ ही आसपास का वातावरण और अन्य बातों का महत्त्व बढ़ गया।
यह सही है, कि प्रकृति के कारण अर्थात् आनुवंशिकता के कारण कुछ विषमता निर्माण होती है। किन्तु उस विषमता का शास्त्र बनाना उचित नहीं। यदि मनुष्य के प्रयास प्रकृति द्वारा निर्मित विषमता को स्थायी बनाने में हुए, तो यह कोई उसका बड़प्पन या महानता नहीं होगी। इसलिये मनुष्य को यही विचार करना चाहिये कि प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर, यह प्राकृतिक विषमता कैसे दूर की जा सकती है, उसे किस प्रकार सहनीय बनाया जा सकेगा ? विषमता का दर्शन तैयार करना उचित नहीं होगा। दुर्बल अथवा निर्धन परिवार में जन्में बालक को भी सभी प्रकार की सुविधायें उपलब्ध कराने के प्रयास, विश्व के सभी समझदार समाजों में होते हैं। यदि किसी जाति विशेष में जन्म लेने के कारण कुछ Handicaps अथवा न्यूनतायें निर्माण होती हों, तो वह व्यवस्था चल नहीं पायेगी। उन न्यूनताओं को आनुवंशिक या नैसर्गिक कहकर उनका समर्थन करना भी आज के युग में भूल होगी। विशिष्ट प्रकार की शिक्षा-प्रशिक्षा द्वारा तथा अन्य व्यवस्था से, पीढ़ियों से चले आ रहे गुण बदले जा सकते हैं। जापान के लोग ठिंगले समझे जाते थे। किन्तु द्वितीय महायुध्द के बाद अमेरिकी जनता से उनका सम्बन्ध आया और उनके रहन-सहन तथा खान-पान की आदतों में काफी परिवर्तन हो गया। इससे उनकी औसत ऊंचाई भी बढ़ गयी। यह बात सिध्द हो चुकी है। पहले अपने देश मे तथा कुछ अन्य देशों में भी कुछ जातियों (Races) को Martial कहने की पद्धति थी। प्रथम तथा द्वितीय महायुध्द इतने बड़े पैमाने पर हुए कि Total mobilization अथवा Conscription करके ही बड़ी-बड़ी सेनायें खड़ी करनी पड़ी तथा हम जानते हैं कि ये सभी लोग Martial Races की भांति ही लड़े।
वास्तव में देखा जाये तो आज की सम्पूर्ण परिस्थिति इतनी बदल चुकी है कि समाजधारणा के लिये आवश्यक ऐसी जन्मत: वर्ण-व्यवस्था अथवा जाति-व्यवस्था आज अस्तित्व में ही नहीं है। सर्वत्र अव्यवस्था है, विकृति है। अब वह व्यवस्था केवल विवाह सम्बन्धों तक ही सीमित रह गयी है। इस व्यवस्था का Spirit समाप्त हो गया है, केवल Letter ही शेष है। भाव समाप्त हो गया, ढांचा रह गया। प्राण निकल गया, पंजर बचा है। समाजधारण से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। अत: सभी को मिलकर सोचना चाहिये कि जिसका समाप्त होना उचित है, जो स्वयं ही समाप्त हो रहा है, वह ठीक ढंग से कैसे समाप्त हो।
अपने यहाँ रोटी-बेटी-व्यवहार शब्द प्रचलित है। पहले रोटी-व्यवहार भी जाति तक ही सीमित था। किन्तु अब वे बन्धन टूट चुके हैं और रोटी-व्यवहार सभी जातियों में शुरू हो गया है। इस कारण जाति-भेद की तीव्रता कम होने मे काफी मदद मिली है। अब विभिन्न जातियों के बीच बेटी-व्यवहार भी शुरू हो गया है। यह अधिक पैमाने पर हुआ तो जाति-भेद समाप्त करने तथा सामाजिक एकरसता निर्माण होने में वह अधिक सहायक होगा, यह स्पष्ट