श्री सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र में नासिक के समीप भागुर गांव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उन्होंने छह वर्ष की आयु में गांव के विद्यालय में प्रवेश लिया और उनका बचपन अपने पिता से रामायण और महाभारत की कहानियां और राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में गाथागीत और बाखड़ सुनते हुए बीता। जन्म से ही प्रतिभावान सावरकर में कविता रचना की विलक्षण क्षमता थी और दस वर्ष की आयु में ही उनकी कविताएं सुप्रसिद्ध समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई थीं।
बाल्यावस्था में भी विनायक लोगों की वेदनाओं के बारे में बहुत सचेत थे । वह अकाल और प्लेग जैसी महामारियों के कारण भावनात्मक रूप से द्रवित हो उठे। इसमें ब्रिटिश शासन के कटु व्यवहार और ज्यादतियों ने आग में घी का काम किया। ऐसे वातावरण में युवा सावरकर उद्वेलित हो उठे। उन्होंने अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि से निकाल कर भारत को आजाद कराने के शहीदों के अधूरे लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपने परिजनों और मित्रों तक की कुर्बानी देने का प्रण किया। वर्ष 1899 में मात्र 16 वर्ष की आयु में ही सावरकर ने 'मित्र मेला' नामक संगठन का गठन किया जिसका मूल उद्देश्य भारत की संपूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था। बाद में इस संगठन का नाम बदलकर "अभिनव भारत" रख दिया गया।
सावरकर 1906 में लंदन के लिए रवाना हो गए और उन्होंने वहां अपना कार्य जारी रखा। उसी वर्ष उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की शुरुआत की। उनके अनुसार मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु संघर्ष में स्वदेशी का पाठ और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार; राष्ट्रीय शिक्षा देना और क्रांतिकारी भावना उत्पन्न करना तथा सैन्य बलों में देशभक्ति की भावना जागृत करना अनिवार्य रूप से शामिल होना चाहिए। दिसम्बर 1908 में आयोजित सम्मेलन में स्वराज की मांग करने वाला एक संकल्प सर्वसम्मति से पारित हुआ । इसी सम्मेलन में तुर्किस्तान को गणराज्य बनने पर बधाई दी गई।
सावरकर संभवतः भारतीय नेताओं में पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के महत्व को महसूस किया । " अभिनव भारत" के भारतीय क्रांतिकारी रूस, आयरलैंड, मिस्र तथा चीन की क्रांतिकारी ताकतों से निरंतर सम्पर्क बनाए हुए थे। सावरकर ने न्यूयार्क के "गैलिक अमरीका में भारतीय मामलों से संबंधित लेख लिखे तथा इन्हें फ्रेंच, जर्मन, इतालवी, पुर्तगाली और रूसी भाषाओं में अनुवाद करवाकर प्रकाशित करवाया।
सावरकर ने अपने राजनैतिक कार्य के साथ-साथ अपने शैक्षिक जीवन को भी आगे बढ़ाया। यद्यपि सावरकर 'ग्रे इन' की अंतिम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए लेकिन 'इन' की बेंचों ने सावरकर को बार में बुलाने से इंकार कर दिया। वे चाहते थे कि सावरकर लिखित में वचन दें कि वह कभी भी राजनीति में भाग नहीं लेंगे। सावरकर ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। सावरकर की गतिविधियों के चलते अंततः मार्च 1910 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जब उन्हें भारत को प्रत्यर्पित किया जा रहा था, तो उनके जहाज के इंजन में गड़बड़ी आ गई और उसे फ्रांस के मार्सेल में लंगर डालना पड़ा। इस अवसर का लाभ उठाते हुए सावरकर ने भागने का दो बार प्रयास किया लेकिन वह असफल रहे। अंतत: वह अपने शरीर को सिकोड़कर जहाज के झरोखे से बड़े अनूठे ढंग से बाहर निकलकर बच निकले। फ्रांसीसी कानून का संरक्षण प्राप्त करने की दृष्टि से वह मार्सेल तट पर पहुंचे। तथापि, काफी कोशिशों के बाद अंग्रेजी पहरेदारों ने उन्हें पकड़ लिया और वापस जहाज पर पहुंचा दिया। 27 वर्ष की छोटी सी आयु में उन्हें दो बार काले पानी की सजा सुनायी गयी और अंडमान में कारागार में रखा गया। कारागार का जीवन (1911-1924) बेहद कठिनाइयों से भरा हुआ था। उन्हें कोल्हू में बैल की तरह जोता जाता था और यहां तक कि उन्हें निर्धारित मात्रा से अधिक पानी भी नहीं दिया जाता था। उनके साथ किए गए कठोर बर्ताव के कारण उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरता गया और उनका शरीर सूखकर कांटा हो गया।
1924 में जेल से छूटने के बाद सावरकर समाज सुधार का कार्य पूरी गंभीरता से करने लगे। उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता के विरुद्ध युद्ध छेड़ा और अंतरजातीय विवाह, समुद्र यात्रा और पुन: धर्म परिवर्तन से जुड़ी वर्जना के खिलाफ जम कर लिखा। वह अस्पृश्य बच्चों के लिए न्यायसंगत, नागरिक, मानवीय और वैध अधिकारों को सुनिश्चित कर पाए और उन्होंने पब्लिक स्कूलों में अस्पृश्य बच्चों को उच्च जाति के हिन्दू बच्चों के साथ बिठाया। सावरकर ने सच्चे दिल से 'अस्पृश्यों' की मुक्ति के लिए डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के संघर्ष का समर्थन किया।
