सभी दलों के उत्साही और नितांत खलिहर कार्यकर्ताओं ने गाजे बाजे और फूलमालाओं के साथ अपनी-अपनी पार्टियों के दफ्तरों में बेटे के विवाह जैसा माहौल बनाया हुआ था। कुछ हुड़दंगी टाइप लठ्ठमार कार्यकर्ताओं ने मतगणना केन्द्रों के बाहर हर परिस्थिति के हिसाब से पूरी तैयारियों के साथ डेरा डाल रखा था।
सुन्दर-सुन्दर समाचार वक्ताओं ने अच्छे रंग-रोगन के साथ मुंह चभोर कर अपने से भी अधिक बने-संवरे विभिन्न दलों के बड़बोले प्रवक्ताओं के साथ जमघट लगाया हुआ था।
सारी तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं, सभी प्रवक्ताओं ने अपनी-अपनी पार्टियों के जीतने की घोषणा कर दी थी। बस मतगणना शुरू होने की देर थी।
विपक्षियों ने हर बार की तरह ईवीएम वाली बात की चर्चा एकाध दिन पहले से ही शुरू कर दी थी।
और फिर मतगणना शुरू हुई, तमाम बयान पर बयान आने लगे, अलग-अलग सीटों के रुझान आने लगे, न्यूज चैनलों में चीनी मिलों से भी अधिक तीव्रता वाले हूटर बजने लगे।
कभी कोई आगे होता कभी कोई। पहले एक डेढ़ घंटे में ये रुझान आया कि इस बार का परिणाम वैसा नहीं होने वाला जैसी उम्मीद सबने पाल रखी थी। अब तो खैर विपक्षी पलट ही गये हैं जो मुझे उम्मीद भी थी पर कल तक जैसा माहौल था वैसे में उन्होंने भी ऐसी उम्मीद नहीं लगाई होगी।
सत्ता पक्ष के बड़बोलों के चेहरे उतरने लगे थे और विपक्षी बड़बोलों के चेहरे की चमक बढ़ती जा रही थी।
धीरे-धीरे विपक्षी गठबंधन की सीटों की संख्या बढ़ने लगी और सत्ता के बड़बोलों के चेहरे रुआंसे होने लगे। एक चैनल पर तो एक निर्गम मतानुमान बताने वाले महानुभाव रोने लगे थे।
हद्द तो तब हो गई जब सत्ता के नीति नियंता स्वयं कुछ देर के लिए अपनी सीट से पीछे चले गये वो भी तब जब पिछले दो बार में उप-विजेता कभी उनके आसपास भी नहीं फटक पाया था और बाद में पिछ्ले नतीजों के मुकाबले बहुत ही कम अंतर से विजयी हुए।
दोपहर तीन बज चुके थे। मैं गंतव्य पर पहुंच कर कूलर चला आराम से लेटा हुआ था। बहुत से यार दोस्त हर्षोल्लास के साथ और बहुत से रोते हुए फोन कर चुके थे। रोने वालों में कुछ हाईकमान से दुखी थे, कुछ पिछले विजयी सांसदों से, कुछ हाईटीसेल से तो कुछ ने जनता पर ही सारा दोषारोपण कर दिया था।
खुश होने वालों को बधाई और रोने वालों को सांत्वना दे देकर मेरा मन भी थोड़ा उबाऊ हो चुका था। एक अस्पष्ट बहुमत की ओर अग्रसित नतीजे देखकर संभावित कारणों पर भी मन विचरण करने की कोशिश कर रहा था।
थोड़ी देर तक यूं ही पक्ष-विपक्ष की जीत-हार के कारणों पर मंथन करने के पश्चात मैंने सोचा चलो ट्वीटर के धुरंधर ज्ञानियों और ट्वीटरियों की राय पढ़ी जाये शायद वहां से कुछ सार्थक जानकारी मिल सके।
यही सब सोचकर मैंने ट्वीटर खोला तो देखा इधर अलग ही खेल चल रहा है। कोई सत्ता की हार का दोष पार्टी के एक अन्य युवा और प्रसिद्ध नेता, जिनको भावी नायक की तरह देखा जाता था, के मत्थे मढ़ने में लगे हैं तो कुछ लोग धार्मिक कट्टरवाद या तृप्तिकरण की बात कर रहे हैं। एकाध लोग पुराने सांसदों के नकारेपन जैसे दुर्लभ कारणों की भी चर्चा करते दिखे। पढ़कर लगा देश बदल रहा है, काम पर वोट दे रहा है। पर तभी कुछ ऐसे क्षेत्रों कै नतीजे दिखे जहां का कायाकल्प होने के बावजूद वहां के प्रत्याशी भारी अंतर से हार गये हैं।
कुछ ऐसे भी ट्वीटरिये दिखे जो मन में तो चार सौ पार ना होने से फूट-फूटकर रो रहे होंगे पर बाहर से सवा दो सौ को ही अपार जनसमर्थन और मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे कि लगातार तीन बार में भी इतनी सीटें लाना चार सौ पार से कम नहीं है।
ये बुद्धिजीवी लोग हाईटीसेल के नकारे पालतुओं को बचाव का आधार दे रहे थे और साथ ही बड़बोलों को खींसें निपोरने का भी जो शाम तक सच ही साबित हुआ।
शाम तक हाईटीसेल इसी बचाव लाइन पर चल रहा था और प्रवक्ताओं ने भी यही धुन बजानी शुरु कर दी थी।
कुछ अतिउत्साहित निकम्मों ने हार का ठीकरा ऐसे ही किसी अनचाहे मौके के लिए खिलाये पिलाये गये अध्यक्ष जी के मत्थे फोड़ उनका ही ढ़ोल बजाना शुरू कर दिया। ये सब देखकर विपक्ष के एक अध्यक्ष जी राहत की सांस ले रहे थे।
शायद अपने छोटे से जीवनकाल में पहली बार देख रहा था कि दोनों ओर से ही नैतिक विजय की ढपली बजा बड़बोलों की जमात नाच रही थी। आत्मावलोकन की सुध किसी को नहीं थी। सत्ता पक्ष में सबको सदमा लगा था पर शायद बचाव के नये नये तरीकों में उन्होंने खुद को संतुष्ट कर लिया था।
सबने पार्टी के मुखिया जी की एक फेमस लाइन "आपदा में अवसर" की राह पर चलकर "सदमे में संतुष्टि" ढूंढ ली थी।
लेखक:- निखिल वर्मा
इसके अलावा और चारा भी कुछ नहीं था दोनों के पास ... पर शायद समय बतायेगा की ये ठीक हुआ क्या ...
ReplyDeleteहा सही कहा अपने।
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