ही है। अत: रोटी-बेटी व्यवहार के बंधनों का टूटना स्वागतार्ह है। किन्तु बेटी-व्यवहार, रोटी-व्यवहार जैसा आसान नहीं है। यह बात सभी को ध्यान में रखकर, संयम न खोते हुए, उसके अनुकूल आचरण करना चाहिये। विवाह कहते ही अच्छी जोड़ी (Good Match) का विचार होना स्वाभाविक ही है। अत: ऐसे विवाह शैक्षणिक, आर्थिक और जीवन-स्तर की समानता के आधार पर ही होंगे। जिस मात्रा में लोगों के निवास की बस्तियाँ एक स्थान पर होकर साथ-साथ रहने की प्रवृत्ति बढ़ेगी, समान शिक्षा सुविधा के साथ लोगों का जाति-निरपेक्ष आर्थिक-स्तर ऊंचा उठेगा उतनी मात्रा में ही यह स्वाभाविक रूप से संभव हो सकेगा। कानून बनाकर अथवा धन का लालच दिखाकर यह संभव नहीं। न ही यह कोई जल्दबाजी का विषय है। यह बात सभी को ध्यान मे रखनी चाहिये। सभी लोगों को, सामाजिक-परिवर्तन के इस प्रयास में अपना-अपना योगदान देना होगा।
अस्पृश्यता (छुआछूत) अपने समाज की विषमता का एक अत्यंत दु:खद और दुर्भाग्यजनक पहलू है। विचारशील लोगों का मत है कि अति प्राचीन काल मे भी इसका अस्तित्व नहीं था तथा काल के प्रवाह में यह किसी अनाहूत की भाँति समाविष्ट होकर रूढ़ बन गयी। वास्तविकता कुछ भी हो, किन्तु हमें यह स्वीकार करना चाहिये कि अस्पृश्यता एक भयंकर भूल है और उसका पूर्णतया उन्मूलन आवश्यक है (Lock, Stock & Barrel)। इस सम्बन्ध में अब कहीं भी दो मत नहीं हैं। अब्राहम लिंकन ने दास-प्रथा के सम्बन्ध मे कहा था, "If slavery is not wrong then nothing is wrong". उसी तरह हमें भी यह कहना चाहिए की 'अगर अस्पृश्यता गलत नहीं तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है'।
अत: हम सभी के मन में सामाजिक विषमता के उन्मूलन का ध्येय अवश्य होना चाहिये। हमें लोगों के सामने यह स्पष्ट रूप से रखना चाहिये कि विषमता के कारण हमारे समाज में किस प्रकार दुर्बलता आयी और उसका विघटन हुआ। उसे दूर करने के उपाय बतलाने चाहिये तथा इस प्रयास में हरेक व्यक्ति को अपना योगदान देना चाहिये।
अपने धर्मगुरु, संत, महात्मा और विद्वानों का जनमानस पर प्रभाव है। इस कार्य में उनका सहयोग भी आवश्यक है। पुरानी बातों पर उनकी श्रद्धा और वे बनी रहें इतना आग्रह ठीक है। किन्तु हमारा उनसे यही अनुरोध है कि वे लोगों को अपने प्रवचनों-उपदेशों द्वारा यह भी बतायें कि अपने धर्म के शाश्वत मूल्य कौन से हैं तथा कालानुरूप परिवर्तनीय बातें कौनसी हैं। ऐसा किया जाने पर उनके प्रतिपादन का अधिक व्यापक और गहरा असर होगा। शाश्वत-अशाश्वत का विवेक रखनेवाले सभी आचार्यों, महंतों और संतों की आवाज देश के कोने-कोने में फैलनी चाहिये। समाज की रक्षा का दायित्व हमारा है और वह मठों से बाहर निकलकर समाज जीवन में घुल-मिलकर रहने से ही पूर्ण होगा, ये बातें उन्हें समझनी चाहिये तथा तदनुरूप कार्य करने हेतु उन्हें आगे आना चाहिये। सौभाग्य से इस दिशा में उनके प्रयास प्रारंभ होने के शुभ संकेत भी मिलने लगे हैं। हमारे दिवंगत सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने ऐसे सभी-महात्माओं को एक साथ लाकर, उन्हें इस दृष्टि से विचार करने हेतु प्रवृत्त किया था। इसी का यह सुफल है कि अनेक धर्मपुरुष, साधु-संत समाज के विभिन्न घटकों में घुलने-मिलने लगे और धर्मांतरित बांधवों को स्वधर्म में शामिल करने तैयार हुए।