वर्ष 1937 में सावरकर अहमदाबाद अधिवेशन में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। तत्पश्चात् पांच अनुवर्ती वर्षों के लिए उन्होंने महासभा अधिवेशन की अध्यक्षता की। जब स्वतंत्रता मिलने वाली थी, तब सावरकर ने विभाजन का कड़ा विरोध किया। सावरकर की भारत की संकल्पना ऐसी थी जहां सभी नागरिकों के जाति, वंश, प्रजाति या धर्म का भेदभाव किए बिना समान अधिकार और कर्तव्य हों बशर्ते वे देश के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखें। अल्पसंख्यकों की भाषा, धर्म, संस्कृति इत्यादि को सुरक्षित रखने के लिए प्रभावी रक्षोपाय किए जाएं। सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति, अंतरात्मा, पूजा-अर्चना, संगठन की स्वतंत्रता इत्यादि मूलभूत अधिकार समान रूप से दिए जाएं। कोई प्रतिबंध लागू करते समय, सार्वजनिक शांति और व्यवस्था के हित या राष्ट्रीय आपातस्थिति, इसके लिए मार्गदर्शी सिद्धांत रहें। संयुक्त मतदाता वर्ग और 'एक व्यक्ति एक मत' सामान्य नियम हों। नौकरियां केवल योग्यता के आधार पर ही मिलें। प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क एवं अनिवार्य हो। 'नागरी' राष्ट्रीय लिपि हो, हिंदी जनभाषा और संस्कृत देवभाषा हो ।
सावरकर ने अर्थव्यवस्था के महत्व को समझा और आर्थिक नीति के लिए कुछ मुख्य सिद्धांतों के सुझाव दिए जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ कृषक वर्ग, श्रमिक वर्ग और गांवों को पुनः सक्रिय बनाने हेतु प्रयास करना, कुछ प्रमुख उद्योगों अथवा विनिर्माण इकाइयों का राष्ट्रीयकरण करना और विदेशी प्रतिस्पर्धा से राष्ट्रीय उद्योगों की रक्षा करने के लिए राज्य द्वारा उठाये जाने वाले कदम भी शामिल थे।
सावरकर की साहित्यिक कृतियां जोश, उत्कृष्टता और आदर्शवाद से परिपूर्ण थीं। जोसेप मैजिनी के दर्शन से अत्यधिक प्रभावित होकर सावरकर ने उनकी आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया जो चालीस वर्ष तक प्रतिबंधित रही। अंडमान जेल में लेखन सामग्री के अभाव में उन्होंने जेल की अपनी कोठरी की दीवारों पर अपनी कविताएं लिखीं। उनके कविता संग्रह को ठीक ही 'जंगली फूल' (वाइल्ड फ्लावर) का शीर्षक दिया गया है। यद्यपि ये रचनाएं अपने आप में पूर्ण हैं, तथापि 'कमला', 'गोमांतक', 'सप्तऋषि', 'विरहोच्छ्वास' और 'महासागर' अपूर्ण महाकाव्य के भाग हैं। उनकी अन्य कविताएं 'चेन', 'सेल', 'चैरियेट फेस्टिवल ऑफ लार्ड जगन्नाथ', 'ओह स्लीप' तथा 'ऑन डेथबेड' दार्शनिकता पर आधारित हैं।
सावरकर की प्रसिद्ध कृतियां 'हिन्दुत्व' तथा 'हिन्दू - पद - पादशाही' मराठा उपनाम से रत्नागिरी जेल में लिखी गई थीं। इस पुस्तक में हिंदू राष्ट्रवाद के सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या की गयी थी। 1907 1908 के दौरान लंदन में उन्होंने 'फर्स्ट इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस, 1857 नामक पुस्तक की रचना की थी जो कई क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही। 'सिक्स ग्लोरियस इपॉक ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में लगभग एक हजार संदर्भ हैं। उन्होंने 'माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ', 'हिन्दू राष्ट्र दर्शन' और 'एन इको फ्रॉम अंडमान' की भी रचना की। मराठी कविताओं में 'वैनायक' नामक मुक्त छंद की शुरुआत सावरकर के महत्वपूर्ण योगदानों में से एक थी। उन्होंने मराठी भाषा की शुद्धता के लिए भी आंदोलन चलाया।
जीवन के अंतिम काल में सावरकर का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा और वह बिस्तर पर ही रहे। 3 फरवरी 1966 को उन्होंने आमरण अनशन शुरू किया। चिकित्सकों को आश्चर्य था कि बिना दवा के तथा प्रतिदिन मात्र 5-6 चम्मच पानी पीकर भी वे 22 दिनों तक जीवित रहे। अंतत: 26 फरवरी 1966 को 83 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
वीर सावरकर के निधन पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने कहा था कि " सावरकर हमारे देश की स्वतंत्रता के एक कर्मठ और जुझारू कार्यकर्ता थे, युवाओं के लिए उनका जीवन एक मिसाल है" ।
तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि "वह एक महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने हमारी मातृभूमि की मुक्ति के लिए अनेक युवाओं को कार्य करने हेतु प्रेरित किया" ।
सावरकर को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि सावरकर समकालीन भारत के महान नेता थे जिनका नाम साहस और देशभक्ति का प्रेरणास्रोत है। वह महान क्रांतिकारी के सांचे में ढले ऐसे व्यक्तित्व थे जिनसे अनगिनत लोगों ने प्रेरणा ली।
(लेख का स्रोत : लोक सभा सचिवालय नई दिल्ली द्वारा 2019 में प्रकाशित )
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