समाज के अन्य समझदार लोगों पर भी बड़ा दायित्व है। उन्होंने ऐसे तरीके, ऐसे मार्ग सुझाने चाहिये कि जिनसे काम तो बनेगा किन्तु समाज में कटुता उत्पन्न नहीं होगी। 'उपायं चिन्तयन् प्राज्ञ: अपायमपि चिन्तयेत्'-समाज में सौहार्द, सामंजस्य और परस्पर सहयोग का वातावरण स्थापित करने के लिये ही हमें समानता चाहिये। इस बात को भूलकर अथवा इसे न समझते हुए जो लोग बोलेंगे, लिखेंगे और आचरण करेंगे, वे निश्चय ही अपने उद्देश्यों को बाधा पहुंचायेंगे।
हिन्दु-समाज के किसी भी वर्ग को, अन्याय व अत्याचार का पुतला कहकर कोसते रहना, अपमानित करना, आत्महत और तेजोहत करना कदापि उचित नहीं। उनका आत्मबल बनाये रखकर, नये प्रकार के अच्छे सामाजिक व्यवहार के उदाहरण और आदर्श उनके सामने रखे जाना आवश्यक है। आखिर वे सभी हिन्दु समाज के ही अंग है। अत: उनका स्वाभिमान भी बना रहे, इसका ध्यान रखना होगा। जाति-व्यवस्था तथा अस्पृश्यता का उन्मूलन करना हो, तो जो लोग उसे मानते हैं, उनमें भी परिवर्तन लाना होगा। जो उसे मानते हैं, ऐसे लोगों पर टूट पड़ने अथवा उनसे संघर्ष करने की बजाय कार्य करने का दूसरा मार्ग भी हो सकता है। संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के साथ काम करने का सौभाग्य मुझे मिला है। वे कहा करते- हमें न तो अस्पृश्यता माननी है, न उसका पालन करना है। संघ शाखाओं और कार्यक्रमों की रचना भी उन्होंने इसी आधार पर की। उन दिनों भी कुछ और ढंग से सोचने वाले लोग थे। किन्तु डॉक्टर जी को विश्वास था, कि आज नहीं तो कल, वे अपने विचारों से सहमत होंगे ही। अत: उन्होंने न तो इसका ढोल पीटा और न किसी से झगड़ा किया या उसके विरुद्ध अनुशासन भंग की कार्रवाई ही की। क्योंकि उन्हें विश्वास था कि दूसरा व्यक्ति भी सत्प्रवृत्त है। कुछ आदतों के कारण भले ही वह संकोच करता हो, किन्तु यदि उसे समय दिया गया तो वह भी अपनी भूल निश्चित ही सुधार लेगा। प्रारंभिक दिनों में, एक संघ-शिविर में, कुछ बन्धुओं ने महार बंधुओं के साथ भोजन करने में संकोच व्यक्त किया। डॉक्टरजी ने उन्हें नियम बताकर शिविर से निकाला नहीं। सभी अन्य स्वयंसेवक, डॉक्टरजी और मैं एक साथ भोजन के लिये बैठे। जिन्हें संकोच था वे अलग बैठे। किन्तु उसके बाद दूसरे भोजन के समय, वे ही बन्धु स्वयं होकर हम सभी के साथ बैठे। इससे भी अधिक उद्बोधक उदाहरण मेरे मित्र स्व. पं. बच्छराजजी व्यास का है। जिस शाखा का मैं प्रमुख था, उसी शाखा के वे स्वयंसेवक थे। उनके घर का वातावरण पुराना, कट्टरपंथी होने के कारण, वे उन दिनों मेरे यहां भी भोजन के लिये नहीं आते थे। जब वे पहली बार संघ-शिविर में आये, तब उनके भोजन की समस्या खड़ी हो गई। सब लोगों का एक-साथ तैयार किया गया तथा परोसा गया भोजन उन्हें नहीं चलता था। मैंने डॉक्टरजी से पूछा तो उन्होंने कोई नियम बताकर उन्हें शिविर में आने से नहीं रोका। क्योंकि उन्हें बच्छराजजी के संबंध में विश्वास था, कि उनमें उचित परिवर्तन अवश्य होगा। अत: उन्होंने मुझे कहा कि बच्छराजजी को शिविर में आने दो। हम उन्हें अलग रसोई पकाने की छूट देंगे। प्रथम वर्ष तो यही हुआ, किन्तु दूसरे वर्ष स्वयं बच्छराजजी ने कहा कि मैं भी सब लोगों के साथ भोजन करूंगा। बाद में वे जैसे-जैसे संघकार्य में रमते गये वैसे-वैसे उनके व्यवहार में (धार्मिक वृत्ति के होने के बावजूद भी) किस प्रकार परिवर्तन हुआ, यह सर्वविदित है।
अनेक बार, हिन्दु-समाज में जो आन्तरिक विद्वेष और संघर्ष की स्थिति पैदा होती है, उसका मूल कारण राजनीतिक अथवा वैयक्तिक झगड़ा ही होता है। आगे चलकर राजनीतिक लोग अथवा सम्बन्धित व्यक्ति उसे दो जातियों के बीच के संघर्ष का रूप देते हैं, ताकि अपनी चमड़ी बचायी जाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा हो सके। ऐसे समय अनेक सत्प्रवृत्त बंधु तथा पत्रकार भी अज्ञानवश उनका साथ देते हैं। हिन्दु और मुसलमान के बीच के झगड़े को, दो सम्प्रदायों के बीच का संघर्ष निरूपित किया जाता है, किन्तु हिन्दुओं के राजनैतिक अथवा वैयक्तिक झगड़ों अथवा अत्याचारों को भड़कीले व जातीयतावादी शीर्षक दिये जाते हैं। यह कदापि उचित नहीं।
दलित अथवा अस्पृश्य माने गये बंधुओं ने, काफी अत्याचार व कष्ट सहन किये हैं। किन्तु उन्हें भी यह ध्यान में रखना चाहिये, कि समाज के सभी घटक यह महसूस करते हैं कि यह बात गलत है और ये अत्याचार रुकने चाहिये। इस दिशा में वे प्रयत्नशील भी हैं। उन्हें (अस्पृश्यों को) भी अभिप्रेत है कि अन्याय समाप्त होकर, उन्हें सब के साथ समानता का स्थान प्राप्त हो। अत: सभी लोगों का इस दृष्टि से प्रयास होना चाहिये। उन प्रयत्नों के लिये पोषक भाषा का उपयोग और आचरण होना भी आवश्यक है। समाज की अन्यायपूर्ण तथा बुरी बातों की निंदा अथवा आलोचना तो अवश्य होनी चाहिये। किन्तु साथ ही अपने समाज के दोषों के प्रति व्यथा की भावना भी प्रकट होनी चाहिये। जिस प्रकार विदेशी लोग, हमें परकीय मानकर, तुच्छता और तिरस्कारपूरर्ण बर्ताव करते हैं, उस प्रकार का भाव हममें नहीं रहना चाहिये। सभी को इस बात की सावधानी बरतनी चाहिये, कि भूतकाल के झगड़ों को वर्तमान में घसीटकर अपने भविष्य को कोई खतरें में न डाल दे। हम सब इसी समाज के अंग हैं अत: हम समाज के अन्य घटकों के साथ रहेंगे, इस प्रकार का वास्तविक आग्रह उन्हें रखना चाहिये। ऐसा करने पर ही दलितेतर बहुत बड़ा समाज और दलितों की शाक्ति एकजुट होकर, उस शक्ति के आधार पर अपेक्षित सामाजिक समता का वातावरण बन सकेगा।
महात्मा फुले, गोपालराव आगरकर अथवा डॉ. आंबेडकर प्रभृति आदि महापुरुषों ने अपने समाज की बुराइयों पर कड़े प्रहार किये हैं। कुछ जातियों तथा ग्रन्थों की भी कटु आलोचना की है। उसका क्या प्रयोजन था तथा उस समय की परिस्थिति क्या थी, इसे हमें समझना होगा। व्यक्ति, प्रारंभ में किसी बात की ओर ध्यान आकर्षित कराने के लिये तथा जनमत जागृत करने के लिये कड़ी भाषा का प्रयोग करता है। किन्तु सदा-सर्वदा ऐसा करते रहना सबके लिये आवश्यक नहीं है।
मेरी यह धारणा है कि दलित बंधु किसी की कृपा नहीं चाहते हैं, वे बराबरी का स्थान चाहते हैं और वह भी अपने पुरुषार्थ से ही।
हमारे ये भाई अब तक पिछड़े हुए रहने के कारण चाहते हैं कि सभी प्रकार की सुविधायें ओर अवसर मिलने चाहिये। उनकी यह अपेक्षा और मांग उचित ही है। किन्तु अन्ततोगत्वा उन्हें समाज के विभिन्न घटको के साथ योग्यता की कसौटी पर स्पर्धा करके ही बराबरी का स्थान प्राप्त करना है। यह उन्हें भी अभिप्रेत होगा।
अनेक दोषों के बावजूद हिन्दुओं की अपनी कुछ विशेषतायें हैं। जीवन विषयक उनकी कुछ कल्पनायें हैं, धारणायें हैं। विश्व के विचारशील लोग भी यह स्वीकार करते हैं कि समाज ने कुछ शाश्वत-मूल्य प्रस्थापित किये हैं। अत: इन जीवन-मूल्यों को माननेवाला तथा तदनुरूप आचरण करनेवाला ऐसा एकरस समतायुक्त संगठित हिन्दु समाज खड़ा हो सका तो ये विशेषतायें टिकी रहेंगी और विश्व के लिये भी उपयोगी सिद्ध हो सकेंगी। सभी व्यक्ति ईश्वर-पुत्र हैं, इतना ही नहीं तो इससे भी आगे बढ़कर वे ईश्वर के ही अंश हैं, ऐसा माननेवाले हिन्दु-धर्म में ऊंच-नीच की भावना पनपे, इस सम्बन्ध में डॉ. आम्बेडकर ने अत्यंत दु:ख व्यक्त किया था। वास्तव में समानता का साम्राज्य प्रस्थापित करने के लिये इससे बड़ा आधार और क्या हो सकता है। अत: हिन्दुओं की एकता आवश्यक है और उस एकता का आधार सामाजिक समता ही हो सकती है-ऐसा ही विचार सभी बांधवो को करना चाहिये और यह राष्ट्र संगठित व शक्तिशाली बनाने हेतु आगे आना चाहिये।
अपने समाज के इतिहास का कालखंड काफी लंबा है तथा उसमें विचार और आचार की स्वतंत्रता के लिये पूर्ण गुंजाइश होने के कारण पुराने ग्रन्थों में कुछ ऐसे वचनों का उल्लेख मिलता है, जिनका विपरीत अर्थ निकालकर विषय का विपर्यास किया जा सकता है। इस संस्कृति ने स्त्री को तुच्छ माना है, यह बताने की लिये-‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति’ का उल्लेख किया जाता है और दूसरी ओर स्त्री को अपने समाज में कितना ऊंचा स्थान प्राप्त है, यह बताने के लिये-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता:’ इस प्रकार का वचन भी यहाँ उपलब्ध है। जो समाज की एकता चाहते हैं उन्हें एकता के लिये जो-जो बातें आवश्यक व अनुकूल हैं, वे सभी लोगों के सामने किस प्रकार लायी जा सकेंगी, उनकी विपरीत धारणायें कैसे दूर हो सकेंगी तथा उनमें किस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकेगा, इस दिशा में प्रयास करना होगा।
पूना, 8 मई 1974